पथ के साथी

Sunday, June 26, 2022

1221-सॉनेट

सॉनेट /अनिमा दास

1-ऋतु प्रियतमा

 

ए शिशिर. शीतल समीरण के सदा सुगंधित सप्तक


उर्वशी -उर की उष्णता.. उर्वी की उमस की गमक

वर्णवारि की वर्षा में हिम स्फटिक का श्वेत आभूषण 

क्यों लिखा कादंबरी के कज्जल पर अनंत तपश्चरण?

 

ए वसंत...यह पर्णपत्र है गौर गात्र का अक्षुण्ण अक्षर

अल्प मौन.. अल्प मुखर...जैसे प्रिय का तृषित अधर 

मन पुष्करिणी के शब्द शतदल सा प्रतिबिंबित मयंक

सौंदर्य सुरभि भर है शून्य वन सा विरहिणी का अंक।

 

मधुर मृदुल मोह में प्रतीक्षा की प्रतिश्रुति है प्रश्नपूरित 

अस्तित्व का अमरत्व नहीं है अमृत अर्घ्य में अनिमित्त 

वह्निवाहक यह हृदय है तीव्र ज्वाला का आग्नेय प्रस्तर 

है अंतहीन अंतरिक्ष के असंख्य अणु का अभिसर।

 

वारिद्र के कंठ में पंचवर्ण की वर्णिका ..क्यों है वल्लिका!

क्यों है वैधव्य...व्यतीत यामिनी में..हे मृति माधविका!

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2-काव्यकामिनी 

 

व्यतीत होता है प्रकाश... तत्पश्चात् अंधकार

एक गहन श्वास लिये एक पक्ष होता व्यतीत

व्यतीत होता है कष्ट..कष्ट में मग्न स्मृति अपार

नहीं आता द्वार पर....न प्रश्न...न उत्तर न अतीत।

 

शकुंतला की विरह वाटिका में अब होते हैं कंटक

स्वर्गपथ की अग्नि में दग्ध होती...दुष्यंत की यामा 

कहाँ रही अब मधुक्षरा की सुगंध में प्रेम की गमक!!

प्रतिश्रुति का वह क्षण...अब है वृंतरहित पुष्प- सा।

 

अप्सरा सी मैं भी होती..शृंगार का रस बह जाता

बह जाती अनंतता में आयु..संग मोहिनी भंगिमा 

ऋषि-नृप के हृदय कुंज में कदम्ब ही पुष्पित होता

कादम्बरी सी मैं कुहुकती..घन-वन में होती मंजिमा ।

 

तरंगिणी तीर की तरणी सी किस दिशा में बह जाऊँ

किंवदंती सी कविता में..मैं काव्यकामिनी सी रह जाऊँ।

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1220

 1-कुण्डलिया

डॉ. उपमा शर्मा

1


तुमसे ही ये मन जुड़ा
, दूर रहो या पास।

सुधियाँ देती हैं मुझे ,मोहक मधुर सुहास।

मोहक मधुर सुहास, साथ एक पल न छूटे

रब से ये अरदास,न बंधन अपना टूटे

मैं राधा तुम श्याम,कि मितवा, सात जनम से।

बने तुम मनमीत, दिलों के बंधन तुमसे

2

तरु जब काटे थे नहीं, ताल-कूप  अंबार।

नीर कहाँ से अब मिले, कर लो सोच-विचार।

कर लो सोच विचार, सूखती ताल-तलैया।

पर्वत बने मैदान, न लें फिर मेघ बलैया।

धरती होती क्लांत, न बरसेगा बादल तब।

सूखे चारों मास, काटते तुम ये तरु जब।

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2-सपने-2

 

भीकम सिंह 

 


बीते दिनों की
 

यादों के 

कई सपने 

मेरी आँखों में 

छुपकर 

बड़े हुए हैं   

 

धड़कनों पे

मँड़राते रहे 

आषाढ़ से आषाढ़ 

सावन के 

बीचो-बीच 

खड़े हुए हैं 

 

जुगनू भर गए 

अबके अनाप- शनाप 

इसलिए 

फागुन में 

मिलने की जिद पे

अड़े हुए हैं   

 

बीते दिनों की 

यादों के 

कई सपने।

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Thursday, June 23, 2022

1219-कारवाँ

 प्रीति अग्रवाल

  

कितने वर्ष हो गए

ज़िन्दगी की ऊँची-नीची


पथरीली राहों पर

चलते चलते....

