पथ के साथी

Monday, May 23, 2011

गॉव की चिट्ठी:दोहे


    रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
भीगे राधा के नयन, तिरते कई सवाल ।
 कभी न ऊधौ पूछता , ब्रज में आकर हाल ।।

  चिट्ठी अब आती नहीं, रोज सोचता बाप
  जबजब दिखता डाकिया , और बढ़े संताप ।।

रहरहकर के कॉपते, माँ के बूढ़े हाथ ।
 बूढ़ा पीपल ही बचा, अब देने को साथ ।।

बहिन द्वार पर है खड़ी,रोज देखती बाट ।
 लौटी नौकाएँ सभी, छोड़छोड़कर घाट ।।

   आँगन गुमसुम है पड़ा , द्वार गली सब मौन ।
    सन्नाटा कहने लगा , अब लौटेगा कौन ।।

  नगर लुटेरे हो गए, सगे लिये सब छीन ।
 रिश्ते सब दम तोड़ते,जैसे जल बिन मीन ।।

     रोज काटती जा रही,सुधियों की तलवार।
     छीन लिया परदेस ने , प्यारभरा परिवार ।।

       वह नदिया में तैरना, घनी नीम की छाँव ।
      रोज रुलाता है मुझे सपने तक में गाँव ।।

 हरियाली पहने हुए,खेत देखते राह ।
 मुझे शहर में ले गया, पेट पकड़कर बाँह ।।

डबडब आँसू हैं भरे, नैन बनी चौपाल ।
किस्से बाबा के सभी, बन बैठे बैताल ।।

  बँधा मुकद्दर गाँव का, पटवारी के हाथ ।
  दारू मुर्गे के बिना, तनिक न सुनता बात ।।
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