पथ के साथी
Friday, November 22, 2019
Thursday, November 14, 2019
937-मन से मन का नाता
मन से मन का नाता
डॉ. सुरंगमा यादव
मैं रख लूँगी मान तुम्हारा
तुम मेरा मन रख लेना
दर्द अकेले तुम मत सहना
मुझसे साझा कर लेना
मन की बात न मन में रखना
तुम चुपके से कह देना
मैं अपना सर्वस्व लुटा दूँ
नेह तनिक तुम कर लेना
देह कभी मैं बन जाऊँगी
तुम प्राणों-सा बस जाना
तुम से ही जीवन पाऊँ मैं
साँसों की लय बन आना
अनादि प्रेम की फिर अनुभूति
अन्तर्मन को दे जाना
देह बदलकर वेश नया धर
जग में हम फिर-फिर आएँ
गीत पुरातन बही प्रेम का
फिर मिलकर हम दोहराएँ
प्रीत पुनीत करे जो जग में
विधना के मन को भाता
देह से बढ़ कर होता है
मन से मन का एक नाता
-0-
Thursday, November 7, 2019
936
1-स्मृतियों के घेरे में / कृष्णा
वर्मा
जब-तब घिरे स्मृतियों का कोहरा
सन्नाटों में धड़कता मौन
पलटने लगता है अतीत के पन्ने
किसने कब क्यूँ कहाँ और कैसे को
कुरेदता मन
झाँकने लगता है बीती की तहों में
किसके छल ने डसा और
किसके व्यंग्य ने भेदी आत्मा
किसने उकेरने चाहे
मेरे तलवों की ज़मीं पर अपने नक़्शे
कौन मेरे पाँव की ज़मीं खिसकाकर
बनाने के प्रयत्न में था अपना महल
किसने चलाए मेरे वक़्त पर
तिरछे बाण और
किसने बँधाया मेरी अस्थिरता को धीर
किसके हाथों का स्पर्श दे गया
कांधे को आश्वासन
किसकी हथेली की उष्मा दे गई
अपनापे की गरमाहट मेरी ठंडी हथेली को
किसने निभाया दिली रिश्ता और
किसने औपचारिकता
कौन था जिसने ज़ख़्मों को भरा
और किसने उन्हें कुरेदा
किसने दी भर-भर के पीड़ा और किसने हरी
आंकलन करता समीक्षा में उलझा
पगला मन भूल जाता है
कुहासे को छाँटना
अतीत की डबडबाहट में भीगी पलकें
बार-बार लग जाती है
गुलाबी डोरों के गले
कतरा-कतरा सोज़
उड़ेलकर कोरों के काँधों पर
छाँटना चाहती हैं तुषारावृत को
पर यादों का समंदर है कि सूखता ही नहीं
हठी स्मृतियाँ इंतिहा मजबूती से
थामे जो रहती हैं मन की अँगुली।
-0-
2-फ़ेहरिस्त -प्रीति अग्रवाल
एहसानों की फ़ेहरिस्त
बड़ी हो रही है,
माथे पे चिंता
घनी हो रही है।
अभावों में डूब
तिनके ढूँढती हूँ जब,
हौली सी आवाज़
कानों में गूँजती है तब,
मेरा खुदा सकुचाया सा
मुझसे कहे-
क्या करूँ , ये सारे,
करम हैं तेरे।
पर रुक, कुछ फ़रिश्ते
भी संग कर रहा हूँ,
हिफ़ाज़त के सारे
प्रबन्ध कर रहा हूँ।
तुझे पंखों पे बैठा,
ले जाएँगे उस पार,
लगी, तो लगी रहने दे
अभावों की कतार!!
किस सोच में खड़ी
क्या कोई असमंजस,
इक फ़रिश्ते ने पूछा
काम से रुककर।
अभाव जितने,
उनसे दुगुने फ़रिश्ते,
कर्ज़ कैसे अदा हो
ये दुविधा बड़ी है !
मुस्कुराया और सुझाया,
है यह भी तो सम्भव,
तू फ़रिश्ता थी हमारी
जन्मों जन्म तक!!
एहसान तेरे
चुकाए जा रहे हैं,
कर्ज़ न कि तुझ पर
चढ़ाये जा रहे हैं ।
ऐसा तो पहले
सोचा ही नहीं था,
खुश हुई मैं,
और मेरा खुदा भी खुश था!!!
