पथ के साथी

Sunday, August 22, 2021

1127

 

1-अफ़ग़ानिस्तान : कुछ कविताएँ / हरभगवान चावला

1.

एक अफ़ग़ान माँ ने

अपनी बच्ची को

कँटीले तारों के ऊपर से

एयरपोर्ट के भीतर उछाला

और चिल्लाकर कहा -

मेरा जो हो, सो हो

यह बच्ची शायद ज़िंदा रहे

 

बच्ची से अलग होने के बाद

वह माँ क्या कर रही होगी?

रो-रोकर मर गई होगी

या अपनी बच्ची जैसी बच्चियों को

बचाने के लिए लड़ रही होगी?

2.

माँ मुझे हर क़ीमत पर ज़िंदा देखना चाहती है

इसीलिए बुर्क़ा पहनने के लिए मिन्नतें करती है

मैं बुर्क़ा पहनती हूँ, तो मेरी पहचान जाएगी

बुर्क़ा नहीं पहनती हूँ तो मेरी जान जाएगी

मुझे लगता है कि रोज़-रोज़ मरने से बेहतर है

कि मैं लड़कर मरूँ और मरकर ज़िंदा रहूँ

3.

तालिबान के कंधों पर भारी-भरकम बंदूकें

धर्मांध पौरुष के रुआब की तरह लदी हैं

और अफ़ग़ानिस्तान के कंधों पर अभिशाप की तरह

4.

अफ़ग़ानिस्तान में न डॉक्टर होंगे

न वैज्ञानिक, न इंजीनियर, न वकील

न कलाकार, न दार्शनिक, न लेखक

सिर्फ़ एक अमूर्त मज़हब होगा

और उसकी हिफ़ाज़त में जुटे हत्यारे

किसी भी दौर में, कहीं भी मज़हब

जब मनुष्यों को नियंत्रित करता है

मनुष्यता ख़ून के आँसू रोती है

5.

धर्मांध तानाशाह

किताबें जलाते हैं सबसे पहले

जिसके पास किताब होती है

उसे फंदे से लटका देते हैं

भयावह हथियारों और

सेहतमंद शरीरों के बावजूद

वे किताबों से इतना क्यों डरते हैं

कि किताबों से बिहूना कर देना चाहते हैं

करोड़ों की आबादी का मुल्क

क्या सचमुच बेक़िताब हो जाएगा मुल्क?

कुछ लोग तो ज़रूर होंगे

जो किताबों को उनसे बचाकर रखेंगे

वे किताबों को छुपा देंगे ठीक वैसे ही

जैसे कोई बच्चा छुपाता है अपने कंचे

जैसे नौजवान छुपाते हैं अपनी मुहब्बत

या जैसे किसी पेड़ की दुरूह शाख पर

घोंसले में पंछी छुपा लेता है अपने बच्चे

6.

अफ़ग़ानिस्तान महज़ एक मुल्क नहीं है

कँटीली झाड़ियों से भरा एक भूखंड है

सारे फूल यहाँ कुचल दिए गए हैं

सारी हरी घास उखाड़ी जा चुकी है

यहाँ की धरती साँपों बिच्छुओं से पटी है

यहाँ पाँव धरने का अंजाम सिर्फ़ मौत है

दुनिया के बहुत से हिस्सों में तानाशाह

ऐसे ही भूखंडों के निर्माण में जुटे हैं

ऐसे तानाशाहों पर हम अगर मुग्ध रहे

दुनिया में हर जगह होंगे अफ़ग़ानिस्तान

7.

अफ़ग़ानिस्तान महज़ एक मुल्क नहीं है

यह इतिहास का रक्तरंजित अध्याय है

इस ख़ूनी अध्याय के पन्ने पलटते हुए

उंगलियाँ रक्त से सन कर झुरझुराती हैं

ऐसे अध्याय वहशियों की प्रेरणा होते हैं

मनुष्यता के पक्षधरों के लिए नसीहत

इस अध्याय को पढ़ते हुए जो लोग मज़े से

चटख़ारे लेते हुए उंगलियाँ चाट रहे हैं

उन पर पैनी नज़र रखी जानी चाहिए

ये वही लोग हैं जो मनुष्यता के इतिहास में

ऐसे अध्याय जोड़ने के लिए कसमसा रहे हैं

8.

अफ़ग़ानिस्तान महज़ एक मुल्क नहीं है

यह लाभ-हानि के गणित की बिसात भी है

अफ़ग़ानिस्तान में पसरी चीखों से निर्लिप्त

शासनाध्यक्ष जोड़ घटा गुणा भाग में लगे हैं

कि दरिंदों के समर्थन से क्या हासिल होगा

और कौन सा हासिल विरोध से खो जाएगा

वे विरोध भी करते हैं तो उनका नाम नहीं लेते

शासनाध्यक्षों ने यह गणित गिद्धों से सीखा है

या मुर्दाखोर गिद्धों ने इन शासनाध्यक्षों से?

9.

