इस धरा - गगन के प्राण वायु
हो रहे क्षण- क्षण कलुषित माँ
भर दो इसे स्नेह अमृत से
मुझमें ही बन ममता रूप
लौट आओ न शिवानी माँ ।।
चारों ओर बिखरे महिषासुर
तार - तार करने अस्मत को
शुम्भ - निशुम्भ बढ़ते प्रतिपल
मुझमें ही बन काल रूप
लौट आओ न काली माँ ।।
अशिक्षा और अज्ञान का
है फैला यूँ साम्राज्य यहाँ
मिटा सकूँ जग की अविद्या
मुझमें ही बन विधा रूप
लौट आओ न शारदा माँ ।।
लोभ - लालच का दैत्य बड़ा
करता घोर अनाचार यहाँ
दरिद्रता अग्नि से धरा बचाने
मुझमें ही बन श्री लक्ष्मी रूप
लौट आओ न लक्ष्मी माँ ।।
पापियों का जुल्म बहुत
फैला है तेरे इस जगत में
दुष्टों के छल - बल को हरने
बन चंडी रूप मुझमें ही
आ लौट आओ न दुर्गा माँ ।।
बच्चों का उद्धार करने
सृष्टि का विस्तार करने
भक्ति का संचार करने
अब लौट आओ न मेरी माँ
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