-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
ईर्ष्या का कुण्ड
लील गया सारी ही
सद्भावनाएँ ।
होम कर दी
हैं शुभकामनाएँ
प्यारी ॠचाएँ ।
दे दी आहुति
वाणी के संयम की
दो ही पल में,
पिला दिया ज्यों
दूध , मिलाकर के
हलाहल में;
घृणा का घृत
निर्मम चषक में
भर ही लाए ।
यज्ञ किया है
किस सुख के लिए ?
नहीं है पता,
मरता मन
शाप देकर और
करता ख़ता ;
उठेगा धूम -
गीली जो समिधाएँ
संग हवाएँ ।
अशुद्ध मन्त्र-
कुसमय का पाठ
भारी पड़ता,
दुख ही देगा
भूल -शूल चुभके
जब गड़ता;
मन -अश्व को
न रोकती बल्गाएँ
न वर्जनाएँ ।
आग लहकी
पुरोहित झुलसे
यजमान भी
नफ़रतों ने
भस्मीभूत किए हैं
सामगान भी
अहित सोच
जीवित रह पाती
न प्रार्थनाएँ ।