अफ़ग़ानिस्तान महज़ एक मुल्क नहीं है

यह ख़ूबसूरत दृश्यों की क़त्लगाह है

मज़हबी हुकूमत को शोर नापसंद है

उसे मरघटी सन्नाटा ही अच्छा लगता है

इस हुकूमत में चहकने पर रोक होगी

पेड़ों पर चिड़ियाँ नहीं चहकेंगी

स्कूल जाती बच्चियाँ नहीं चहकेंगी

बाज़ार में घूमते या काम पर आते जाते

मर्द और औरतें नहीं चहक सकेंगे

चहकने पर सज़ा-ए-मौत दी जाएगी

चहकने वालों पर नज़र रखी जाएगी

हालात ऐसे बना दिए जाएँगे कि चहक

सपनों में भी आए तो सिसकी की तरह

चहकते लोग दुनिया भर के तानाशाहों की

आँखों में कंकड़ियों की तरह कसकते हैं

10.

अफ़ग़ानिस्तान महज़ एक मुल्क नहीं है

यह नफ़रत का लावा उगलता ज्वालामुखी है

ऐसे ज्वालामुखी एक जगह तक महदूद नहीं

दुनिया के हर हिस्से में यह लावा धधक रहा है

यक़ीन न हो तो अपने आसपास ही देखिए

आपके कहकहों के शोर में भी गूँज उठती हैं

आग से जले, झुलसे लोगों की चीख़ें, कराहें

मनुष्यता के पक्षधरों को समझना ही होगा कि

विलाप दुनिया के किसी भी हिस्से में हो, कँपाता है

लावा किसी भी ज्वालामुखी से फूटे, जलाता है

-0-

2- पेड़ों के बोल / भीकम सिंह 

  

पेड़ों के -

भर उठे बोल

मेह-मेह टेरते ,

सूखी पत्तियाँ रोईं

कोंपलों की आँखें 

सिसकी

सुबकी   …

कोयल कूकी

चिड़िया हूकी 

फूलों ने 

पँखुड़ी झुकाई 

पर मेघों को 

दया ना आई     

 

चुप्पी साधे 

सिन्धु तक

पत्तों-पत्तों ने 

बात पहुँचाई 

सिन्धु चीखा

हुआ खारा-तीखा 

बुलाए सारे 

काले , सफेदकपासी

ठाकुर, पंडितपासी 

और फटकार लगाई

सब दो-

हिसाब पाई-पाई   

 

नन्हे-नन्हे 

मेघों के बच्चे काँपे 

कच्छे धोती 

बदली के 

अच्छे-अच्छे मर्द काँपे 

इन्द्र ने 

इरादे भाँपे 

अपनी

कमजोरी को ढाँपे

सुलह की

अर्जी लगाई

सिन्धु ने

सभा बुलाई 

 

नभ में फैले 

जो रीते-रीते

लगने लगे 

खाते -पीते

हुआ गर्जन-वर्जन 

फिर अँधियारा 

व्याकुल दिखी

विद्युत धारा 

धड़ाम से गिरा 

पारा-वारा 

पेड़ों की साँस ,

तब -

साँस में आई ।

-0-

 

 

Sunday, August 15, 2021

1126

 

1-    क्षणिकाएँ

डॉ. सुरंगमा यादव
1
बिखरा -बिखरा था मन
तेरे वादों ने आकर
समेट लिया।
2
जीवन में हो न हो
मन में सभी के
पलता है प्रेम।
3
चित्रकार नहीं हूँ
तुमसे मिली तो
सीख गयी रंग- संयोजन।
4
सीली दीवारें
पैच लगाया पर
उभरी सीलन।
5
पीड़ा गहरी
कभी न कभी आकर
मुख पर ठहरी।
6
जब टूटे सहारे
आँखों की ज़द में
थे किनारे।
7
हुआ विह्वल
फिर सीख गया मन
परिस्थितियों को जीना।
8
कैसा ये प्यार
रेतीले तट पर
नाव खेना दुश्वार!

-0-

2-आज़ादी का मोल / कृष्णा वर्मा

 

