पथ के साथी

Tuesday, February 18, 2020

958-ज्योत्स्ना प्रदीप की छन्दोबद्ध रचनाएँ



1-शीत ऋतु ( कुंडलिया)
1
सीली- सीली रात की, काँप गई है देह
आज चाँद का साथ ना, सूना-सूना गेह ।।
सूना-सूना  गेह, सुधाकर कौन छुपा
तारों की सौगात , नभ में कौन है ला ।।
अपनों का ना साथ, रात की आँखें गीली।
तन की बात है क्या, निशा तो मन से 'सीली'।।
2
हिमकर हिम की मार से, छुपा रहा है गात ।
रैन धुंध से जूझती, कैसे ये हालात ।।
कैसे ये  हालात ,दुखी है रात सलोनी ।
मुख पर है ना तेज,बनी है  सूरत  रोनी ।।
बिन चंदा के आज, रात  रोई  है छुपकर ।
"बिन तेरे ना चैन, अभी भी आजा 'हिमकर'।।"
-0-
2-दोधक  छंद (यह 11 वर्ण का छन्द है।[तीन भगण (211+211+211और दो गुरु 2+2होते हैं)
1
प्रीत हुई मन फागुन छाया ।
भीतर रंग नया खिल आया ।।
माधव माघ रसा छलका
फागुन प्रीत भरे  सुर गा ।।
2
काज-सभी तजके तुम आए।
प्रेम  भरे  मे सब  गाए।।
लाज भरी अँखियाँ घन भारी।
आज हँसे सखियाँ ,पिय सारी।।
3
होठ हँसे  पर नैन उनीदें ।
लो पढ़ते फिर  प्रेम- क़सीदे
बोल रहे  इक साल हुआ रे।
चार दिनों यह हाल हुआ रे।।
4
माँ  ,बहना करती सब बातें ।
मीत सखी सब खूब सताते।।
क्यों बन माधव  रोज़ रिझाते।
साजन क्यों तुम पीहर आते ?
-0-
3-विद्युल्लेखा /शेषराज छंद(शिल्प:- [मगण मगण(222 222),दो-दो चरण तुकांत,  6 वर्ण )
1
देखो भोली  रैना
खोले प्यारे नैना।।
आए चंदा तारे।
चाँदी के ले धारे।।
2
राका की ये काया ।
जैसे काली छाया ।।
चाँदी जैसी लागे ।
यामा रातों जागे ।।
3
मेघों  की है टोली ।
राका धीरे बोली ।।
तारों का है  चूड़ा ।
खोलूँ प्यारा जूड़ा।।
4
मेघों के मंजीरे।
बाजे धीरे -धीरे ।।
सारी  रैना गाते।
कैसे प्यारे नाते!!
-0-

Sunday, February 16, 2020

957


दोहे
ज्योत्स्ना प्रदीप
1
हिमनद के तन सूखते, विलय हुई है देह।
टूट रहे हैं रात-दिन, नदियों के भी नेह ।।
2
तलहटियाँ अब बाँझ-सी, पैदा नहीं प्रपात।
दंश गर्भ में दे गया, कोई रातों रात।।
3
लुटी, पिटी नदियाँ कई, सिसक रहे हैं ताल।
सागर  में मोती नहीं,ओझल हुए मराल।।
4
बादल से निकली अभी, बूँद बड़ी नवजात।
जिस मौसम में साँस ली, अंतिम वो बरसात।
5
नभ ने सोचा एक दिन, भू पर होता काश ।
नदियाँ बँटती देखकर, सहम गया आकाश ।
6
मनमौजी लहरें हुईं ,भागी  कितनी दूर।
सागर आया रोष में ,मगर बड़ा मजबूर ।।
7
देह हिना  की है  हरी, मगर हिया है लाल।
सपन सजाये ग़ैर के,अपना माँगे काल।।
8
पेड़  हितैषी हैं बड़े, करते तुझको प्यार ।
चला रहा है रात- दिन, इन पर तू औज़ार ।।
9
जुगनूँ, तितली  ,भौंर भी सुख देते भरपूर ।
जाने  किस सुनसान में, कुदरत के  वो नूर।।
10
झरनें  गाते थे कभी, हरियाली के गीत ।
मानव ने गूँगा किया,तोड़ी उसकी  प्रीत ।।
11
जबसे मात चली गई, मन- देहरी बरसात ।
दो आँखें पल में बनीं, जैसे भरी परात
12
क़ुदरत  खुद रौशन हुई, बनकर माँ का रूप।
जीवन जब भी  पौष -सा, माँ ही कोमल धूप ।।
-0-


