पथ के साथी

Sunday, June 14, 2015

चाँद



अनिता मंडा

एक बार यूँ
होकर बेक़रार
छूना चाहा था
चाँद को लहरों ने,
आगे बढ़ती
आकाश की तरफ़
भूली मर्यादा
आगे और ऊपर
बढ़ती गईं
लील गई जीवन
समेट गई
अनमोल निधियाँ
किनारे छोड़
फैल गई रेत में
थकी, ठहरी
होकर असफल
हो गई क्लांत
शांत, निर्भ्रांत, स्थिर
चाँद का अक़्स
आने लगा नज़र
अपने ही भीतर।
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