पथ के साथी

Sunday, May 11, 2014

माँ


1-जब याद तुम्हारी
सुदर्शन रत्नाकर , फ़रीदाबाद

जब याद तुम्हारी आई माँ
तब आँखें भर- भर आई माँ
बचपन गया बुढ़ापा आया
मेरे संग-संग आई माँ
सम्बंधों के हसासों को
कभी  भूल ना पाई माँ
मेरी ख़ातिर तूने हरदम
बाबा से लड़ी लड़ाई माँ
कई बार तू भूखी सोई
पर रोटी मुझे खिलाई माँ
सर्दी में भी रही,ठिठुरती
ओढ़ाकर मुझे रज़ाई माँ
क्यों भूलूँ उपकार तुम्हारे
तू प्यार भरी कविताई माँ ।
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2-माँ की  ममता का
      - पुष्पा मेहरा     

 माँ की  ममता का
आँचल पकड़ कर
 हम डगमग - डगमग चले
 माँ पगों की शक्ति बनी
 हमारी पग-पायलों की रुनझुन में
 डूबती उतराती माँ -
 सदा स्वयं को ही न्योछावर करती रही
 और हम बेख़बर रहे ।

 विशाल हृदया माँ ने
 कभी भी अपनी पीड़ा
 किसी से न बाँची
 निश-दिन पर-पीड़ा ही  हरती रही ।

 कर्म की नाव को
 श्रम की कीलों से जड़ कर
 धर्म की धारा में
 वो सदा ही तैरती रही ।
 स्व श्रम-सीकर
 कभी भी न पोंछ सकी
 नौनिहालों के श्रम-सीकर
 पोंछ कर  ही तृप्त होती रही ।

 अपनी ढुलकी आँखों में
 सुख सपने सजाए
 प्रतिदिन उजाले और अँधेरे में
 प्रकाश ही प्रकाश देखती रही ।

 वह कभी रिश्तों के लिये नहीं
 अपितु वह तो
 रिश्तों  में ही जीती रही
 और मिठास घोलती रही ।

 माँ का स्वरूप
 उसकी हृत्-कंदराओं में
 बसा रहता
 वह तो बिना प्रयास
 जब-तब  सहज ही उमड़ पड़ता ।

 प्रथमत: दुग्ध - धारा में,
 कहीं छलकते - झलकते
 स्नेहाश्रुओं में,
 कभी लोरी  के संगीत में,
 कभी धूल पोंछते हाथों
 कहीं ईंट-रोड़ी ढोती
 छाले पड़े हाथों से
 नव-शिशु को सहलाने में ।

 माँ मात्र एक शब्द नहीं
 एक अहसास है जो उसके
 उद् गारों में फूटता है
 हम नारियाँ
 यह तभी समझ पायी हैं
 जब मात्र नारी न हो कर
 हम माँ भी कहलाई हैं ।

 समय की पर्तों में
 धीरे-धीरे माँ का नश्वर तो
 खो जाता है
 किन्तु माँ कभी नहीं ।
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