बढ़ता चल
डॉ0 सुरंगमा यादव
अँधेरों
से हम
नहीं डरने वाले
अँधेरों
को करके
सूरज के हवाले
हम चलते रहेंगे
यूँ हीं मतवाले
पाँव में बेशक
पड़े अपने छाले
कंटकों से ही हमने
हैं काँटे निकाले
और क्या हम सुनाएँ
ढंग अपने निराले
चले जा रहे हम अकेले
खुद ही खुद को सँभाले
धरा भी अकेली
चाँद-सूरज अकेला
मगर उनका कोई
सानी नहीं है
कह रहा मन निरंतर
चलाचल
गँवाए बिना पल।
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