कितने मौसम बदल गए

कितने साथी बिछुड़ गए

कितने नए जुड़ गए...

मूल्यों की परिभाषा बदल ग

सिद्धांतों के परिधान बदल गए

नए ज़माने की मानो

चाल ही बदल ग...

 

पर मन के भाव...

वो अब भी वही हैं

अनुभूतियों की

अभिव्यक्ति तक की यात्रा

अब भी वही है

दुर्गम, और छोटी सी....

 

मन में ज्वार-भाटा उठता है

कुछ देर उथल- पुथल मचा

मंथन करता है,

फिर कलम को स्याही में डूबा देख

कुछ आश्वासन पाता है

अंततः कागज़ तक पहुँचकर ही

पूर्ण मुक्ति पाता है।

 

मन, इस सफर को

सहृदय, सहर्ष


बार-बार तय करता है,

बार-बार दोहराने की लालसा रखता है

अनन्त, अकल्पनीय संतुष्टि पाता है

 

और अभिव्यक्तियों का कारवाँ

यूँ ही बढ़ता जाता है।

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Tuesday, June 21, 2022

1218-तुम्हें क्या दूँ मीत मेरे

 रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

मिला  जो झोली भर -भर प्यार।
अभी तक मुझ पर रहा उधार।।


मैं 
क्या तुम्हें दूँ मीत मेरे
तुम्हीं से जीवित गीत मेरे।
मैं सदा तेरा ही  कर गहूँ
सदा तेरे ही उर में  रहूँ।

              तुम  हो नैया  तुम्हीं पतवार।

             तुम्हीं हो प्राणों का संचार।।


पाऊँ तो बस तुझको पाऊँ
और के द्वार कभी न जाऊँ।
बसे  कण्ठ में गीत तुम्हारे
चुम्बन- चर्चित, मीत तुम्हारे।

             तैर जाऊँ जग- पारावार
             दो जो नयनों का उजियार।।

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Saturday, June 11, 2022

1216-डॉ. शिप्रा मिश्रा की कविताएँ

 डॉ. शिप्रा मिश्रा की कविताएँ

1

हर बात में तवज्जो हर बात में शिकायतें

एक तरफ है कैद और दूसरी ओर जिल्लतें


कैसे जी लेते हैं ऐसे लोग ये पता नहीं

चार दिन की जिंदगी और हैं हजारों लानतें

 

फुर्सत नहीं यहाँ किसी भी रिश्ते के लिए

जिद पाले बैठे हैं सब को झुकाने के लिए

जो एक बार झुक गया खुदा की बंदगी में

औकात क्या रही किसी को गिराने के लिए

 

किसी को हो अपने रुतबे का नशा तो हो

किसी को अपने उड़ने का नशा हो तो हो

हमें क्या करना किसी की मगरूरी से

उसे बेखौफ बदगुमानी का नशा हो तो हो

 

चेहरे हैं मुस्कुराते और दिल में जलजला

झूठ की बस्ती में नेकियों का सिलसिला

खूब उड़ा लो अपनी पतंगें आसमाँ तक

हम रहें जमीन पर बस यही है  इल्तिजा

 

ये जिंदगी है बन्दे होगी ही धूप- छाँव

खुदा के कहर से कब तक बचेंगे पाँव

औकात में ही रहना सबको लाजिमी है

जड़ें ही कट गईं तो कब तक रहेगा गाँव

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2-माटी- पानी ?

