रेनू सिंह –आगरा विश्वविद्यालय से एम. एस –सी. भौतिकी ।
केन्द्रीय विद्यालय आयुध
उपस्कर निर्माणी की 2008 बैच में कक्षा 12
की छात्रा रही है।मुझे कुछ समय हिन्दी शिक्षण का अवसर मिला । केन्द्रीय माध्यमिक बोर्ड की कक्षा 12 में
हिन्दी में 98% अंक लाकर विशिष्ट प्रमाण –पत्र
प्राप्त किया । यहाँ इनकी दो कविताएँ दी जा रही हैं । आशा है इनको आप सबके द्वारा प्रोत्साहन
मिलेगा।
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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रेनू सिंह
रेनू सिंह
सच्चे लोग चले जाते हैं,
कदमों के निशाँ नहीं मिलते।
उनकी धड़कन में बसे हुए,
यादों के जहाँ नहीं मिलते।
कितना सुन्दर सपना था वो,
अक्सर जो देखा करते थे।
कितना सक्षम भव्य भारत था,
वे हरदम सोचा करते थे।
सुख व शांति के अनमोल बीज,
जहाँ-तहाँ वे उगा कर गए.
प्रेम मार्ग सदा अपनाना,
ये सीख हमें बता कर गए.
घृणा-द्वेष सब कुछ दूर हो,
ऐसा जतन किया करते थे।
क्षमादान ह़ी महादान है,
वे यह सीख दिया करते थे।
अनेक सुनहरी पुस्तकों में,
उनके नाम दोहराए जाएँगें।
जिनकी महान गाथा सुनकर,
हम अपना शीश झुकाएँगे।
स्वर्णिम काल गुजर गया है,
पर आगे नया जमाना है।
दफ़न पड़े सपनों को,
हमें अब जी कर दिखाना है।
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कदमों के निशाँ नहीं मिलते।
उनकी धड़कन में बसे हुए,
यादों के जहाँ नहीं मिलते।
कितना सुन्दर सपना था वो,
अक्सर जो देखा करते थे।
कितना सक्षम भव्य भारत था,
वे हरदम सोचा करते थे।
सुख व शांति के अनमोल बीज,
जहाँ-तहाँ वे उगा कर गए.
प्रेम मार्ग सदा अपनाना,
ये सीख हमें बता कर गए.
घृणा-द्वेष सब कुछ दूर हो,
ऐसा जतन किया करते थे।
क्षमादान ह़ी महादान है,
वे यह सीख दिया करते थे।
अनेक सुनहरी पुस्तकों में,
उनके नाम दोहराए जाएँगें।
जिनकी महान गाथा सुनकर,
हम अपना शीश झुकाएँगे।
स्वर्णिम काल गुजर गया है,
पर आगे नया जमाना है।
दफ़न पड़े सपनों को,
हमें अब जी कर दिखाना है।
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1-डर
डर
था अगर अँधेरे में खोनॆ का,
तो यूँ हसीन
सपने सजाए ना होते।
परवाह थी इन तेज हवाओं की अगर,
तो
रेत के आशियाँ बनाये ना होते।
डर था अगर गिरकर चोट खाने का,
डर था अगर गिरकर चोट खाने का,
तो
अपने कदम आगे बढ़ाए
ना होते
इतने
ही पस्त होने थे अगर
हौसले,
तो
अपने पंख यूँ फैलाए ना होते।
डर था अगर हारकर टूट जाने का,
डर था अगर हारकर टूट जाने का,
तो
दिये उम्मीद के जलाए ना होते।
थमकर
यूँ ही ठहर जाना था अगर,
तो
गीत खुशी के गाये ना होते।
2-ज़रूरी है
गुजरते हुए वक़्त के
साथ ठहराव जरूरी है,
युग बदलेंगे, लेकिन खुद में बदलाव जरूरी है
तरक्की का परचम लहरा
रहा है आसमान में,
चाँद को भी छू रहा है
इन्सान ये।
पर अपनी धरती से भी
जुड़ाव जरूरी है
गुजरते हुए वक़्त के
साथ ठहराव जरूरी है।
मॉडर्न सोच का माहोल
यूँ छा रहा है
ये विज्ञान वरदान नए
मौके ला रहा है
पर अपनी संस्कृति से
भी लगाव जरूरी है
गुजरते हुए वक़्त के
साथ ठहराव जरूरी है।
इंसानियत खो गई है इस दौड़ में कहीं,
दिल से तो अब कोई
सोचता ही नहीं।
इस बदलती सोच से अपना
बचाव जरूरी है
गुजरते हुए वक़्त के
साथ ठहराव जरूरी है ।
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