पथ के साथी

Thursday, March 23, 2023

1306-पाँच कविताएँ

 

अनिता सैनी

1. प्रभात की पहली किरण



प्रभात  की  पहली  किरण  ने

कुछ  राज़  वफ़ा  का  सीने  में  यूँ  छिपा  लिया 

 पहनी  हिम्मत  की  पायल  पैरों  में

हृदय  में  दीप  विश्वास  का  जला दिया

और चुपके से कहा-

 घनघोर बादल आकांक्षा के

उमड़ेंगे  चित्त पर 

विचलित करेगी वक़्त की आँधी 

तुम  इंतज़ार  मेरा   करना।

हम  फिर  मिलेंगे  उस राह पर

हमदम  बन  हमसफ़र  की तरह

होगा  सपनों  का आशियाना 

गूँथेंगे  एक  नया  सवेरा।

कुछ खेल क़ुदरत का यूँ रहा

तसव्वुर में एक महल यूँ ढ़हा

इन बैरी बादलों  ने  छिपाया 

मासूम मन मोहक मुखड़ा उसका।

नज़र आती थी वह खिड़की में

 फिर वहाँ ख़ामोशी का हुआ बसेरा 

छूकर   फिर  लौट  जाना 

मेरी मासूम मुस्कुराहट पर

मुस्कुराते  हुए  लौट आना।

कुछ पल ठहर उलझा उलझन भरी बातों में

फिर लौट आने की उम्मीद थमा हाथों में

धीरे-धीरे बादलों के उस छोर पर बिखर

सिसकते हुए  सिमट जाना 

मेरे चकोर-से चित्त को समझाते हुए जाना।


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2.स्त्री -भाषा


परग्रही की भाँति

धरती पर नहीं समझी जाती

स्त्री की भाषा

भविष्य की संभावनाओं से परे 

किलकारी की गूँज के साथ ही 

बिखर जाते हैं उसके पिता के सपने

बहते आँसुओं के साथ 

सूखने लगता है

माँ की छाती का दूध

बेटी के बोझ से ज़मीन में एक हाथ 

धँस जाती हैं उनकी चारपाई 

दाई की फूटती नाराज़गी 

दायित्व से मुँह मोड़ता परिवार

माँ कोसने लगती हैं 

 अपनी ही कोख को 

उसके हिस्से की ज़मीन के साथ

छीन ली जाती है भाषा भी 

चुप्पी में भर दिए जाते हैं

मन-मुताबिक़ शब्द 

सुख-दुख की परिभाषा परिवर्तित कर  

जीभ काटकर

 रख दी जाती है उसकी हथेली पर 

चीख़ने-चिल्लाने के स्वर में उपजे

शब्दों के बदल दिए जाते हैं अर्थ 

ता-उम्र  ढोई जाती है उनकी भाषा

एक-तरफ़ा प्रेम की तरह।

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3.दिल की धरती पर



दिल की धरती पर 

छिटके हैं

एहसास के अनगिनत बीज।

धैर्य ने बाँधी है दीवार 

कर्म की क्यारियों का 

साँसें बनती हैं आवरण।

धड़कनें सींचती हैं 

बारी-बारी से अंकुरित पौध।

स्मृतियों के सहारे

पल्लवित आस की लताएँ

झूलती हैं झूला।

गुच्छों में झाँकता प्रेम

डालियों पर झूमता समर्पण

न जाने क्यों साधे है मौन।

बाग़ में स्वच्छंद डोलती सौरभ

अनायास ही पलकें भिगो

उतर जाती है

दिल की धे साथ।

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4. चरवाहा



वहाँ! 

उस छोर से फिसला था मैं,

पेड़ के पीछे की 

पहाड़ी की ओर इशारा किया उसने

और एक-टक घूरता रहा  

पेड़  या पहाड़ी ?

असमंजस में था मैं!

हाथ नहीं छोड़ा किसी ने 

न मैंने छुड़ाया 

बस, मैं फिसल गया!

पकड़ कमज़ोर जो थी रिश्तों की

तुम्हारी या उनकी?

सतही तौर पर हँसता रहा वह

बाबूजी! 

इलाज चल रहा है

कोई गंभीर चोट नहीं आई

बस, रह-रहकर दिल दुखता है

हर एक तड़प पर आह निकलती है।

वह हँसता रहा स्वयं पर 

एक व्यंग्यात्मक हँसी 

कहता है- बाबूजी!

सौभाग्यशाली होते हैं वे इंसान

जिन्हें अपनों के द्वारा ठुकरा दिया जाता है

या जो स्वयं समाज को ठुकरा देते हैं

इस दुनिया के नहीं होते 

ठुकराए हुए लोग 

वे अलहदा दुनिया के बाशिन्दे होते हैं,

एकदम अलग दुनिया के।

ठहराव होता है उनमें

वे चरवाहे नहीं होते 

दौड़ नहीं पाते वे 

बाक़ी इंसानों की तरह,

क्योंकि उनमें 

दौड़ने का दुनियावी हुनर नहीं होता 

वे दर्शक होते हैं

पेड़ नहीं होते 

और न ही पंछी होते हैं

न ही काया का रूपान्तर करते हैं 

हवा, पानी और रेत जैसे होते हैं वे!

यह दुनिया 

फ़िल्म-भर होती है मानो उनके लिए 

नायक होते हैं 

नायिकाएँ होती हैं 

और वे बहिष्कृत

तिरस्कृत किरदार निभा रहे होते हैं,

किसने किसका तिरस्कार किया

यह भी वे नहीं जान पाते

वे मूक-बधिर...

उन्हें प्रेम होता है शून्य से 

इसी की ध्वनि और नाद

आड़ोलित करती है उन्हें

उन्हें सुनाई देती है 

सिर्फ़ इसी की पुकार

रह-रहकर 

इस दुनिया से 

उस दुनिया में

पैर रखने के लिए रिक्त होना होता है

सर्वथा रिक्त।

रिक्तता की अनुभूति

पंख प्रदान करती है उस दुनिया में जाने के लिए

जैसे प्रस्थान-बिंदु हो

कहते हुए-

वह फिर हँसता है स्वयं पर 

एक व्यंग्यात्मक हँसी।

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5.धूलभरे दिनों में



धूलभरे दिनों में

न जाने हर कोई क्यों था रुठा ?

बदहवासी में सोए स्वप्न

शून्य की गोद में समर्पित आत्मा

नींद की प्रीत ने हर किसी को था लूटा

चेतन-अवचेतन के हिंडोले पर

दोलायमान मुखर हो झूलता जीवन

मिट्टी की काया मिट्टी को अर्पित

पानी की बूँदों को तरसती हवा

समीप ही धूसर रंगों में सना बैठा था भानु

पलकों पर रेत के कणों की परत

हल्की हँसी मूँछों को देता ताव

हुक़्क़े संग धुएँ को प्रगल्भता से गढ़ता

अंबार मेघों का सजाए एकटक निहारता

साँसें बाँट रहा था उधार।

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