पथ के साथी

Wednesday, May 29, 2024

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 अनिमा दास 

 


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पीड़ा पर्व (सॉनेट-33)

एक त्रिज्या हुई है अंकित तुमसे मेरी परिधि पर्यंत

कई भौगोलिक रेखाओं में जैसे सीमित व अनिश्चित

किंतु नहीं है ज्या की ज्यामिति..दृश्य में शून्य दिगंत...

होता प्रतीत। अतः समीकरण हुआ अपथ में समाधिस्थ।

 

तुमसे न करती प्रश्न..न वितृष्ण मन करता प्रतिवेदन 

संपूर्ण व्यथा की एक लता..होती अंकुरित जीर्ण द्वार से 

रिक्त अंजुरी में लिए भग्न स्वप्न..दीर्घ निदाघ- सा जीवन 

कई विलुप्त नक्षत्र व ग्रहाणु परित्यक्त आकाशगंगा के। 

 

किंतु पारिजात- सी रहती..बन अप्सरा स्व स्वर्ग की 

पक्ष्म पर लिये नैराश्य की निशि.. वक्ष में लिए शोक-गीत 

कि तुम्हारी ज्यामिति में कभी रच जाएगी एक वृत्त भी 

मेरी यह शेष ईप्सा; अतः मेरी प्रथी की कथा गीतातीत।

 

आहा! सुनो..पीड़ा पर्व का सुंदर सुमधुर स्वरित-पद्मबंध 

अवांछित दिवस की अश्रु में कादम्बरी की कुहू मंद-मंद।

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पीड़ा पर्व (सॉनेट-35 )

 

तुम्हे है ज्ञात मेरे कौनसे अंग में भरी कितनी है उष्णता 

मेरी भूमि का कौनसा भाग है अस्पृर्श्य..कौनसा पुष्पसार 

यह भी है ज्ञात कि मेरे अलंकार में है तुम्हारा अहंकार 

मेरा अनुराग-तुम्हारा सामर्थ्य, मेरी पराजय है जय-गाथा।

 

तुम्हें कभी मैं लगती अप्सरा-सी अथवा कभी प्रेयसी-सी 

कभी हूँ तुम्हारी तृषा में अथवा कभी हूँ तुम्हारी मृगतृष्णा 

मेरी सरीसृप-सी रात्रि में जलती है तुम्हारी आदिम घृणा 

अंततः शय्या के कुंचन में नहीं होती मेरी कृश काया भी।

 

मेरे अस्तित्व से सदा होता है  दीप्त तुम्हारा वांछित स्वर्ग 

मैं रहती प्रश्नवाचक- सी एवं भ्रम में रहता है मेरा विश्वास 

किंतु सदा मरु में रहता है निरुत्तर.. दिगंत का अवभास 

मर्यादा व माधुर्य से भिन्न आयु को प्राप्त होता अवसर्ग। 

 

जीवित स्त्रीत्व के पीड़ा पर्व में तुमने कभी देखी है सृष्टि?

जलावर्त सा इस मन में प्रलय किंवा दृगों की तप्त वृष्टि?

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