पथ के साथी

Monday, May 15, 2017

736

4-पुष्पा मेहरा
1

जनम दिया माँ ने हमें,पाला,लिया न मोल ।
 बल आशीषों का दिया,स्वार्थ तुला न तोल ।।
2
 नयन बरौनी -सी रहे,सदा हमारे साथ ।
 ऐसी माँ के चरण में,झुके सदा यह माथ ।।
3
 माँ की समता ना कहीं,वह बरगद की छाँव ।
 आशीषों की सघनता,मिलती उसके ठाँव ।।
4
शरबत बन कर ढल गई,माँ की कटु फटकार ।
भटका मन पथ पा गया,माँ का मिला दुलार ।।
5
माँ ने चिट्ठी में लिखा,मीठा -मीठा प्यार ।
पढ़-पढ़ आँखें तर हुईं,आखर थे रसधार ।।
6
मातृ दिवस में याद कर,फिर ना जाना भूल ।
वृद्धाश्रम में डाल उसे,भेंट न देना शूल ।।
-0-
5- एक खास दिन
कमला घटाऔरा

माँ के लिये एक खास दिन
है चुन रखा पश्चिम ने कह -'मदर्स डे'
देते फूलों के गुलदस्ते और सोगातें
बच्चे से बड़े तक जुट जाते
माँ को अपना प्यार जताने
या फिर प्यार का फर्ज निभाते
उनके मन की वो ही जाने ।
हमारा तो हर दिन माँ के लि है
पूजनीया आराधनीया है ।
नित्य सुबह चरण स्पर्श कर
आशीर्वाद लेने का देवी रूपा जननी का ।
माँ चल दे जहाँ छोड़ के
पिता भी पिता नहीं रहता
बन जाता पराया ।
अफसोस है इतना
जाने क्यों ,
किस प्राप्ति की होड़ मे जुटकर
सन्तानें हमारी जमाने के संग चल पड़ी ।
छोड़ माँ -बाप को ।
माँ पीड़ा में जीती है ,
परवरि पा पैरों पर खड़े होते ही
क्यों बच्चों द्वारा भुलाई जाती है  ?
कटे बुढ़ापा रो -रो कर
पुरानी चीजों की तरह
क्यो ठुकराई जाती है ?
जो जन्म से माँ होती है
माँ बनते ही वह और महान हो जाती है
ममता के घन से घिर वह दिन रात
ममता रस बरसाती है
उसके त्याग , तपस्या , सेवा को भूल
क्यों बच्चों द्वारा झुठलाई जाती है ?
भूलते हैं क्यों, जिससे जन्म मिला
जिसके दम से यह जगत्
निरन्तर चल रहा
अमर बेल- सा बढ़ रहा
क्यों उसकी महत्ता बिसराई जाती है
काश ! सब को मिले वो आँख
हर बच्ची में देखे रूप माँ का
बुरी नियत से उसे छूने से पहले
जागे उसके अंदर का बच्चा
जिसने पय-पान किया माँ का
दुष्कर्म करने से पहले
आँख खोले यदि वह जाने
मन ही मन दुत्कारेगा खुद को
नहीं सूखने देगा नेह की पावन नदी को
औरों से बचाने हित दे दे जान अपनी
आगे मिलने वाली ठंडी छाँ को
भविष्य की माँ को ।
' निर्भय' नहीं  निर- भय हो कर जिए
जन्म ले आने से जाने तक वह
वृद्धावस्था में उसे सेवा और सत्कार मिले

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735

माँ
1-डॉ भावना कुँअर

आज एक अजीब सी बेचैनी थी मन में
जाने क्यों बार-बार
आज भटक रहा था मन ...
रह-रहकर माँ क्यों याद आ रही थी
पिछले बरस ही तो आई थी  मेरे पास...
दिन भर जाने क्या-क्या करती
कभी खाली ही नहीं रहती...
जब मैं ऑफिस से आती
खुल जाता हमारी यादों का पिटारा
और रात ढले हौले-हौले बन्द होता...
घर का हर कोना महकता रहता
माँ की खुशबू से...
बॉलकनी में जाते वक्त माँ का हाथ हिलाना
आने से पहले यूँ खड़े-खड़े इन्तज़ार करना...
आज मन दुखी है, माँ को याद करता है...
मैं बैठी हूँ सात समन्दर पार...
ढूँढती हूँ उस खुशबू को
जो दब गई है कहीं धूल में...
झाड़ती हूँ धूल और रख लेती हूँ खुशबू को सहेजकर...
रसोई में खोजती हूँ कुछ डिब्बों में...
खुशी से बाछें खिल जाती हैं...
माँ के हाथों से बने कचरी और पापड़ पाकर
चूल्हे पर जल्दी-जल्दी भूनती हूँ
तभी दिख जाती है माँ की  पसन्द  की चाय...
उन्हीं की तरह बनाती हूँ छोटे से भगोने में
खूब पका-पकाकर...
अब बैठ जाती हूँ, चाय की चुस्की लेती हूँ
कचरी पाप खाती हूँ...
पर जाने क्यों होठों तक आते ही
सील जाती है कचरी
और नमक भी जाने  क्यों तेज सा लगता है...
कुछ सीली-सीली, कुछ गीली-गीली कचरी
चाय की चुस्की या फिर दबी-दबी सिसकी
सूनी बॉलकनी, सूना घर
रसोई में बसी माँ के खाने की खुशबू आज भी है
और आज भी है इन्तज़ा
अलगनी पर टँगे कपड़ों को
तहाने का...
आज भी शीशे पर चिपकी बिन्दी को
है इन्तज़ार उन हाथों का
मेरी नन्हीं चिरैया को है इन्तज़ार
उन मीठी-मीठी बातों का...
मैं सब यादों को समेटकर
माँ से मिलने के दिन
लग जाती हूँ उँगलियों पर गिनने...
-0-
2-मंजूषा मन

