जयन्ती(31जुलाई)पर विशेष---
1-सामाजिक विषमताओं से लड़ते कथाकार: प्रेमचंद
डॉ. शिवजी श्रीवास्तव
31 जुलाई
1880 को बनारस के लमही ग्राम में एक कायस्थ परिवार में जन्मे
प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपतराय था,प्रारम्भ में वे उर्दू
में नवाबराय के नाम से लेखन करते थे । सन् 1907 में उर्दू में उनका एक कहानी संग्रह 'सोज़ेवतन' नाम से प्रकाशित हुआ,देशभक्ति
से परिपूर्ण कहानियों के इस संग्रह को अंग्रेज सरकार ने देशद्रोह की कहानियाँ माना
तथा संग्रह को ज़ब्त कर लिया और भविष्य में उन्हें लेखन न करने की चेतावनी दी , तब नवाबराय ने अपना नाम बदलकर प्रेमचंद कर लिया तथा हिंदी में कहानी लिखना
प्रारम्भ कर दिया।
प्रेमचंद एक ऐसे कथाकार हैं जो आजीवन अपने साहित्य को हथियार बनाकर सामाजिक
कुरीतियों एवम बुराइयों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। वे ग्रामीण जीवन से लेकर शहरी जीवन तक की बुराइयों के विरुद्ध लिखकर उन पर प्रहार करते रहे। अपने उद्देश्य के लिये वे अलग-अलग विचारधाराओं से प्रभाव ग्रहण करते रहे। उनके लेखन पर क्रमशःआर्यसमाज, महात्मा गांधी एवं मार्क्सवाद का प्रभाव देखा जा सकता है।उनकी प्रारम्भिक कहानियाँ आर्यसमाज के सुधारवादी आंदोलन से प्रभावित हैं,इसी कारण उनकी उन कहानियों में समाज सुधार,विधवा विवाह,बाल-विवाह का विरोध, पाखंड का विरोध,धार्मिक कर्मकांड का विरोध, अछूतोद्धार,स्त्री-शिक्षा आदि को देखा जा सकता है। आजादी के आंदोलन में वे महात्मा गांधी से प्रभावित थे,उनके प्रभाव से ही उन्होंने सरकारी नौकरी भी छोड़ दी थी। गांधी जी के सुधारवादी और हृदय परिवर्तन के विचार से वे बहुत प्रभावित थे।इसका प्रभाव उनके लेखन पर भी पड़ा,वे यह मानते थे कि व्यक्ति मूलतः बुरा नहीं होता परिस्थितियों के चक्र में पड़कर वह बुरा बन जाता है,यदि उसे अवसर मिले तो उसका हृदय-परिवर्तन हो सकता है तथा वह पुनः सही मार्ग पर चल सकता है। प्रेमचंद की अधिकतर कहानियों में यही स्वर है । 'बड़े घर की बेटी',पंच परमेश्वर,नमक का दरोगा,दो बैलों की कथा,मंत्र इत्यादि में जो पात्र बुरे होते हैं अंत मे उनका हृदय परिवर्तन होता है और वे सुधर जाते हैं।ये हृदय परिवर्तन की कहानियाँ हैं।इन सभी कहानियों में घटना या समस्या तो वास्तविक /यथार्थ होती थी पर उसका हल आदर्शवादी ढंग से किया जाता था।साहित्य में इस प्रकार यथार्थ की समस्याओं के आदर्शवादी समाधान के विचार -दर्शन के कारण ही प्रेमचंद को 'आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी' कथाकार कहा गया।प्रेमचंद के अधिकांश साहित्य में इस आदर्श को देखा जा सकता है किंतु अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में प्रेमचंद मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित हो गये और प्रगतिशील लेखन से जुड़ गए।वे मानने लगे कि व्यक्ति भ्रष्ट नही होता,व्यवस्था भ्रष्ट होती है और व्यवस्था ही व्यक्ति को भ्रष्ट करती है या बुरा बनाती है,अतः जब तक व्यवस्था नहीं बदलेगी व्यक्ति में बदलाव नहीं आ पाएगा।उनकी कफ़न,पूस की रात,शतरंज के खिलाड़ी जैसी कहानियाँ इसी विचार से प्रभावित हैं,इनमें उन्होंने समस्या का कोई भी आदर्शवादी समाधान नहीं किया; अपितु कहानियों में व्यवस्था के दोष दिखाकर कहानी को क्लाइमेक्स पर छोड़ दिया।उनका उपन्यास गोदान भी इसी विचार दर्शन से प्रभावित है।
प्रेमचंद का कथा साहित्य
अत्यंत समृद्ध है,उन्होंने एक दर्जन उपन्यास एवं तीन सौ से अधिक
कहानियाँ लिखीं। उनकी लिखी समस्त कहानियाँ-'मानसरोवर'नाम से आठ खण्डों में संकलित हैं।उनके साहित्य पर अनेक दृष्टियों से शोध
जारी हैं,वे एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होने हिंदी कहानी को