-0-
एहसानों की फ़ेहरिस्त
बड़ी हो रही है,
माथे पे चिंता
घनी हो रही है।
अभावों में डूब
तिनके ढूँढती हूँ जब,
हौली सी आवाज़
कानों में गूँजती है तब,
मेरा खुदा सकुचाया सा
मुझसे कहे-
क्या करूँ , ये सारे,
करम हैं तेरे।
पर रुक, कुछ फ़रिश्ते
भी संग कर रहा हूँ,
हिफ़ाज़त के सारे
प्रबन्ध कर रहा हूँ।
तुझे पंखों पे बैठा,
ले जाएँगे उस पार,
लगी, तो लगी रहने दे
अभावों की कतार!!
किस सोच में खड़ी
क्या कोई असमंजस,
इक फ़रिश्ते ने पूछा
काम से रुककर।
अभाव जितने,
उनसे दुगुने फ़रिश्ते,
कर्ज़ कैसे अदा हो
ये दुविधा बड़ी है !
मुस्कुराया और सुझाया,
है यह भी तो सम्भव,
तू फ़रिश्ता थी हमारी
जन्मों जन्म तक!!
एहसान तेरे
चुकाए जा रहे हैं,
कर्ज़ न कि तुझ पर
चढ़ाये जा रहे हैं ।
ऐसा तो पहले
सोचा ही नहीं था,
खुश हुई मैं,
और मेरा खुदा भी खुश था!!!
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3-दोहा /मंजूषा मन
दूर बसे परदेस तुम, मिलने की
क्या आस।
माँगूँ निशदिन ये दुआ, आ जाओ अब
पास।।
-0-
Sunday, November 3, 2019
935-पतझड़ को सांत्वना
सविता अग्रवाल 'सवि' (कैनेडा)
गर्मी का मौसम जाते ही
वसुधा में भी थी हरियाली
छायाचित्र; प्रीति अग्रवाल |
बैठा सूरज देख रहा सब
सूझी उसको एक ठिठोली
भर- भर कर पिचकारी रंग की
ऊपर से ही दे दे मारी
कहीं गुलाबी, पीला, नीला,
लाल, जामुनी
रंग बिखेरा
कलाकार की कलाकृति-सा
कैनवास पर चित्र उकेरा
देख- देखकर
इक दूजे को
वृक्ष खुद से
ही शरमाए
लेकर बारिश की कुछ बूँदें
धो -धो तन
को खूब नहाए
रगड़ा तन को इतना तरु ने
पत्ता भी इक टिक ना पाया
हो क्रोध में लाल और पीला
जाकर सूरज से वह बोला-
खेल खेलकर तुमने होली
अपना तो आनंद मनाया
पर मेरी हालत तो देखो
तिरस्कृत करके मुझे रुलाया
धरती पर अब कोई मुझको
देख नहीं खुश होता है
मानव की जर्जर काया से
मेरी उपमा करता है
पतझड़ में आक्रोश था इतना
कचहरी में सूरज को लाया
इलज़ाम लगाए उसने इतने
सुनकर सब, सूरज मुस्काया
छोड़ -छाड़कर
जिरह कचहरी
सूरज पतझड़ के संग आया
गले लगाया, चूमा माथा
पतझड़ को उसने सहलाया
छोड़ क्रोध, अब सोचो तुम भी
कितने रंग दिए हैं तुमको
देख तुम्हारे रंग अनोखे
जग सारा कितना हर्षाया
बोला सूरज पतझड़ से तब
समझो मेरी भी मजबूरी
शरद ऋतु से किया है वादा
उसको भी है मुझे निभाना
धरती पर कुछ दिन उसको भी
अपना है आधिपत्य
जमाना
तुमसे भी मैं वादा करता
नया नाम मैं तुमको दूँगा
खोया जो तुमने अपना है
सब कुछ मैं वापिस कर दूँगा
बसंत नाम से तुम फिर आकर
धरा पर जाने जाओगे
नव पत्तों और नव कलियों- संग
खिल खिलकर हँस पाओगे
बनकरके ऋतुओं का राजा
जग में पूजे जाओगे
देखूँगा मैं ऊपर से ही
जब स्वयं पर तुम इतराओगे।
-सविता अग्रवाल ‘सवि’ (कैनेडा)
दूरभाष
: (९०५) ६७१ ८७०७
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