पथ के साथी

Thursday, May 30, 2024

1420-28 अक्टूबर, 2015 की वो रात

 

विजय विक्रान्त  (कैनेडा )

कभी- कभी जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, जिनको समझना इंसानी समझ से बाहर होता है। मेरे साथ भी ऐसा जो कुछ हुआ, उसका अभी तक मेरे पास कोई जवाब नहीं है।


बात 24 जनवरी 2013 की है। उस दिन मेरा 75वाँ जन्मदिन था। पता नहीं, रह- रहकर उस दिन मुझे क्यों अपने पिताजी की बहुत याद आ रही थी? सोच रहा था कि काश वो आज यहाँ होते तो, कितना अच्छा होता। समय के बीतने का पता ही नहीं चला; क्योंकि उन्हें गुज़रे हुए 35 साल से भी ऊपर हो चुके थे। मृत्यु के समय पिताजी की उम्र 77 साल की थी। अचानक न जाने बैठै- बिठाए मेरे दिमाग़ में क्यों यह कीड़ा घर कर गया कि मैं भी 77 साल से ज़्यादा नहीं  जिऊँगा। बात आई- गई हो गई; लेकिन इस दिमाग़ी कीड़े ने परेशान करना शुरू कर दिया। न सोचते हु भी यह ख़्याल बार- बार आने लगा। कई बार तो ऐसा लगने लगा था कि  यह  बात सच होकर ही रहेगी। श्रीमती जी और बच्चों के आगे इस फ़ितूर के ग़ल्ती से मुँह से निकलने की देर नहीं कि मेरी शामत आ जाती थी। हालाँकि दो साल बाद मेरा 77 वाँ जन्मदिन बिना किसी विघ्न के बीत गया, फिर भी न जाने क्यों,  यह  ख़्याल मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा था।

इन्हीं दिनों मुझे ऐसा महसूस होने लगा था कि चलते समय मैं अपना सन्तुलन खो रहा हूँ। समय के साथ- साथ  यह  परेशानी और भी बढ़ती चली गई। डक्टरों से काफ़ी परामर्श करने के बाद आख़िर में हम दोनों ने  यह  फ़ैसला किया कि अब मेरे लि सर्वाइकल सरजरी कराना बहुत ज़रूरी हो गया है। भली भाँति जानते हु भी कि  यह  सरजरी बहुत ख़तरनाक है; मेरे पास इस के अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था। आख़िर 27 अक्टूबर को मेरी सर्ज़री का दिन निश्चित हो गया। जैसे-जैसे 27 अक्टूबर का दिन पास आने लगा वैसे- वैसे ही मेरे मन में रह- रह के  यह  विचार मंडराना शुरू हो गया कि कहीं  यह  सरजरी मेरे मन में जो खटका लगा था उसकी पूर्ति का माध्यम तो नहीं है।

27 अक्टूबर को मेरी सर्जरी हो गई। सर्जरी के थोड़ी देर बाद डॉक्टर ‘मारमर’ ने मेरी श्रीमती जी को आकर समाचार दिया कि ऑपरेशन ठीक हो गया है और चिंता करने की कोई बात नहीं है। उसके बाद मुझे रिकवरी रूम में जाँच के लिए रखा गया। जैसा मुझे बाद में बताया गया था, दो या तीन घण्टे बाद मुझे रिकवरी रूम से हटाकर अस्पताल की चौथी मंज़िल पर ले जाया गया था। उस समय आस्पताल में मुझे अपने बारे में कुछ होश नहीं था; क्योंकि मुझे हर प्रकार की नींद की और दर्द कम करने की दवाइयाँ दे- देकर मेरी तकलीफ़ को कम करने की कोशिश जारी थी। 28 अक्टूबर को भी वही हाल था। हो सकता है कि कुछ समय के लिए थोड़ा बहुत होश ज़रूर आया होगा; लेकिन उसके बाद फिर वही मदहोशी का आलम। शाम होने पर मैं कहने को तो सो गया; लेकिन मैं ही जानता हूँ कि दर्द के मारे मैं कितना तड़प रहा था। दर्द मेरा इतना असहनीय था कि बताना बहुत मुश्किल था। बार- बार मुझे  यह  ख्याल आ रहा था कि कहीं  यह  सब मित्रों और परिवार के लोगों से आख़िरी मुलाकात का वक्त तो नहीं आ गया है।

