पथ के साथी

Friday, October 11, 2024

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1-रात प्रहरी /  डॉ. सुरंगमा यादव

 


रात प्रहरी

कैसे आऊँ मैं प्रिय

लाँ  देहरी

वर्जनाएं तोड़ भी दूँ

जग से मुखड़ा मोड़ भी लूँ

पर न चाहूँगी प्रियवर!

मैं कोई आक्षेप तुम पर

मैं रहूँ जब  दूर तुम से

चाँदनी का ताप सहती

चाँद का सहती उलाहना

मन मेरा भी कमलसा है

और भाती है-

मधुप की मधुर गुनगुन

पर नहीं मैं चाहती हूँ

प्रेम को बंदी बनाना

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2-स्वाति बरनवाल

 1-हितैषी

 


वे हमारे हितैषी बनकर आ

उन्होंने बताया कि तुम्हारे

हाथों में यश है और 

पैरों में बेड़ियाँ

मैं निहाल हो उठी,

उन्होंनें मुझे मेरे अस्तित्व का भान कराया।

 

उन्होंने कहा- तुम तीर हो

ख़ूब दूर तक जाओगी,

बस! साथ जुड़ी रहो!

दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करोगी।

 

उन्होंने कहा- मैं तुम्हारें पैरों में 

बेड़ियाँ नहीं रहने दूँगा,

मैं उन्हें काट फेकूँगा।

मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।

 

मैंने दाँतों तले उँगली दबा और 

अपने पैरों को थोड़ा पीछे खींच लिया।

 

ठहरो!

वे शिकारी नहीं;

बल्कि हमारे हितैषी थे।

उन्होंने मेरे पैरों की बेड़ियाँ खोलीं

और अपनी कमान में साधने लगे,

उन्होंने मुझे शिकार नहीं,

बल्कि...

अपने शिकार का जरिया बनाना चाहा।

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2-संझा -बाती

 

दोपहर की तपिश में 

जैसे जैसे 

चढ़ती हैं सीढ़ियाँ

फूलती है उनकी सांसे और 

उतरते- उतरते  रुँध जाता है गला.

 

जाने कितनी ही औरतें हैं 

जो कुहकती है

सिसकती हैं और 

पलटवार न करने में ही आस्था रखती हैं।

 

देव- मंदिर की किसी पवित्र दिये की 

मद्धम लौ की भाँति 

आधी सोई, आधी जागी 

उनकी आँखें 

कितनी निश्चल और शांत 

इस इन्तजार में कि 

भक्तों से अटा उसका

प्रांगण खिलता है 

परंतु

देवताओं के प्रवेश से 

खुल जाते हैं उनके मन के कपाट

 

जीवन है संझा बाती 

और उसकी लय, गति और यति।

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