1-ठूँठ !
- सुशीला शील राणा
तुम अकेले होकर भी
अकेले कहाँ हो ठूँठ
कितने ही लघु जीवों का
आश्रय हो
जो श्रम से निढाल
तुमसे लिपट
मिटाते हैं
दिन भर की थकान
तुम्हारे कोटर में
पाते हैं कुटीर का सुख
फिर एक उजली भोर
मीठी- सी
थपकी देकर
जगाती है तुम्हें
तुममें बसते जीवन को
ठीक उसी तरह
जैसे बचपन में
जगाती है माँ
प्यार से माथे को चूम
सूर्य पितामह
बिना किसी भेदभाव
देते हैं रोज़ धूप-रौशनी
चंदा मामा बाँटते हैं शीतल चाँदनी
जिसकी मखमली छुअन
हरती है तुम्हारा ताप-सन्ताप
ठूँठ!
तुम अकेले कहाँ ?
तुम्हारी सूखी टहनियाँ, छाल
बन जाती हैं ईंधन
जिसमें पकी रोटियाँ
बचाए रखती हैं
कई ज़िंदगियाँ
ठिठुरते पाले में
ठिठुरती झोंपड़ियों में
तुम्हारे बीन हुए
पत्ते, तिनके
बचा लेते हैं शीत में
बर्फ़ होते अनमोल जीवन
विरल है
मिटने से पहले
किसी फूस की छत की
बल्ली बन
देते हो पिता- सा मज़बूत आधार
बचाते हो कड़ी धूप, लू से
अति वर्षा की मार से
सहते हो मूक
मौसमों की मार
बरसों बरस
अंत में
जब जलाए जाएँगे
तुम्हारे अवशेष
किसी अलाव, चूल्हे या तंदूर में
तो भोजन के साथ
बाँटेगा तुम्हारा स्नेह
ढेर सी आशीषें
जो निश्चित ही फलेंगी
और फलोगे तुम
उस स्नेह में
उन आशीषों में
तुम अकेले कहाँ
कितनी ही यादें हैं तुम्हारे साथ
कितनी ही यादों में हो तुम
कितनी ही ज़िंदगियों में
कितनी ही तरह से
अब भी विचरते हो
तुम सुखदायी, फलदायी
हे आश्रयदाता
कितनी ही दुआओं में हो तुम
तुम अकेले हो ही ठूँठ
तुम अकेले हो ही नहीं सकते
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2-जिंदगी/ आशमा कौल
अनिश्चित है
इस मासूम जिंदगी का
इस पल को जी लो
जैसे जीती है
ओस की बूँद
हर दिन को खिलाओ
जैसे खिलता है सूरजमुखी;
क्योंकि हर अगला पल
अनिश्चित है
इस मासूम जिंदगी का।
घबराना नहीं है
इस अनिश्चितता से
लौटकर आना है
जीवन की रणभूमि पर
बार-बार
शूरवीरों की तरह
कार्यरत रहना है हर पल
माँ की
तपस्या-सा;
क्योंकि हर अगला पल
अनिश्चितता है
इस मासूम जिंदगी की
हमें तो जीना है
आज जी भरके
सपनों के इन्द्रधनुष
रचने हैं गगन में
उम्मीदों के फूल
खिलाने हैं चमन में
हर पल को
पहुँचाना
है अंजाम तक;
क्योंकि हर अगला पल
अनिश्चित है
इस मासूम जिंदगी का
इस पल को सजाना है
दुल्हन की तरह
आज को छिपाना है
पलकों की ओट में
मुट्ठी में कैद कर लो
जब तक कर सको इसे
चूम लो इसके लब
जब यह मंजिल की शक्ल ले;
क्योंकि हर अगला पल
अनिश्चित है
इस मासूम जिंदगी का ।
-0-(फरीदाबाद )
9868109905