पथ के साथी

Monday, January 22, 2018

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मुकद्दमा
-डॉ. कविता भट्ट 

अरे साहेब! 
एक मुकद्दमा तो उस शहर पर भी बनता है
जो हत्यारा है–
 सरसों में प्रेमी आँख-मिचौलियों का 
और उस उस मोबाइल को भी घेरना है कटघरे में  
जो लुटेरा है–
 सरसों सी लिपटती हँसी-ठिठोलियों का 
 हाँ- 
उस एयर कंडीशन की भी रिपोर्ट लिखवानी है
जो अपहरणकर्त्ता है- 
गीत गाती पनिहारन सहेलियों का
और उस मोबाइल को भी सीखचों में धकेलना है
जो डकैत है- 
फुसफुसाते होंठों-चुम्बन-अठखेलियों का 
उस विकास को भी थाने में कुछ घंटे तो बिठाना है
जिसने गला घोंटा
बासंती गेहूं-जौ-सरसों की बालियों का;
लेकिन इनका वकील खुद ही रिश्वत ले बैठा है
फीस इनसे लेता है
और पैरोकार है शहर की गलियों का
ओ साहेब! 
आपकी अदालत में पेशी है इन सबकी 
कुछ तो हिसाब दो -
उन मारी गयी मीठी मटर की फलियों का 
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