पथ के साथी

Saturday, July 29, 2017

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रहबर (लघुकथा)
डॉ हरदीप कौर संधु 
Image may contain: one or more peopleसरकारी अस्पताल में से उसे जवाब मिल चुका था। उसकी हालत अब नाज़ुक होती जा रही थी। आंतरिक रक्तस्त्राव के कारण जच्चा -बच्चा की जान को ख़तरा बनता जा रहा था। नाजर के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ और गहरी होती जा रही थीं। बहुत कम दिन मिलते काम के कारण रूपये -पैसे का प्रबंध भी नहीं हुआ था। चौगिर्दा उसको साँस दबाता  लग रहा था। उसकी साँस फूलने लगीं और वह ज़मीन पर बैठ गया। 
"चल उठ ! नाजरा मन छोटा न कर पुत्र ! मैने तो पहले ही बोला था कि हम गिन्दो को काशी अस्पताल ले चलते हैं। वहाँ तेरा एक भी पैसा खर्च नहीं होगा अगर लड़की हुई तो। डाक्टरनी साहिबा लड़की होने पर कोई पैसा नहीं लेती। दवा भी मुफ़्त देती है और सँभाल भी पूरी होगी। " पड़ोस से साथ आई अम्मा ने सलाह देते हुए बोला। 
नाजर अब लेबर रूम के बाहर हाथ जोड़कर बैठा था। शायद उस प्रभु की किसी रहमत की आशा में। मगर उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। 
"लाडो गुड़िया हुई है ,कोई फ़ीस नहीं ,बस गुड़ की डलिया से सब का मुँह मीठा कीजिएगा। " रहबर बनी डाक्टर के बोल सुनकर नाजर की आँखों में शुक्राने के अश्रु तैरने लगे। 

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