अचानक मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कमरे में कोई और भी है। ग़ौर से देखा तो सामने पिताजी खड़े थे। थोड़ा और नज़दीक से देखा, तो अपनी वही काले रंग की अचकन पहने मुझे देखकर मुस्करा रहे हैं। देखने में वही सुन्दर रोबीला चेहरा। शीघ्र ही वो मेरे बिस्तर पर आकर बैठ गए। कहा कुछ नहीं, बस मेरी ओर देखते रहे। थोड़ी देर बाद मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ रखकर पूछा-‘‘बहुत दर्द हो रहा है क्या?’’। उन्हें देखकर मैं भौंचक्का सा हो गया फिर भी जैसे- तैसे हिम्मत करके मैंने मुँह खोलकर धीमे से कहा-‘‘पिताजी, आप यहाँ कैसे? चलो अच्छा हुआ आप आ गए। देखो, अब  यह  दर्द सहा नहीं जाता। अब आप आ ही गए हैं, तो मैं आपके साथ ही चलूँगा। इसी दिन का तो इन्तज़ार था मुझे बहुत दिनों से। आप एकदम बिल्कुल सही समय पर मुझे लेने आ गए हैं। अब देरी किस बात की है। चलो, बस जल्दी से चलो और मुझे इस घोर पीड़ा से छुटकारा दिला दो।’’

मेरा इतना कहना था कि वो मेरे और पास आकर सिर पर प्यार से हाथ फेरकर धीरे से बोले। बेटा, ये क्या बेकार की बातें कर रहे हो तुम? ज़रा से दर्द से घबरा गए।  तुम्हारी  यह  तकलीफ़ कोई बड़ी तकलीफ़ नहीं है। कुछ ही दिन की तो बात है,  सब ठीक हो जाएगा। याद करो वो 1969 में दिल्ली के सफ़दरगंज हस्पताल का 48 नम्बर कमरा, जहाँ तुम इस से भी अधिक पीड़ा  में पड़े हुए थे और मैंने इसी तरह तुम्हारे सिर पर प्यार का हाथ रख कर पूछा था- बहुत दर्द हो रहा है क्या?”?         ‘‘वह1969 की तकलीफ़ तो इस तकलीफ़ से भी कहीं ज़्यादा भयंकर थी। बुद्ध जयन्न्ती पार्क में तुम्हें जो चोट लगी थी, उससे निकलते हुए तुमको तकरीबन 9- 10 महीने लग गए थे। यह  तकलीफ़ तो उस तकलीफ़ के आगे कुछ भी नहीं है। फिर  यह  कोई चोट नहीं है। यहाँ तो तुम्हारी एक छोटी- सी परेशानी को डॉक्टरों ने दूर किया है। फ़िक्र मत करो, हिम्मत न हारो। तुम बहुत जल्द ठीक हो जाओगे। और हाँ, अपने दिमाग से इस 77 साल में मरने के फ़ितूर को निकाल कर फेंक दो और पूरा ध्यान अपने ठीक होने में लगाओ।

