– रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
भीगे राधा के नयन, तिरते कई सवाल ।
कभी न ऊधौ पूछता , ब्रज में आकर हाल ।।
चिट्ठी अब आती नहीं, रोज सोचता बाप ।
जब–जब दिखता डाकिया , और बढ़े संताप ।।
रह–रहकर के कॉपते, माँ के बूढ़े हाथ ।
बूढ़ा पीपल ही बचा, अब देने को साथ ।।
बहिन द्वार पर है खड़ी,रोज देखती बाट ।
लौटी नौकाएँ सभी, छोड़–छोड़कर घाट ।।
आँगन गुमसुम है पड़ा , द्वार गली सब मौन ।
सन्नाटा कहने लगा , अब लौटेगा कौन ।।
नगर लुटेरे हो गए, सगे लिये सब छीन ।
रिश्ते सब दम तोड़ते,जैसे जल बिन मीन ।।
रोज काटती जा रही,सुधियों की तलवार।
छीन लिया परदेस ने , प्यार–भरा परिवार ।।
वह नदिया में तैरना, घनी नीम की छाँव ।
रोज रुलाता है मुझे सपने तक में गाँव ।।
हरियाली पहने हुए,खेत देखते राह ।
मुझे शहर में ले गया, पेट पकड़कर बाँह ।।
डब–डब आँसू हैं भरे, नैन बनी चौपाल ।
किस्से बाबा के सभी, बन बैठे बैताल ।।
बँधा मुकद्दर गाँव का, पटवारी के हाथ ।
दारू मुर्गे के बिना, तनिक न सुनता बात ।।
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