छोटी जगह की लड़कियाँ

बड़ी गँवारू होतीं हैं

समझती नहीं कुछ

आज के तौर- तरीके

चली आती हैं गाहे- बगाहे

जब उनकी माटी पुकारती है

अब भी करतीं हैं परदा

अपने जेठ- सरदार से

उतारतीं हैं थकान पाहुन की

पानी भरे परात में

अब भला जरूरत क्या है

मँगरुआ के घारी में

बेझिझक चले जाने की

और तो और

वहाँ से गोबर उठा लाने की

उसके बिना क्या चौका

अपवित्र रहता है भला

व्यंजनों से परोसी थाल भी

उन्हें तृप्त नहीं कर पातीं

जब तक न खाएँ

घूरे में पकाया

आलू का चोखा

फेरा लगा आती हैं

गाँव के खेत- खलिहान

गोहार आती हैं शीतला माई

बरह्म बाबा, वनदेवी

आँचर पसार- पसार

ये लड़कियाँ देतीं हैं

उगते सुरुज को जल

गांछ- बिरिछ और

दुआरी पर

बांध जातीं हैं

मनौती की डोर

जनेऊ वाले महादेव पर

माथा पटकतीं हैं

बुदबुदाते हुए

गायों को कौरा खिलाती

बढन्ती की असीस माँगतीं

लगाती हैं घर के

गोल- मटोल- से छौने के

लिलार पर करिया टीका

अकलुआ की मऊसी से

सनेस माँगने की

भला क्या जरूरत

घर में मिठाइयों की

कोई कमी है क्या

नइहर के खोंइछा के बिना

भला क्यों अधूरी रहती हैं

ये छोटी जगह की

लड़कियाँ भी ना

सहेज जाती हैं

पुरखों की नसीहतें

और बचा लेतीं हैं

अपनी माटी- पानी को..

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3-परिणति

 

 नदी अपना मार्ग

स्वयं बनाती है

कोई नहीं पुचकारता

उछालता उसे

कोई उसकी ठेस पर

मरहम नहीं लगाता

दुलारना तो दूर

कोई आंख भर

देखता भी नहीं

तो क्या

नदी रुक जाती है

या हार मान लेती है

कोई उसे मार्ग भी

नहीं बताता

चट्टानों से भिड़ना

उसकी नियति है

और उसे

अपनी नियति या

नियंता से

कोई उलाहना नहीं

उसे तो

स्वीकार्य है

स्वयं का

आत्मसात

यही परिणति है

जो उसे सिंधु की

विशालता से

उसका परिचय

करवाता है

और वह

सर्वस्व न्यौछावर

करने के बावजूद

बिंदु से सिंधु के

अंक में समाहित

हो जाती है

सदा- सर्वदा के लिए

और हो जाती है

 परिपूर्ण..

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4- वह एक दरिंदा -डॉ.शिप्रा मिश्रा

 

डरते हैं हम अपनी आँखें खोलने से

डरते हैं हम अपनी पाँखें खोलने से

 

उस घूरने वाले से हम काँप जाते हैं

उसके गंदे इरादे हम भाँप जाते हैं

 

हमारे थरथराने पर वह ठहाके लगाता है

अपने मंसूबों को साजिशों से सजाता है

 

बेजान तितलियों के पंख वह मसल देता है

हमारी मासूम खिलखिलाहट में दखल देता है

 

हमारा चहकना उसे अच्छा नहीं लगता

वह एक दरिंदा हमें सच्चा नहीं लगता

 

उसकी मुट्ठियों में शिकारियों के जाल हैं

बहशी बेखौफ शैतानों से बड़े बाल है

 

जी चाहता है नाखूनों से चिथड़े कर दें

उसके कलूटे जिस्म के टुकड़े कर दें

 

इन भेड़ियों को बनाया क्यों भगवान ने

या इंसानियत ही छोड़ दी यहाँ इंसान ने

 

जज अंकल!! इन्हें लटका दो फाँसी पर

अरे!कुछ तो तरस खाओ मुझ रुआँसी पर

 

तिल-तिल मरने का दर्द क्या होता है

बेजुबान सिसकती रातें सर्द क्या होता है

 

हम नन्ही चिड़िया हमें बेखौफ उड़ने दो

हमारे ख्वाबों में चाँद-सितारे जड़ने दो

 

हमें मचलने दो हमें भी खिलने दो

इन्द्र-धनुष के रंगों में हमें घुलने दो

 

हम तक जो पहुँचे हाथ वो जल जाए

हमारी जलती रोशनी से वो सँभल जाए

 

उससे कह दो हम अबला या कमजोर नहीं

हमें छू सके उन बाजुओं में इतना जोर नहीं

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