          विजय बेटा, सब से पहले तो तुम अपने दिमाग से मेरे साथ चलने का ख़्याल छोड़ दो। आज मैं तुम से कुछ और बातें भी करने आया हूँ। मुझे अच्छी तरह से मालूम है कि तुम्हें और मेरी पुत्रवधू को इस बात का बहुत दुख़ है कि हम सब एक साथ इकठ्ठे हो कर नहीं रह पाए। यही नहीं, तुम दोनों को इस बात का भी बहुत मलाल है कि एक बेटा होते हुए भी, तुम दोनो हमें भारत में अकेला छोड़कर कैनेडा आकर बस गए। कई बार तो मैंने तुम दोनों को यह कहते हुए भी सुना है कि इस बात को लेकर तुम्हारे परिवार के ऊपर हम दोनों का शाप है। अरे पगले, कौन माँ बाप अपनी औलाद का बुरा चाहेगा और शाप देगा? हम तुम्हें शाप प देंगे,  यह  तुम ने सोचा भी कैसे? हमारा आशीर्वाद तो तुम सब के लिए सदा रहेगा। जहाँ तक रही हमारे कैनेडा आने की बात, सो तुम दोनों ने तो अपनी तरफ़ से हमें कैनेडा बुलाने की पूरी कोशिश की थी। मैं तो आने तो तैयार था; लेकिन जब तुम्हारी मातीजी ने साफ़ इंकार कर दिया, तो मैं क्या कर सकता था। उन्हें अकेले छोड़कर तो मेरा यहाँ आकर रहना नामुमकिन था।

बेटा, आज मैं वो एक बात दोहराना चाहता हूँ, जो शायद हो सकता है तुमको कभी बताई हो। तुम्हारे पैदा होने से पहले तुम्हारे एक भाई और एक बहन को हम ने बचपन में खो दिया था। जब तुम पैदा हुए, तो मैंने तुम्हारी जन्मपत्री बनवाई और तुम्हारे भविष्य के बारे में पण्डित श्याम मुरारी जी से पूछा। सब देखकर पण्डित जी ने कहा कि लालाजी, और तो सब ठीक है ,लेकिन आपको इस बेटे का सुख नहीं मिलेगा। यह सुनकर मैं बिल्कुल चुप हो गया। किसी से कुछ नहीं कहा; लेकिन मन में एक डर सा बैठ गया कि शायद तुम भी, अपने बहन और भाई की तरह, हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले तो नहीं जाओगे। जब भी तुम हमारी आँखों से दूर होते थे, मुझे इस बात का हमेशा डर रहता था। तुम्हारा कैनेडा जाना पण्डित जी की इस बात की पुष्टि करता है कि हमारी किस्मत में आपस में एक दूसरे का सुख नहीं था। जब भाग्य में यही लिखा है, तो फिर इस में तुम दोनों का क्या कसूर है? भूल जाओ इन सब बेकार की बातों को।

जाने से पहले एक बात तुम्हारे दिमाग से और निकाल देना चाहता हूँ, जिसे सोच सोचकर तुम अपने आपको रात- दिन कोसते रहते हो। याद करो 10 नवम्बर 1977 की सुबह और दिल्ली  में सर गंगाराम हस्पताल का कमरा। तुम्हें यह भी याद होगा कि मेरे एक फेफड़े के पंचर होने के कारण मुझे अम्बाला से दिल्ली इलाज के लिए लाया गया था  और मेरी तबियत अधिक ख़राब होने के कारण एक सप्ताह पहले तुम ईरान से मुझे मिलने आए थे।  बेटा, तुम 9 नवम्बर की रात को मेरे साथ रहे थे। 10 की सुबह को मैंने ही तुम्हें तुम्हारी बहन विजय लक्ष्मी के घर जाकर आराम करने को कहा था। यह सिर्फ़ इसलिए कि तुम  सारी रात सोए नहीं थे और बहुत थके हुए थे। तुम्हें भेजने के थोड़ी देर बाद ही मुझे ऐसा एहसास हुआ कि शायद वो मेरी बहुत बड़ी ग़लती थी; क्योंकि मुझे कुछ ऐसा महसूस होने लगा था कि मेरा अब आख़री समय नज़दीक आ गया है और हुआ भी वही। मैंने चोला तो छोड़ दिया; लेकिन ध्यान मेरा तुम्हारे में ही अटका रहा। बाद में जब तुम सब घर वालों को मेरे जाने की ख़बर मिली, तो सब से अधिक दुख तुम्हें इस बात का हुआ कि आखिरी समय में तुम मुझको अकेला छोड़कर विजय लक्ष्मी के घर क्यों चले गए था। मुझे देह छोड़े हुए 38 साल हो गए हैं; लेकिन इस बात को लेकर तुम अब भी कभी- कभी बहुत परेशान हो जाते हो।  बेटा, इसे भाग्य का चक्कर नहीं कहेंगे तो फिर और क्या कहेंगे। ऐसा ही लिखा था, ऐसा ही होना था और ऐसा ही हुआ। चाहता तो मैं भी यही था कि तुम्हारी गोद में साँस छोड़ूँ; लेकिन विधाता को तो कुछ और ही मंज़ूर था। हम दोनों आपस में बाप- बेटे होते हुए  भी एक दूसरे को सुख नहीं दे पाए। हमें इसी में शान्ति मिलनी चाहिए कि जितना भी हमारा साथ रहा वो प्रेमपूर्ण रहा।

