पथ के साथी

Saturday, May 18, 2024

1417-भक्ति की महिमा

विजय जोशी

 

- जब भक्ति भोजन में प्रवेश करती है,

भोजन प्रसाद बन जाता है।

- जब भक्ति भूख में प्रवेश करती है,

भूख तेज़ हो जाती है,

- जब भक्ति जल में प्रवेश करती है,

जल चरणामृत बन जाता है।

- जब भक्ति यात्रा में प्रवेश करती है,

यात्रा तीर्थयात्रा बन जाती है,

- जब भक्ति संगीत में प्रवेश करती है,

संगीत कीर्तन बन जाता है।

- जब भक्ति घर में प्रवेश करती है,

घर मंदिर बन जाता है,

- जब भक्ति कर्म में प्रवेश करती है,

क्रियाएँ सेवाएँ बन जाती हैं।

- जब भक्ति कार्य में प्रवेश करती है,

काम बन जाता है कर्म,

और

- जब भक्ति मनुष्य में प्रवेश करती है,

इंसान इंसान बन जाता है।

 

Thursday, May 16, 2024

1417-दो कविताएँ

 1- ताप सघन है 

निर्देश निधि

 


ताप सघन है 

गौरैया बना रही है रेत में समंदर

नहा रही है डूब- डूब  

रख दूँ परात में पानी  

कि सूरज का ताप सघन है 

 

सरसों की पीली कनातें सिमट गई हैं खेत से 

अब आ पसरी हैं घेर की गोदी में 

उसके महीन, पीले दानों वाली नदी 

कि सूरज का ताप सघन है 

 

खेत की मेढ़ बाँधते 

बाबा की कनपटी से रिस रहा है पसीना 

या है यह मेहनत का अजस्र सोता 

सिर बँधा गमछा भिगो दूँ  

कि सूरज का ताप सघन है 

 

सरसों की सूखी लकड़ियों में अम्मा

सेक रही है पानी के हाथ की रोटियाँ 

उसके गालों पर उग आए हैं दो दहकते सूरज 

लगा दूँ प्यार की बरफ उन पर

कि सूरज का ताप सघन है 

 

बाबा ने बो दिए हैं बीज ईख के 

धरती की कोख में 

सह नहीं पाएँगे वे घुटन देर तक 

जल्दी ही चमकाएँगे मुँह कुलबुलाते, इतराते 

धरती की सतह पर 

कि सूरज का ताप सघन है 

 

सोना बन गई हैं गेहूँ की सब बालियाँ 

करधनी बनकर सज गई हैं खेत के कूल्हे पर 

अब भरेंगे भंडार माँ के 

ड़ौंची तले की ठंडी दूब पर पसरा रहेगा दिन भर शेरू 

कि सूरज का ताप सघन है ।

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2-श्रद्धा और मनु की संतानों

- निर्देश निधि

 

 

श्रद्धा और मनु की संतानों 

इस निरीह पृथ्वी पर तनिक दया करो 

 

तुम बीज की तरह फूटे इसी की कोख में 

इसी की कोख में रखकर परमाणु बम 

करते हो इसका अंतस् घायल 

 

इस ग्रहों से लदे ब्रह्मांड में सदियों से भटक रहे हो 

पर नहीं खोज पाए पृथ्वी की कोई दूसरी बच्ची 

 

कोई दूसरी सहोदरा, कोई दूसरी सखी 

दया करो इस इकलौती पर 

दया करो खुद पर

श्रद्धा और मनु की संतानों 

कुछ तो दया करो अपनी आने वाली संततियों पर भी

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Tuesday, May 14, 2024

1416-दीक्षांत समारोह : आडंबर का अंत

 

विजय जोशी

पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल  

       शिक्षा एक तपस्या है। साध्य है, साधन नहीं। इसे पूरे मन से समर्पण के साथ जीने का मानस ही मस्तिष्क की


स्वस्थता का सूचकांक है। इस क्षेत्र में भोंडे प्रदर्शन या समय की बर्बादी का कोई स्थान नहीं। आवश्यकता है, तो हर पल के सार्थक उपयोग की। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ छात्रों के आधे दिन तो कालेज की छुट्टियोंपरीक्षाओं एवं समारोहों में ही गुजर जाते हैं पश्चिम के सर्वथा विपरीत, जहाँ मुझे अमेरिका के कोलंबिया स्थित एक विश्वविद्यालय –‘यूनिवर्सिटी ऑफ मिसौरी के दीक्षांत समारोह में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। एक अविस्मरणीय अनुभव जो इस प्रकार था। 
1-आयोजन संध्या 6 बजे आयोजित किया गया था। कारण, यह कि दिन में सब अपने निर्धारित कार्य करते हैं; ताकि आम जन को कोई दिक्कत न हो। समारोह को दैनिक सामान्य कार्य- प्रणाली में बाधक बनना अस्वीकार्य है।

2- कार्यक्रम का समय प्रबंधन अद्भुत। पहले 15 मिनट सोशलाइज़िंग के (6.15 – 6.30)फिर डिनर (6.30 – 7.00) एवं तत्पश्चात् समारोह का शुभारंभ।