घर के तहखाने में आज जाकर
सब सामान उथल-पुथल कर बैठी
खूब ढूँढा
खूब ढूँढा
पर न मिला
होना तो था यहीं कही !

फिर खोले पुराने डिब्बे,
टोकरियाँ पलटाई
पोटलियों की गाँ खोलीं
हाँ भी नहीं ..

फिर कोने में दिखी माँ की संदूकची
सोचा इसे भी देख लूँ
बेसाख्ता संदूकची खोली
और ढूँढना शुरू किया ..

दो चार चीजें हटाते ही
मिली वो गुड़िया
जो आँखें मटकाते डमक- डमक नाचती थी
अब चुपचाप दबी पड़ी !

वो राजकुमार गुड्डा
जिसके सिर पर चमकीला सेहरा था
जो घोड़े पर मटकते गाना गाता था
अब बदरंग, कुछ नहीं कहता !

कुछ बिंदियों के पत्ते
जो इन दिनों अक्सर लगाना भूल जाती हूँ
कितनी छोटी छोटी चूड़ियाँ , काला कंगन
अब तो बिटिया के तक न आएँ !

देखती रही लट पलटकर जाने कब तक
फिर उठ बैठी निश्वास
जंगीला हो चला था ताला बस वही बदला
और संदूक में मिला था
इन सब के साथ मेरा बचपन भी
जो सहेजा था माँ ने...

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3-मेरी माँ -
सत्या शर्मा कीर्ति

आज अचानक कहा
मेरी माँ ने मुझसे
लिख दो ना मेरे  ऊपर भी कोई कविता
और फिर  देखा मैंने माँ को ध्यान से
आज कई दिनों बाद ।

अरे ! माँ कब  हो ग बूढ़ी
सौंदर्य से उनका दमकता
वो चेहरा जाने कब ढक गया झुर्रियों से

माँ के सुंदर लम्बे काले बाल
कब हो गए सफेद ।
कब माँ के मजबूत कंधे
झुक से गए समय के बोझ से।

अचंभित हूँ मैं ...

ढूँढती रही मैं नदियों , पहाड़ों ,
बगीचों में कविता
और मेरी माँ
मेरे ही आँखों के सामने होती रही बूढ़ी

भागती रही भावों की खोज में
क्यों नही देख पाई
जब प्रकृति खींच रही थी
माँ के जिस्म पर अनेकों रेखाएँ ..

सिकुड़ती जा रही थी माँ तन से और मन से
और मैं ढूँढ रही थी प्रकृति में
अपनी लेखनी के लिए शब्द ।

जब बूढ़ी आँखे और थरथराते हाथों से
जाने कितनी आशीषें लुटा रही थी माँ ।
तब मैं दूसरों के मनोभावों में  ढूँढ रही थी कविता ।

और इसी बीच जाने कब मेरे और मेरी
कविता के बीच
बूढी हो गयी माँ ।
शर्मा कीर्ति
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3- माँ( मन्जूषा मन ) के लिए
 प्रकृति दोशी

तू ही तू

तू ही माँ थी
तू ही पापा
तू ही हमारा इकलौता सहारा

दुगना काम
दुगना दर्द
दुगना तनाव
दुगने आँसू
दुगने कर्त्तव्य
दुगना दायित्व-भार
दुगनी सारी जिम्मेदारी

और शायद दुगना बोझ भी।

मगर,
दुगने प्यार
दुगना दुलार
दुगनी खुशी
दुगना आत्मविश्वास
दुगनी हिम्मत
दुगना गौरव
दुगनी ममता

और दुगनी हमारी खुशकिस्मती ।
तू अकेली थी पर अकेली ही काफी थी।।

तू ही माँ थी
तू ही पापा
तू ही हमारा इकलौता सहारा।।
 -0-