प्रेम-सुरभित पत्र
डॉ कविता भट्ट
(हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर
(गढ़वाल), उत्तराखंड
1
कितना भी जीवन खपा
लो, अब तो सच्चा मित्र नहीं मिलता
हृदय-उपवन को महका दे जो, वो मादक इत्र नहीं
मिलता
शब्द-ध्वनि-नृत्य-घुले
हों जिसमें, अब वो चलचित्र हुआ दुर्लभ
उर को सम्मोहित कर
दे जो, अब रंगीन चित्र नहीं मिलता ।
2
जूठे बेर से भूख मिटा ले जो,
अब वो भाव विचित्र नहीं मिलता
शिला-अहल्या बोल
उठी जिससे, अब वो राम-चरित्र नहीं मिलता
विरह में भी जीवन
भर दे जो, वो राधा-प्रेम ढूँढती हूँ
एक मुट्ठी चावल में , कान्हा का प्रेम पवित्र नहीं मिलता ।
3
मैत्री -दिवस के संदेश में, प्रेम-सुरभित पत्र खोए किधर
तुम्हीं मिल जाना मुझे किसी भी दिन किसी
भी मोड़ पर प्रियवर
आँसू पी जाएँ अधरों से, वे प्रेमी अब कहीं नहीं मिलते
छाया मैं तुम्हारी हूँ और तुम्हीं मेरे प्राणों के तरुवर ।
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