3-डिनर सर्विस अनुपम। पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर सबने एक लाइन में लगाकर अपनी प्लेट सजाई। कोई वी आई पी नहीं। सब एक समान।

4-भोजन की प्लेट लेकर जब सजी सजाई टेबिल पर पहुँचे, तो पहले से कार्यक्रम के विवरण  का एक ब्रोशर रखा पाया, जिसमें उपाधि प्राप्तकर्ताओं के साथ उनके गाइड के नाम अंकित थे।

5-न कोई मुख्य अतिथि और न ही वी आई पी की फौज। केवल विश्वविद्यालय के प्रोफेसरछात्र व स्टाफ।

6- मंच जमीन से लगभग दो फीट ऊँचा, सुरुचिपूर्ण तथा अनावश्यक सजावट से रहित एक पोडियम सहित। मंच पर कोई कुर्सी टेबल नहीं।

7- कोरी भाषणबाजी से परहेज। संचालनकर्ता महिला द्वारा पूरी तरह प्रोफेशनल संचालन, अनावश्यक अतिरंजना से परे।

8- हर शोधार्थी को गाइड से साथ मंच पर आमंत्रित करते हुए उनकी उपलब्धि की प्रस्तुति और उपाधि प्रदान करने की रस्म।

9- सभागार में उपस्थित अभिभावकों एवं जन समूह द्वारा खड़े होकर करतल ध्वनि से अभिनंदन।

10-कार्यक्रम के दौरान वातावरण पूरी तरह दोस्ताना एवं अनौपचारिक। लोग बेहद सज्जनसभ्य एवं सौम्य।

11 कार्यक्रम तयशुदा समय, यानी ठीक 9.15 पर समाप्त। सब आमंत्रित अतिथियों द्वारा बगैर किसी धका-मुक्की  के अपने वाहनों द्वारा खुद अपनी कार चलाकर घर के लि प्रस्थान, ताकि अगली सुबह समय से अपने कार्यस्थल पर पहुँच सकें।

        अब इसकी तुलना कीजि अपने यहाँ से। हफ्तों पूर्व सब काम बंदभव्य मंचअनावश्यक खर्च। पूरा सम्मान नेता, मंत्री या अफसरों कोशोधार्थी दोयम दर्जे पर। शिक्षा जैसी पावन तथा पवित्र हमारी सारी शिक्षा व्यवस्था तो चाटुकारिता की बंधक। एक दौर के गुरुकुल सदृश्य नई पीढ़ी को गढ़ने का माद्दा रखने वाले  सम्माननीय शिक्षक तो अब व्यक्तिगत स्वार्थ के परिप्रेक्ष्य में खुद बन गए हैं नेता और ब्यूरोक्रेसी के चरणदास सब कुछ राग दरबारी संस्कृति को समर्पित।  काश अब हम भी कुछ सीख सकें। रामायण काल के उस समय की कल्पना को फिर साकार कर सकने का सपना सँजो सकें, जब होता था ऐसे :  

गुरु गृह गए पढ़न रघुराई

अल्प काल विद्या सब पाई

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Thursday, May 9, 2024

1415-कृष्णा वर्मा की कविताएँ

 

कृष्णा वर्मा 

1-स्त्री

 


अधखुले दरवाज़े पर खड़ी स्त्री 

केवल इंतज़ार ही नहीं करती 

वह भरती है भीतर उजालों को 

महसूसती है

स्वछंद उड़ती हवाओं के साथ 

लहराकर अपना आँचल

करती है हसास पवन की

उन्मुक्तता का 

भूल जाती है उस पल 

पाँव में पड़ी पाजेब और बिछुए 

दहलीज़ के पार खड़ी स्त्री 

हो जाती है तितली- सी 

विचर कर क्यारी-क्यारी 

भर लाती है सुवासित साँसें 

पंछी- सी उड़कर छू आती है 

अपने आसमानों का छोर 

मन और हृदय करके एक साथ  

बढ़ाती है अंत:करण

का विस्तार 

आलोकित आह्लादित अंतर्मन से 

मुड़कर दहलीज़ के इस पार

महकाती है दरो- दीवार

टाँककर आन्नदानुभूतियाँ।

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2-संकल्प

 

राह में रोड़े बिछाए 

तो किसी ने काँच की किरचें 

किसी ने क्रोध दिलाकर 

कोशिश की लहू तपाने की

कोई जुटा रहा 

मेरे मन को बदगुमान करने को

तो कोई रिश्तों की परिभाषा  

उलटने की कोशिशों में 

कुछ मेरी आँखों में सागर उतारने को 

करते रहे भगीरथ प्रयास 

मेरी दृड़ता की ढिठाई ने 

अपनी आँखों के आसपास 

बाँध लिया घोड़े की भाँति पट्टा 

और मेरा लक्ष्य 

बनाने लगा पहाड़ में रास्ता

मेरा संकल्प  

बिना कोई परवाह किए

फिसलन भरी राहों पर  

बढ़ाने लगा क़दम और 

मिलती गईं राह में कई नेक आत्माएँ 

जो बनीं मेरे एकाकीपन की सराय

जिनकी आँखों में जलते

अपनापे के चिराग़ों ने कर दिया रोशन 

मेरी धुँधली राहों को।

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3-एहसास

 