बेटा, जाते- जाते बस यही कहूँगा कि तुम्हारी  यह  तकलीफ़ बहुत जल्दी ठीक हो जाएगी। अब किसी भी बात को लेकर अपने मन को और दुखी मत करो और जितनी भी ज़िन्दगी है, उसे अपने परिवार के साथ हँसी ख़ुशी में बिताओ।

इसके बाद मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा माथा चूमा हो और मैं एकाएक किसी गहरी नींद से जाग गया हूँ। दर्द का अभी भी वही हाल था। फिर भी ऐसा महसूस होने लगा कि शायद कुछ कम हो रहा है। यह दवाइयों का असर था या पिताजी के मेरा माथा चूमने का, मुझे इस प्रश्न के उत्तर की तलाश है।

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Wednesday, May 29, 2024

1419

 अनिमा दास 

 


1

पीड़ा पर्व (सॉनेट-33)

एक त्रिज्या हुई है अंकित तुमसे मेरी परिधि पर्यंत

कई भौगोलिक रेखाओं में जैसे सीमित व अनिश्चित

किंतु नहीं है ज्या की ज्यामिति..दृश्य में शून्य दिगंत...

होता प्रतीत। अतः समीकरण हुआ अपथ में समाधिस्थ।

 

तुमसे न करती प्रश्न..न वितृष्ण मन करता प्रतिवेदन 

संपूर्ण व्यथा की एक लता..होती अंकुरित जीर्ण द्वार से 

रिक्त अंजुरी में लिए भग्न स्वप्न..दीर्घ निदाघ- सा जीवन 

कई विलुप्त नक्षत्र व ग्रहाणु परित्यक्त आकाशगंगा के। 

 

किंतु पारिजात- सी रहती..बन अप्सरा स्व स्वर्ग की 

पक्ष्म पर लिये नैराश्य की निशि.. वक्ष में लिए शोक-गीत 

कि तुम्हारी ज्यामिति में कभी रच जाएगी एक वृत्त भी 

मेरी यह शेष ईप्सा; अतः मेरी प्रथी की कथा गीतातीत।

 

आहा! सुनो..पीड़ा पर्व का सुंदर सुमधुर स्वरित-पद्मबंध 

अवांछित दिवस की अश्रु में कादम्बरी की कुहू मंद-मंद।

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पीड़ा पर्व (सॉनेट-35 )

 

तुम्हे है ज्ञात मेरे कौनसे अंग में भरी कितनी है उष्णता 

मेरी भूमि का कौनसा भाग है अस्पृर्श्य..कौनसा पुष्पसार 

यह भी है ज्ञात कि मेरे अलंकार में है तुम्हारा अहंकार 

मेरा अनुराग-तुम्हारा सामर्थ्य, मेरी पराजय है जय-गाथा।

 

तुम्हें कभी मैं लगती अप्सरा-सी अथवा कभी प्रेयसी-सी 

कभी हूँ तुम्हारी तृषा में अथवा कभी हूँ तुम्हारी मृगतृष्णा 

मेरी सरीसृप-सी रात्रि में जलती है तुम्हारी आदिम घृणा 

अंततः शय्या के कुंचन में नहीं होती मेरी कृश काया भी।

 

