ऋता शेखर ‘मधु’
जन्म- पटना,बिहार
शिक्षा- एम एस सी (वनस्पति शास्त्र), बी एड.
रुचि- अध्यापन एवं लेखन
ऋता शेखर ‘मधु’ की तीन कविताएँ
1-नारी,स्वयंसिद्धा बनो
नारी,
तू अति सुन्दर है;
तू अति कोमल है;
सृष्टि की जननी है तू
उम्र के हर पड़ाव पर किन्तु
तेरे नयन हैं गीले क्यों?
ओ धरा-सी वामा तू सुन,
गीले नयनों को नियति न मान
अपने आँसुओं का कर ले निदान
स्वयं को साबित करने की ठान
चल पड़ी तो राह होगी आसान
तेरा यह क्रंदन है व्यर्थ
जीती है तू सबके तदर्थ
तू खुद को बना इतना समर्थ
तेरे जीने का भी हो अर्थ।
जिस सृष्टि का तूने किया निर्माण
उसी सृष्टि में मत होने दो अपना अपमान।
तेरे भी अधिकार हैं सबके समान
नारी तू महान थी, महान है, रहेगी महान।
नारी व्यथा की बातें हो गईं पुरानी
नए युग में बदल रही है कहानी।
बनती हैं अब वह घर का आधार
पढ़ें-लिखें करें पुरानी प्रथा निराधार।
बेटियाँ होती हैं अब घर की शान
उन्हें भी पुत्र -समान मिलता है मान।
किशोरियों की होती है नई नई आशा
उनके गुणों को भी जाता है तराशा।
अब नारी के होंठ हँसते हैं
खुशी से पैर थिरकते हैं
सपने विस्तृत गगन में उड़ते हैं
इच्छाएँ पसन्द की राह चुनते हैं।
नारियों के मुख पर नहीं छाई है वीरानी
वक्त बदल गया,अब बदल गई है कहानी।
2. आज का दर्द
दो पीढ़ियों के बीच दबा
कराह रहा है आज
पुरानी पीढ़ी है भूत का कल
नई पीढ़ी है भविष्य का कल
दोनों कल मिल
आज पर गिरा रही है गाज़
भूत का कल झुके नहीं
भविष्य का कल रुके नहीं
दोनों का निशाना
बन गया है आज
ना मानो तो बुज़ुर्ग रूठते
लगाम कसो औलाद भड़कती
क्या करूँ कि सब हँसे
हाथ पर हाथ धरे
सोंच रहा है आज
भावनात्मक अत्याचार करते वृद्ध
घायल हो रहा है आज
इमोशनल अत्याचार से स्वयं को
बचा रहा भविष्य का कल
मेरा क्या होगा
भविष्य अपना सोच -सोच
घबरा रहा है आज
पुरानी पीढ़ी मानती नही
नई पीढ़ी समझती नहीं
दोनों के बीच समझने का ठेका
उठा रहा है आज
पुराना कल बोले
मेरी किसी को चिन्ता नहीं
नया कल बोले
मेरी कोई सुनता नहीं
सुन सुन ये शिकवे
कान अपने
सहला रहा है आज
दोनों पीढ़ी नदी के दो किनारे
बीच की धारा है आज
कभी इस किनारे
कभी उस किनारे
टकरा टकरा
बह रहा है आज
भूत और भविष्य का कल
तराजू के पलड़ों पर विराजमान
बीच की सूई बन
संतुलन बना रहा है वर्तमान
दोनों कल चक्की के दो पाट
उनके बीच पिसते स्वयं को
साबुत बचा रहा है आज
रुढ़िवादी है पुराना कल
वह झील का है ठहरा जल
आधुनिक है नया कल
वह नदी का बहता जल
कभी झील में कभी नदी में
मौन रह
पतवार सँभाल रहा है आज
परम्परा मानता जर्जर कल
बदलाव चाहता प्रस्फुटित कल
दोनों के बीच चुपचाप
सामंजस्य बैठा रहा है आज
कल और कल का
कहर सह सह
टूट न जाना आज
धैर्य का बाँध टूटा अगर
बह जाएँगे दोनों कल
कल और कल की रस्साकशी में
मंदराचल पर्वत
बन जाओ तुम आज
कई अच्छी बातें ऊपर आएँगी
बीते कल का प्यार बनोगे
आगामी कल का सम्मान।
3.आत्मा की बेड़ी
आत्मा है
बेड़ी रहित
अमर उन्मुक्त
अजर अनन्त
बेख़बर है
खुशी और गम से
अनजान है
दर्द और संघर्ष से
जगत की चौखट पर
रखते ही कदम
आरम्भ होती
बेड़ियों की शृंखला
सर्वप्रथम मिलती
काया की बेड़ी
फिर जकड़ती
एहसास की बेड़ी
महसूस होने लगते
खुशी और गम
दर्द और जलन
जन्म लेते ही चढ़ता
शरीर पाने का ऋण
होता वह
मातृ-पितृ ऋण की बेड़ी
चुकता है तभी यह उधार
करते जब उनका शरीरोद्धार
जन्म लेते ही
स्वत: जाती है जकड़
रक्त-सम्बन्ध की बेड़ी
प्यार से निभाएँ अगर
रहती है रिश्तों पे पकड़
समाज ने जकड़ी है
अनुशासन की बेड़ी
दाम्पत्य की बेड़ी
वात्सल्य की बेड़ी
इन प्यारी बेड़ियों को
रखना है साबुत,
कर्त्तव्य की बेड़ी को
करना होगा मज़बूत
कुछ बेड़ियाँ होती भीषण
फैलातीं भारी प्रदूषण
वे हैं -
कट्टर धर्म की बेड़ी
जातीयता की बेड़ी
अहम् की बेड़ी
जलन की बेड़ी
बेड़ी मोह माया की
तोड़ना नहीं आसान
स्वत: टूट जाएँगी
होगा जब काया का अवसान
जीवन विस्तार को भोग
होंगे पंचतत्व में विलीन
आत्मा फिर से होगी
बेड़ी रहित
स्वच्छन्द और उन्मुक्त
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