निर्णायक मोड़ दिया,उन्होंने हिंदी कहानी को भूत-प्रेत,तिलस्मी-ऐयारी की काल्पनिक दुनिया से निकालकर यथार्थ की जमीन पर खड़ा किया।
प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर जी ने प्रेमचंद के विषय मे सत्य ही कहा था -"प्रेमचंद से पूर्व हिंदी कहानी अपनी शैशव अवस्था मे थी और घुटनों के बल
रेंग कर चलती थी, प्रेमचंद ने उसे हाथ पकड़ कर चलना
सिखाया।"
निःसन्देह आज हिंदी कहानी
जिस ऊँचाई पर खड़ी है उसकी जमीन प्रेमचंद जैसे महान कथाकारों ने ही तैयार की थी।
हिंदी के महान कथाशिल्पी को
शत शत नमन।
-0-
2- एक काल्पनिक बातचीत-प्रेमचन्द
से
साधना मदान
आज हवा में ताज़गी है. कमरे की खिड़कियों से मिट्टी की सौंधी महक और फिर थोड़ी ही देर में सूर्य की
किरणें जैसे किसी हस्ती के आने की रोशनी फैला रही है. मैं भी तैयारी के साथ अपनी कुर्सी और मेज को ठीक करते फूलदान रख ही रही हूँ कि सामने रखी प्रेमचंद की ढेरों पुस्तकें एक साथ हवा के झोंके से हिलने लगीं, मिलने लगीं, तो मैंने उन्हें बता दिया कि आज तुम्हारे सरताज, सम्राट और हिंदी साहित्य की पहचान कराने वाली शख्सियत यहाँ साक्षात्कार हेतु आमंत्रित है।
अब प्रेमचंद और मैं रूबरू हैं.
सर….आपका हमारे साहित्यिक मंच पर स्वागत है. हमेशा की तरह आपसे भी
मेरा पहला सवाल… . इस नई तकनीकी दुनिया में साहित्य की आवश्यकता पर आपके विचार… .
प्रेमचंद मुस्कुराने लगे और बड़े नपे- तुले शब्दों
में सटीक जवाब दिया कि साहित्य शाश्वत है और जो शाश्वत है वह सदा साथ है. साहित्य
यानी शब्द और अर्थ का सहित भाव जो वाणी और विचारों में जीवन
मूल्यों की पहचान देता है. तकनीकी में साहित्य सहायक है, जो
हमें गहराई और एकाग्रता देता है तभी मौलिकता से नया कुछ हो पाता है. तकनीक
मशीनीकरण हो सकती है, पर साहित्य चेतना और खुशहाली का स्वरूप
है।
सवाल… . अब पुस्तकों की जगह मोबाइल ने ले ली है… . ऐसा आप भी देखते
हैं तो कैसा लगता है?
प्रेमचंद ने अपनी धँसी हुई आँखों को और खोलते हुए
कहा कि अच्छी बात है मोबाइल पर कुछ पढ़ते भी हैं और कुछ देखते भी हैं.पर हालात
वहीं है कि हम क्या देखते, क्या पढ़ते और क्या लिखते हैं और
इसकी सही समझ आज भी साहित्य ही देता है. मेरा नज़रिया ही पहले किताबों के पन्ने
पलटता और पढ़ता था और मोबाइल का इस्तेमाल भी मेरी समझ, स्फूर्ति
और जागरूकता पर निर्भर है कि मैं किसे टच कर ऑन करता हूँ.
सवाल… एक हिंदी अध्यापिका या साहित्य प्रेमी साहित्य के प्रति समाज
में प्रेम कैसे जाग्रत कर सकता है?
अब प्रेमचंद साहब ठहाका लगा हँसने लगे बोले -जाग्रत
करना समझ नहीं आया, साहित्य तो एक मधुशाला है, जो स्वयं हमारे बोल, व्यवहार और आचरण से झलक जाता
है. अध्यापक जब खुली किताब बन विद्यार्थी के सामने जाता है, जब
वह स्वयं, कविता, कहानी, डायरी, रिपोर्ट, पत्र-निबंध
लेखन के लिए तत्पर रहता है, तो विद्यार्थी की लेखनी भी चलने लगती है.जब विद्यार्थी अपने अध्यापक के
मुख से अनगिनत कविताओं , कहानियों का श्रवण करता है तब वह
संवेदना और सक्षम अभिव्यक्ति को स्वयं ही आत्मसात् कर लेता
है. साहित्यप्रेमी अपनी भाषा- शैली और शब्द भंडार से दूसरों की शब्दावली में
वृद्धि करता है.
सवाल… आप हमारे लिए कोई विशेष संदेश देंगे तो स्मरणीय रहेगा…
प्रेमचंदजी के तन और मन में
जैसे रोशनी का इज़हार होने लगा… प्यार और आत्मीयता से संपन्न हो बोले जीवन में स्वयं
को जानना पर दूसरों के लिए जीना या यूँ कहें कथनी
करनी एक रहे. ईमान की ऊर्जा और नीयत की खुशबू स्वयं प्रस्फुटित हो ,दिखावा और दोगले
पन का तिमिर धूमिल हो जाए.बस इतना कहते ही प्रेमचंद के हाथ दुआ और आशीष देते हुए
कहीं सूर्य की किरणों में समाहित हो गए.
-0-