पथ के साथी

Friday, December 16, 2022

1265-सॉनेट

 1-रंग नव घोलो 

प्रॉ.विनीत मोहन औदिच्य

  


प्रेम की पावन डगर में
, साथ तुम रहना

हो अगर मुझसे अपेक्षा,सच सदा कहना

रात को जो दिन कहो तो, मान मैं लूँगा

प्रीति का उपहार सुंदर, मैं तुझे दूँगा ।

 

कोटि दुख- सुख इस धरा के,हृद सहे जाता

कामना का भावना से, बस रहा नाता

दो भले ही शाप मुझको, मुख नहीं मोड़ूँ

हो भले हालात मुश्किल, साथ ना छोड़ूँ ।

 

कर्म जो करता अमानुष, दंड वह पाता

घूमता फिरता जगत् में, ठोकरें खाता

प्रीति की जिसके हृदय में,भावना मरती

शोक में डूबी हुई वो, नित रुदन करती।

 

 

उर दया करुणा रखो तुम, सत्य ही बोलो

कर सुधा अविरल प्रवाहित, रंग नव घोलो।।

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प्रॉ.विनीत मोहन औदिच्य,ग़ज़लकार एवं सॉनेटियर,सागर, मध्यप्रदेश

Mail id - <nand.nitya250@gmail.com

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2-अनिमा दास

1-उक्त -अनुक्त 

 


ऊहूँ...न..नहीं व्यक्त करूँगी मेरी परिधि
 

ऊहूँ... न.. नहीं आऊँगी संग तुम्हारे,देने

तुच्छ कामनाओं को...पूर्णता व प्रविधि

अर्थहीन संभावनाओं का अपराध लेने।

 

तुम हो एकांत द्वीप के अहंमन्य सम्राट 

हाँ..तुम्हारी कल्पना से जो गंध आती है

उससे मैं होती हूँ रुद्ध..रुद्ध होता कपाट

अनुक्त शब्दों में...व्यथा भी भर जाती है।

 

मैं नहीं होती तुम्हारे प्रश्न वाण से क्षताक्त

अट्टहास तुम्हारा जब गूँजता है नभ पर 

हृदय उतनी ही घृणा से होता है विषाक्त

ध्वस्त करती हूँ इस ग्रह का मिथ्या गह्वर।

 

 

आः!!! अब सर्वांग मेरा हो रहा अग्निमय 

उः!!! शेष हो कराल नृत्य..अंतिम प्रलय।

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2-हंसदेह 

 

 

इस परिधि से पृथक् प्राक् पृथ्वी है नहीं

इस मयमंत समय का क्या अंत है कहीं?

नहीं.. नहीं अब नवजीवन नहीं स्वीकार

अति असह्य..अरण्यवास का अभिहार।

 

भविष्य के भीति भस्म में बद्ध वर्तमान 

प्रत्यय एवं प्रणय में पराभूत...प्रतिमान

क्षणिक में क्यों नहीं क्षय होती क्षणदा?

जैसे प्रेम में प्रतिहत प्रत्यूष की प्रमदा!

 

नहीं स्वीकार नव्य नैराश्य से निविड़ता

अद्य अति असह्य है अतिशय अधीनता

उन्मुक्त-अध्वर-उन्मुक्त-अदिति उन्मुक्त 

हो,शीघ्र यह शरीर सरित हो पुनः शुक्त।

 

हे,शब्द संवाहक! कहाँ है वह चित्रावली 

हंसदेह को अविस्मृत करती पत्रावली ?

 

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3-नदी -सी तू

 

 

देखो दृश्य दिगंत का.. दीप्त हो रहा

शंख संवित्ति का सुमधुर सुर में बहा

कथाश्रु की दो धाराएँ...तट-द्वय पर

बह गईं विरह के साथ देह उभय पर।

 

नदी..नदिका,नदीकांत में हुईं निमग्ना 

निर्झर निरुत्तर.. नील हुआ है कितना

वन- वन नृत्य करता मुग्ध मुदित मयूर

प्राची पवन से प्रीति पुष्पपराग अदूर।

 

तीर..तरंगिणी.. शून्या तरणी ..क्षोणी

विमुख व्यथा से री!विदग्धा विरहिणी

आहा! स्वप्न समुद्र में संगमित सलिल 

उरा के उर से उद्वेलित आपगा उर्मिल ।

 

 

मोह लिया..मोक्ष दिया, किया मानित

महाकाव्य की मनस्विनी हुई मोहित।

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अनिमा दास ,सॉनटियर,कटक, ओड़िशा 

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