मेरे अस्तित्व से सदा होता है  दीप्त तुम्हारा वांछित स्वर्ग 

मैं रहती प्रश्नवाचक- सी एवं भ्रम में रहता है मेरा विश्वास 

किंतु सदा मरु में रहता है निरुत्तर.. दिगंत का अवभास 

मर्यादा व माधुर्य से भिन्न आयु को प्राप्त होता अवसर्ग। 

 

जीवित स्त्रीत्व के पीड़ा पर्व में तुमने कभी देखी है सृष्टि?

जलावर्त सा इस मन में प्रलय किंवा दृगों की तप्त वृष्टि?

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Monday, May 27, 2024

1418

1-अविरल क्रम/ शशि पाधा

 


भोगा न था चिर सुख मैंने

और न झेला चिर दुख मैंने

संग रहा जीवन में मेरे

सुख और दुख का अविरल क्रम

कभी विषम था, कभी था सम

 

किसी राह पर चलते चलते

पीड़ा से पहचान हुई 

अँखियों के कोरों से पिघली

 फिर भी मैं अनजान रही

   

हुआ था मुझको मरुथल में क्यूँ 

सागर की लहरों का भ्रम?

शायद वो था दुख क्रम।

 

कभी दिवस का सोना घोला

पहना और इतराई मैं

और कभी चाँदी की झाँझर

चाँद से लेकर आई मैं

 

 प्रेम हिंडोले बैठ के मनवा

 गाता था मीठी सरगम

 जीवन का वो स्वर्णिम क्रम।

 

पूनो और अमावस का

हर पल था आभास मुझे

छाया के संग धूप भी होगी

इसका भी एहसास मुझे

 जिन अँखियों से हास छलकता

 कोरों में वो रहती नम

 समरस है जीवन का क्रम।

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2- कुछ पल/ सुरभि डागर 

 


कुछ पलों में 

बड़ा मुश्किल होता है 

भावों को शब्दों में पिरोना,

बिखर जाते हैं कई बार

हृदयतल में 

मानों धागे से मोती 

निकल दूर तक

छिटक रहे हों।

अनेकों प्रयास कर 

समेटने के; परन्तु 

छूट ही जाते कुछ 

मोती और

तलाश   रहती है बस

धागे में पिरोकर

माला बनाने की

रह जाती है बस अधूरी-सी कविता

कुछ गुम हुए 

मोतियों के बिना ।

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3- निधि कुमारी सिंह

 


1-ये सफ़र न खत्म होगा

 

ये सफऱ न खत्म होगा 

आज हकीकत में 

तो कल यादो में 

ये सिलसिला जारी रहेगा 

क्योंकि ख्वाबों में ही सही 

पर अकसर हमारी मुलाकातें होती रहेंगी 

फासले तो बेशक़ रहेंगे 

पर कभी ये सफ़र न खत्म होगा 

कुछ यादों को हमने समेटा है 

और कुछ यादें, जिन्हें आपने सँजोया है 

उन्हीं को सँभालते हुए 

ये सफऱ यों ही बरकरार रखेंगे 

न सोचना कि यह सफऱ यहीं तक था

क्योंकि ये सफऱ न खत्म होगा 

सफ़र की यह दहलीज ही ऐसी है 

जहाँ सफलता की मुस्कान है 

पर फिर भी नम हैं दोनों की आँखें

क्योंकि पल है यह विदाई का 

हम दूर रहकर भी पास रहेंगे 

एक दूजे के यादों में जिएँगे 

यों ही मुस्कुराते रहेंगे हम और आप 

कभी याद करके तो कभी याद आकर 

परन्तु ये सफ़र कभी खत्म न होगा ।

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Saturday, May 18, 2024

1417-भक्ति की महिमा

विजय जोशी

 

