दीवारें
भावना सक्सैना
दीवारें
कभी
होती नहीं खाली
उनमें
होती हैं
परछाइयाँ युगों की
बसी
होती हैं
कहानियाँ कईं
कुछ
सूखी, कुछ
सीली।
फिर-फिर
रँगे
जाने पर भी
आँखें
खोज लेती हैं
उनमें
बसे चित्र मन के
नेह, ममता और वात्सल्य के,
कहीं-कहीं
होते हैं चिकोटे
दर्द
भरे किसी दिन के, और
वहीं
रह जाती हैं वे छिली।
घुप्प
अँधेरे में उभर आती हैं
कुछ
दमकती रेखाएँ
रोशन
करती हैं जो
दिनभर
अँधेरे में डूबे
हताश
हो आए मन को
कि
भीतर की लौ को चाहिए
एक
जगह ,जहाँ
बाहर की
हवाओं से आराम हो।
बस
इसीलिए
बाँधना
मत दीवारों को
कुछ
रंगीन चित्रों में,
टाँगना
मत उन पर
चौखुटे
फ्रेम में जड़े
किसी
और की
कोरी
कल्पनाओं के रूप...
कि
उनमें हैं रंग असंख्य
स्मृतियों
के, आकांक्षाओं
के
और
अनगिनत उम्मीदों के।
उनमें
चिड़ियाँ हैं
सपनों
के सफेद पंखों वाली
जो
रह-रह भरती हैं उड़ान
कि
उन्हें पाना है एक मुकाम।
उन
सफेद पंखों में
इंद्रधनुष
के रंग है
इन
रंगों को
बाँधना
नहीं खाँचों में
कि
कोरों से बह
एक
दूसरे में घुल मिल
बनते
हैं रंग नए।
लेकिन
जब चढ़ाए जाते हैं
परत
-दर -परत
एक
दूसरे का अस्तित्व
लील
जाने की चाह में
रंगों
पर चढ़े रंग
हो
जाते हैं बेरंग...