Friday, February 14, 2020

956-यादों-सा बिखरके


पूनम सैनी

यादों-सा बिखरके मुझसे
वो कही लम्हों-सा सँवर रहे है
और खुद को सँभालते,देखो
हम तिल-तिल बिखर रहे है। 

खाली किताब पर आखर 
बस दो ही लिखे हमने
कोई कहे उनसे,हम तो
धीमे से निखर रहे है

म की महफ़िल में मेरी
नाव डूब ही तो जाती
पर हौसलों के मेरे सदा
ऊँचे ही शिखर रहे हैं।
-0-

Monday, February 10, 2020

955


1-अँधेरे में-शशि पाधा
***
अँधेरे में टटोलती हूँ
बाट जोहती आँखें
मुट्ठी में दबाए
शगुन
सिर पर धरे हाथ का
कोमल अहसास
सुबह के भजन
संध्या की
आरतियाँ
रेडियो पर लोकगीतों की
मीठी धुन
मिट्टी की ठंडी
सुराही
दरी और चादर का
बिछौना
इमली, अम्बियाँ
चूर्ण की गोलियाँ
खो-खो , कीकली
रिब्बन परांदे
गुड़ियाँ –पटोले --
फिर से टटोलती हूँ
निर्मल, स्फटिक सा
अपनापन
कुछ हाथ नहीं आता
वक्त निगल गया
या
उनके साथ सब चला गया
जो खो गए किसी
गहन अँधेरे में ।
-0-18 जनवरी , 2020
-0-
2-बस तुम  पुकार लेना /सत्या शर्मा ' कीर्ति '

हाँ , ऊँगी लौटकर
बस तुम  पुकार लेना मुझको
जब बरस रही हो यादे
कुहासे संग किसी  अँधेरी
सर्द रात में
और वह ठंडा एहसास जब
कँपकँपाए तुम्हारे वजूद को
पुकार लेना मुझको

जब संघर्षों की धूप
झुलसाने लगे तुम्हारे आत्मविश्वास को
उग आएँ फफोले
तुम्हारे थकते पाँवों में
जब मन की पीड़ा हो
अनकही
हाँ , पुकार लेना मुझको

जब उम्र की चादर होने लगे छोटी
जब आँखों के सपने
कहीं हो जाएँ गुम
जब हाथो की पकड़
होने लगे ढीली
जब सम्बन्धों की डोर
चटकने से लगें
हाँ पुकार लेना मुझको
मैं आऊँगी लौटकर
हाँ, बस एक बार पुकार लेना मुझको।।

Sunday, February 9, 2020

954-आओ लें संकल्प


कृष्णा वर्मा

होश सँला नहीं कि कराने लगते हो
र्त्तव्यों का बोध 
सिखाने लगते हो हदें 
पनपती सोच में उठान से पहले ही
ठूँस देते हो व्यर्थ के भेद
उठने बैठने चलने फिरने हँसने मुसकाने पर भी
जड़ देते हो सदियों पुराना ज़ंग लगा ताला
घर की आबरू थमा कर कैसे
ताक पर रख देते हो उसकी सब चाहतें
कितनी बेदर्दी से कुतर देते हो उसके स्वप्न
घर भर की इज़्ज़त का कच्चा घड़ा
क्यों रख देते हो उसके निर्बल  काँधों पर
कभी सोचा है, तुम्हारी इज़्ज़त पर आँच न आने देने की
ज़िम्मेदारी तले दब के रह जाती हैं उसकी ख़ुशियाँ
उसके विकास का क़द
क्यों मान लेते हो गुनाह उसका लड़की होना
क्यों लाद देते हो असंतुलित दायित्वों का बोझ
जा ज़रा भाई के लिए चाय बना दे
पापा को खाना परोस दे
कभी माँ का हाथ भी बँटा लिया कर चौके में
जब देखो किताबों में मुँह दिए रहती है
अरे, सीख ले कुछ काम-काज अगले घर जाना है
नाक न कटवा दियो हमारी
अपनी नाक की चिंता के अलावा कभी बेटी की
खुशी की चिंता क्यों नहीं सताती
क्यों उसके ही बलिदान की प्यासी रहती है इनकी नाक
क्यों दिन-रात नसीहतों की मूसल से 
कूटते हो उसके कोमल मन का ओखल
हम जन्में तो घर भर को घेर लेता है मातम
और वह जनमे तो पीटते हो थाली
वह तुम्हारा अभिमान और हम अपमान
वह आँख का तारा हम कंकरी
वह आँखों पर पलकें हम बोझ की गठरी
उसकी जवानी को छूट हमारी पर पहरे
हमारे लिए नकेल और ज़ंजीरें
और उसको एक लगाम तक नहीं
हमारे हाथों में इज़्ज़त का भारी पुलिन्दा
और उसके हाथ पर ज़ायदाद के काग़ज़
तुम्हारी अपनी ही खींची भेद की लकीरों का हैं यह अक्स
जो शर्मिंदगी बनकर आज खिंच रहा हैं तुम्हारे माथे पर
समय रहते कसते जो उसकी लगाम
तो आज इन हाथों को मलना न पड़ता पछतावे से
खुशी से थाली पीटते आपके यह हाथ आज
पीट न रहे होते अपना सिर
संस्कारों के सही विभाजक होते तो
लुटती न खुले आम तुम्हारे घरों की इज़्ज़त
यह कैसी बेरुख़ी है
क्यों नहीं  बाँट पाते समादर संतान को
अपनी ही परछाई से पक्षपात क्यों
कैसे संभव होगी स्वस्थ संसार की कामना
चलो न माँ हम दोनों मिलकर लें
ऐसा दृ संकल्प
जो कर दे आधी आबादी को भयमुक्त
और पलट कर रख दें संसार का दृष्टिकोण।
-0-