- जब भक्ति भोजन में प्रवेश करती है,

भोजन प्रसाद बन जाता है।

- जब भक्ति भूख में प्रवेश करती है,

भूख तेज़ हो जाती है,

- जब भक्ति जल में प्रवेश करती है,

जल चरणामृत बन जाता है।

- जब भक्ति यात्रा में प्रवेश करती है,

यात्रा तीर्थयात्रा बन जाती है,

- जब भक्ति संगीत में प्रवेश करती है,

संगीत कीर्तन बन जाता है।

- जब भक्ति घर में प्रवेश करती है,

घर मंदिर बन जाता है,

- जब भक्ति कर्म में प्रवेश करती है,

क्रियाएँ सेवाएँ बन जाती हैं।

- जब भक्ति कार्य में प्रवेश करती है,

काम बन जाता है कर्म,

और

- जब भक्ति मनुष्य में प्रवेश करती है,

इंसान इंसान बन जाता है।

 

Thursday, May 16, 2024

1417-दो कविताएँ

 1- ताप सघन है 

निर्देश निधि

 


ताप सघन है 

गौरैया बना रही है रेत में समंदर

नहा रही है डूब- डूब  

रख दूँ परात में पानी  

कि सूरज का ताप सघन है 

 

सरसों की पीली कनातें सिमट गई हैं खेत से 

अब आ पसरी हैं घेर की गोदी में 

उसके महीन, पीले दानों वाली नदी 

कि सूरज का ताप सघन है 

 

खेत की मेढ़ बाँधते 

बाबा की कनपटी से रिस रहा है पसीना 

या है यह मेहनत का अजस्र सोता 

सिर बँधा गमछा भिगो दूँ  

कि सूरज का ताप सघन है 

 

सरसों की सूखी लकड़ियों में अम्मा

सेक रही है पानी के हाथ की रोटियाँ 

उसके गालों पर उग आए हैं दो दहकते सूरज 

लगा दूँ प्यार की बरफ उन पर

कि सूरज का ताप सघन है 

 

बाबा ने बो दिए हैं बीज ईख के 

धरती की कोख में 

सह नहीं पाएँगे वे घुटन देर तक 

जल्दी ही चमकाएँगे मुँह कुलबुलाते, इतराते 

धरती की सतह पर 

कि सूरज का ताप सघन है 

 

सोना बन गई हैं गेहूँ की सब बालियाँ 

करधनी बनकर सज गई हैं खेत के कूल्हे पर 

अब भरेंगे भंडार माँ के 

ड़ौंची तले की ठंडी दूब पर पसरा रहेगा दिन भर शेरू 

कि सूरज का ताप सघन है ।

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2-श्रद्धा और मनु की संतानों

- निर्देश निधि

 

 

श्रद्धा और मनु की संतानों 

इस निरीह पृथ्वी पर तनिक दया करो 

 

तुम बीज की तरह फूटे इसी की कोख में 

इसी की कोख में रखकर परमाणु बम 

करते हो इसका अंतस् घायल 

 

इस ग्रहों से लदे ब्रह्मांड में सदियों से भटक रहे हो 

पर नहीं खोज पाए पृथ्वी की कोई दूसरी बच्ची 

 

कोई दूसरी सहोदरा, कोई दूसरी सखी 

दया करो इस इकलौती पर 

दया करो खुद पर

श्रद्धा और मनु की संतानों 

कुछ तो दया करो अपनी आने वाली संततियों पर भी

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Tuesday, May 14, 2024

1416-दीक्षांत समारोह : आडंबर का अंत

 

विजय जोशी

पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल  

       शिक्षा एक तपस्या है। साध्य है, साधन नहीं। इसे पूरे मन से समर्पण के साथ जीने का मानस ही मस्तिष्क की


