मुक्तक
1-डॉ.कविता भट्ट
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर
उगलते हो ।
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग
पर्वत-सा
तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल
मार्च पर निकलते हो
2
सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा
दो।
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा
दो ॥
मनुज बनकर दानवों की ओ वकालत करने वालों !
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥
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2-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
यह डोर कौन-सी बाँध रही,अनजाने
नयन तरल होते॥
कुछ रचा विधाता ने ऐसा,दो
तन को मन भी एक मिला।
तेरे आँगन आँधी उठती, मेरे
द्वारे बादल होते॥
2
हम आँसू खारे पी लेंगे।
सब ताप तुम्हारे पी लेंगे
अधरों के पीर भरे दरिया
सारे के सारे पी लेंगे॥
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