Wednesday, February 5, 2020

953-सैनिक की पाती


रचना श्रीवास्तव 

मेरे लहू की गर्मी से जब बर्फ पिघलने लगे
पानी जब लाल रंग में बहने लगे 
तब समझ लेना तेरा एक और बेटा शहीद हो गया 
तेरी रक्षा की खातिर एक और हमीद खो गया 

लौटना चाहता हूँ घर मैं भी माँ पर देश को मेरी जरूरत है 
सिखाया था तूने ही इस माँ से पहले वह माँ है 
मारते हैं सैनिक ही चाहे इस पार  हो या उस पार 
फिर है ये कौन जो बीज नरत के बो गया 

तिरंगे में लिप लौटूँ, तो गले मुझको लगा लेना 
आँसू एँ आँखों में तो आँचल में उनको समा लेना 
मान से उठे पिता के मस्तक पर तिलक लगा देना 
हर जाता सैनिक रख बंदूक पर सर सो गया। 

सावन की हरियाली जब घर तेरा महकाए 
राखी पर जब बहन कोई घर लौटकर आए 
यादों के झुरमुट से तब चेहरा मेरा झाँकेगा 
समय की धार ने था जिसको अभी धो दिया ।


Saturday, February 1, 2020

952-उसको दूँ मैं फूल

उसको  दूँ मैं फूल

गिरीश पंकज

जो भी मुझको शूल चुभोए,
उसको दूँ मैं फूल ।
बना रहे यह ऊपरवाले,
हरदम मेरा उसूल।

स्वाभिमान की सूखी रोटी,
है मुझको मुझको स्वीकार।
नकली वैभव अर्जित करने,
खोजूँ ना  दरबार ।
जीवन भर गुमनाम रहूँ पर,
बिके नहीं तो किरदार ।
दो पल जीऊँ खुद का सर्जित,
हो ऐसा हर बार।
राजमहल की चौखट पर थू!
तन पर लेपूँ  धूल ।
बना रहे यह ऊपरवाले,
हरदम मेरा उसूल।।

माना कि पग-पग पर यारो,
है साजिश का दौर।
बिना फरेबी धंधे के अब,
मिले कहीं ना ठौर।
प्रतिभा कम, पर घात अधिक है ,
हाँ, अब तो चहुँ ओर ।
जो है जितना नकली उतना,
बन जाता सिरमौर ।
लेकिन मेरी राह अलग हो,
हिले न मन की चूल।
जो भी मुझको शूल चुभोए,
उसको दूँ मैं फूल।

मेरा मन हो निर्मल जैसे,
बच्चे की मुस्कान ।
एक रहे मेरी नज़रों में,
अल्ला औ भगवान।
सच बोलूँ तो खाऊँ गाली,
पर न डिगे ईमान।
जीवन भर करते जाऊँ मैं,
पीड़ित-जन-कल्यान।
मुझे लगानी है अमराई,
बोएँ सभी बबूल।
बना रहे यह ऊपरवाले,
हरदम मेरा उसूल।
जो भी मुझको शूल चुभोए,
उसको दूँ मैं फूल।।

उनके जैसा नहीं बनूँ मैं,
करूँ मैं इस पर गौर।
बाँटूँ सबको खुशियाँ सारी,
दे दूँ अपने कौर।
नेक राह पर चलता जाऊँ,
हिले न मन की चूल।।
-0-
सम्पर्क : सेक्टर- 3, एचआईजी -2/2,
दीनदयाल उपाध्याय नगर,
रायपुर 492010