सारी सलेटें मिटाईं थीं

सारी कड़ियाँ तोड़के

ख़ून से लकीर लगाई थी

तब कहीं पाई थी

यूँही नहीं मिली थी आज़ादी

उजडीं थीं अनगिन माओं की कोख

छिन गई थी राखियों से कलाइयाँ

बेरंग हुए थे असंख्य माँगों के सिंदूर

टूट गई थीं पिताओं के बुढ़ापे की लाठियाँ

मिट गए थे सरमाए

जवान बच्चियों को ज़हर के निवाले दे

किया था कुँओं तालाबों के सुपुर्द

चीरकर अपने कलेजे पाई थी

यूँही नहीं मिली थी आज़ादी 

छाती पर गोलियाँ 

गर्दनों पर छुरियाँ और पीठ पर पड़े

कोड़ों के निशान

साक्षी है आज़ादी की क़ीमत के

बलिदानों की ईंटों से

भरी थी आज़ादी की नीव

मृत्यु का वरण किया था तब पाई थी

यूँही नहीं मिली थी आज़ादी 

आज़ादी की अंधी दौड़ में

छूट गए अपनों से अपनों के हाथ

लापता हो गए रिश्ते-नाते मित्र संबंधी

टुकडों-टुकड़ों में बँट गए

धर्म- जाति, भाषा -बोलियाँ

कोसों दूर छूट गईं थीं यारियाँ

तड़पड़ाके रह गया प्यार- मोहब्ब्त

आज भी टँगी हैं पलकों पर यादें

अपनों के सपनों में रंग भरने को

हँस-हँसके सूलियों पर लटके थे

आज़ादी के दीवाने

असाध्य को साधा था तब पाई थी

यूँही नहीं मिली थी आज़ादी

सूख नहीं पाया कभी 75 साला सैलाब

मरते दम तक भीगा रहा माँओ का आँचल

उठती रही कलेजे में हूक

सब्र के आँसुओं से धोती रहीं

दिल के ज़ख़्म

लहू से सींचा था धरा का आँचल

तब जन्मा था तिरंगा

बड़ा भारी मोल चुकाया तब पाई थी

यूँही नहीं मिली थी आज़ादी 

दुविधाओं से जूझ-जूझ के देश संवारा है

वीरों के ख़ून से निखारा है

तिरंगा महज कपड़े का टुकड़ा नहीं

इसमें गुँथे हैं बलिदानों के किस्से

शौर्य की गाथाएँ

पहचान है यह मान है हमारा   

विश्व में रहे अग्रिम बुलंद हो सितारा 

तिमिर का वक्ष चीर पाई है आज़ादी

आज़ाद रहे आबाद रहे हिन्दुस्तान हमारा।

1125-आज़ादी के मायने

 रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'

 

आज 15 अगस्त है


आँख खुलते ही

आज़ादी  के मायने

याद आए

जो ज़्यादातर के लिए

यही हैं

बिल्कुल सही हैं

कार्य-स्थल पर

कुछ नारे लगवाने हैं

देश-भक्ति के गीत गाने हैं

अमर शहीदों को

श्रद्धांजलि-सुमन

अर्पित कराने हैं

बच्चों के हाथों में

तिरंगे थमाने हैं

बूँदी के दौने

बँटवाने हैं

कुछ घर के लिए

बचाने हैं

आखिर उन्हें भी तो

ये उत्सव मनाने हैं

रैली निकाली जानी है

एक सभा

आयोजित करानी है

अपना पक्ष

गम्भीरता से रखना है

भाषण में करना है

परतन्त्रता का विरोध

स्वतंत्रता में बड़ा अवरोध

जो सदा से है

फिर साहब को

घर वापस जाना है

स्व-सुविधा हेतु

कुसुमा पर

दिन भर हुकुम चलाना है

शोषण मुक्ति की बात

साहब

मजदूर दिवस पर अगली बार करेंगे

फिर भाषण दे दासी का उद्धार करेंगे।

Saturday, August 14, 2021

1152-क्षणिकाएँ

 

दिनेश चन्द्र पाण्डेय

 

क्षणिकाएँ

1.

फ्रंट से आया

बेटे का सामान

माँ नें हाथ फिरा

ऐसे दुलारा जैसे बेटा

खुद लौट आया हो.

2.

झुलसाती दोपहर

बनते भवन की छाया में

पल भर को

तसला परे रख

उसने सोचा...

कितना अच्छा होता

यदि संतुलित होते मौसम

गर्मियों में अधिक गर्मी

सर्दियों में न अधिक सर्दी

बारिश भी नाप तोल कर आती.

3.

बह रही जीवन- नदी से

भरी थी मैंने भी

 दो लोटे पानी से

अपनी गागर

रीती जा रही गागर

बहती जा रही नदी.

4.

खिलने के पहले ही

तोड़ लिये गुच्छों में

सुर्ख फूल

धूप में सुखाया

फिर आग पर  

तब कहीं जाकर

 लौंग कली की

 फैली सुगंध

5.

वर्षा ख़त्म करने का

बादल भगाने का

सीधा सरल उपाय

वृक्ष काट दो

6.

पहाड़ पर घूमता बाघ

उसके हर दौरे के बाद

चरवाहे की भेड़

गिनती में कम हो जाती

बढ़ता जाता बाघ के

मुँह पर लगा खून

7.

रात को गिरती बर्फ़

सो रहा सर्द पहाड़

एक घर से चीख उठी

कुछ बल्ब जले

स्त्री- पुरुषों की भाग दौड़

सुगबुगाहट शुरू

फिर........

नवजात चीख़ से जागा पहाड़

8.

शाम को थका हुआ

मैं घर आया.

वो गोद में आकर

जीभ से मेरी

थकान उतारता गया.

9.

पहाड़ की नारी

गोरु-बाछ, चारा लकड़ी

कनस्तरों पानी, खाना

 फिर भी....

अधूरा पड़ा है काम

अस्ताचल की ओर

भागते रवि को तरेरती

आँखों आँखों में डाँटती

10.

शाम के साथ

श्रमिक कंधे पर

कुठार सँभालते

घर को चले

पेड़ों ने भी खैर मनाई

सुबह होने तक

-0-