स्वस्थता का सूचकांक है। इस क्षेत्र में भोंडे प्रदर्शन या समय की बर्बादी का कोई स्थान नहीं। आवश्यकता है, तो हर पल के सार्थक उपयोग की। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ छात्रों के आधे दिन तो कालेज की छुट्टियोंपरीक्षाओं एवं समारोहों में ही गुजर जाते हैं पश्चिम के सर्वथा विपरीत, जहाँ मुझे अमेरिका के कोलंबिया स्थित एक विश्वविद्यालय –‘यूनिवर्सिटी ऑफ मिसौरी के दीक्षांत समारोह में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। एक अविस्मरणीय अनुभव जो इस प्रकार था। 
1-आयोजन संध्या 6 बजे आयोजित किया गया था। कारण, यह कि दिन में सब अपने निर्धारित कार्य करते हैं; ताकि आम जन को कोई दिक्कत न हो। समारोह को दैनिक सामान्य कार्य- प्रणाली में बाधक बनना अस्वीकार्य है।

2- कार्यक्रम का समय प्रबंधन अद्भुत। पहले 15 मिनट सोशलाइज़िंग के (6.15 – 6.30)फिर डिनर (6.30 – 7.00) एवं तत्पश्चात् समारोह का शुभारंभ।

3-डिनर सर्विस अनुपम। पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर सबने एक लाइन में लगाकर अपनी प्लेट सजाई। कोई वी आई पी नहीं। सब एक समान।

4-भोजन की प्लेट लेकर जब सजी सजाई टेबिल पर पहुँचे, तो पहले से कार्यक्रम के विवरण  का एक ब्रोशर रखा पाया, जिसमें उपाधि प्राप्तकर्ताओं के साथ उनके गाइड के नाम अंकित थे।

5-न कोई मुख्य अतिथि और न ही वी आई पी की फौज। केवल विश्वविद्यालय के प्रोफेसरछात्र व स्टाफ।

6- मंच जमीन से लगभग दो फीट ऊँचा, सुरुचिपूर्ण तथा अनावश्यक सजावट से रहित एक पोडियम सहित। मंच पर कोई कुर्सी टेबल नहीं।

7- कोरी भाषणबाजी से परहेज। संचालनकर्ता महिला द्वारा पूरी तरह प्रोफेशनल संचालन, अनावश्यक अतिरंजना से परे।

8- हर शोधार्थी को गाइड से साथ मंच पर आमंत्रित करते हुए उनकी उपलब्धि की प्रस्तुति और उपाधि प्रदान करने की रस्म।

9- सभागार में उपस्थित अभिभावकों एवं जन समूह द्वारा खड़े होकर करतल ध्वनि से अभिनंदन।

10-कार्यक्रम के दौरान वातावरण पूरी तरह दोस्ताना एवं अनौपचारिक। लोग बेहद सज्जनसभ्य एवं सौम्य।

11 कार्यक्रम तयशुदा समय, यानी ठीक 9.15 पर समाप्त। सब आमंत्रित अतिथियों द्वारा बगैर किसी धका-मुक्की  के अपने वाहनों द्वारा खुद अपनी कार चलाकर घर के लि प्रस्थान, ताकि अगली सुबह समय से अपने कार्यस्थल पर पहुँच सकें।

        अब इसकी तुलना कीजि अपने यहाँ से। हफ्तों पूर्व सब काम बंदभव्य मंचअनावश्यक खर्च। पूरा सम्मान नेता, मंत्री या अफसरों कोशोधार्थी दोयम दर्जे पर। शिक्षा जैसी पावन तथा पवित्र हमारी सारी शिक्षा व्यवस्था तो चाटुकारिता की बंधक। एक दौर के गुरुकुल सदृश्य नई पीढ़ी को गढ़ने का माद्दा रखने वाले  सम्माननीय शिक्षक तो अब व्यक्तिगत स्वार्थ के परिप्रेक्ष्य में खुद बन गए हैं नेता और ब्यूरोक्रेसी के चरणदास सब कुछ राग दरबारी संस्कृति को समर्पित।  काश अब हम भी कुछ सीख सकें। रामायण काल के उस समय की कल्पना को फिर साकार कर सकने का सपना सँजो सकें, जब होता था ऐसे :  

गुरु गृह गए पढ़न रघुराई

अल्प काल विद्या सब पाई

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