रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
टूट गए सब बन्धन,
पर विश्वास नहीं टूटा।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
ठेस लगी बिंधे मर्म को,आँसू बह आए ।
कम्पित अधर व्यथा चाहकर भी न कह पाए ।
साथ निभाने वाले पलभर संग न रह पाए ।
कष्ट झेलने का मेरा
अभ्यास नहीं छूटा ।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
पथ की बाधा बनकर बिखरे थे, जो-जो भी शूल ।
आशा की मुस्कान से खिले, पोर-पोर में फूल ।
खिसकी धरा पगतल से,
आकाश नहीं छूटा।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
थीं रुकी उँगलियाँ कुपित समाज की मुझ पर आकर
अपने मन का संचित कूड़ा, फेंक दिया लाकर ।
मुड़ी प्रहार की प्रबल नोंकें, मुझसे टकराकर ॥
रोदन ने मथ दिए प्राण,
पर हास नहीं छूटा ।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
कभी पतझर कभी आँधी बन, सूने जीवन में ।
चुभ-चुभकर उतरी बाधाएँ, विमर्दित मन में ।
मिटे अनेक प्रतिबिम्ब बन नयनों के दर्पन में।
टूटी आस की डोर,
किन्तु प्रयास नहीं टूटा।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
(8-4-1974: वीर अर्जुन
दैनिक, दिल्ली, 9 फ़रवरी 1975)