मिल जाया कर 

यूँही कभी-कभार 

सरे -राह किसी मोड़ पर 

तुझे देखकर जीवित होने का 

भरम बना रहता है

देख लूँ तुझे तो 

पुरसुकून हो जाती है 

मेरी परेशान सोच

दिन हो जाते हैं ख़ुशनुमा 

और रातें सुखवंत  

मिले जो तेरी एक झलक   

तो मुड़ आते हैं फिर से 

वो बीते संदली पल 

ख़ूबसूरत शामें 

शाम के धुँधलके में 

बुझते सूरज की नरम लाली 

और लाली में दमकते हम 

तेरे लहराते दुपट्टे को देख

याद आती है मिन्नी-मिन्नी महकती रुत

रुत की अँगड़ाइयाँ 

कोमल किसलय 

कलियों कीचटकन

भौरों की दीवानगी

रूह को तर करते  

महकी हवाओं के झकोरे

और क़ुदरत को सराहते हम 

मिल जाया कर ना यूँही कभी-कभी 

तुझे देखे से खिल जाता है 

मन का मौसम

निगाहें करती है सौ-सौ बार 

आँखों का शुक्रिया

नींद में डूबें आँखें तो 

तैर आते हैं तेरे स्वप्न 

रंग भरने लगती हैं उनमें 

कल्पनाओं की अप्सराएँ 

उँगली बनके कलम  

उगाने लगती है शब्द 

शब्द-सृजन का अखंड प्रवाह 

रंग देता है मन के पन्ने

बेतार साज़ और अनजाने सुरों से 

गूँज उठता है अनहद नाद 

खड़े पानियों में आ जाती है रवानी 

रोशनी से भर जाता हूँ

सब धुला-धुला निखरा-निखरा नज़र आता है

आ जाया कर अच्छा लगता है 

कभी-कभी मिल जाया कर तू   

किसी मोड़ पर किसी राह पर। 

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Saturday, May 4, 2024

1414-दया धर्म का मूल है

  विजय जोशी  


 पूर्व ग्रुप महाप्रबंधकभेलभोपाल (म. प्र.)

जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू

सो तेहि मिलहि न कछु संदेहु

धर्म कोई शिष्टाचार रूपी पाखंड का प्रतिरूप नहीं है;  इसीलिए तो शास्त्रों में उसकी तदनुसार व्याख्या भी की गई है - धारयति इति धर्मम् अर्थात् जो भी धारण करने योग्य है, वह धर्म है। आदमी जब बड़ा होता है, तो दूसरों को तुच्छ तथा स्वयं को श्रेष्ठ न माने। यह मूल तत्त्व है। वस्तुत: उसे तो ईश्वर का आभारी होना चाहिए कि उसे सेवा का अवसर प्राप्त हुआ।

दया धर्म का मूल हैपाप मूल अभिमान

तुलसी दया न छांड़िये, जब लग घट में प्राण।

धीर गंभीर राम के मन में प्रजाजनों के लिये दया कूट कूट कर भरी हुई थी; इसीलिए उन्हें दया निधान भी कहा गया है। उन्होंने कभी भी सेवकों को आहत नहीं किया; वरन अपनी आकांक्षा को दबाकर उनका मान रखा। उनकी दृष्टि में तो न कोई छोटा है और न कोई बड़ा। न कोई नीच और न कोई उच्च। शबरी एवं केवट इसके साक्षात् उदाहरण हैं। वन गमन के दौरान जब वे गंगा तट पर आए, तो नदी पार करने हेतु उन्हें नाविक की आवश्यकता पड़ी।  उन्होंने केवट से निवेदन कियालेकिन उन्हीं के भक्त केवट ने प्रथम दृष्ट्या उनका अनुरोध स्वीकार नहीं किया

माँगी नाव न केवटु आना

 कहई तुम्हार मरमु मैं जाना

चरन कमल रज कहुं सबु कहई

 मानुष कराने मूरि कछु अहई

केवट ने कहा -आपकी चरण धूल से तो अहल्या पत्थर से स्त्री हो गई थी। फिर मेरी नाव तो काठ की है एवं मेरी आजीविका का एकमात्र सहारा ते। यदि यह स़्त्री हो गई, तो मैं जीवन निर्वाह कैसे करूँगा। प्रसंग बड़ा ही मार्मिक था। केवट ने आगे कहा कि जब तक मैं आपके पैर पखार न लूँनाव नहीं लाऊँगा। राम बात का मर्म समझ गए और सेवक की बात शिरोधार्य करते हुए बोले -

कृपासिंधु बोले मुसुकाई

 सोई करूँ जेहिं तव नाव न जाई

बेगि आनु जब पाय पखारू

होत विलंबु उतारहि पारू

बात का महत्त्व देखिए जिनके स्मरण मात्र से मनुष्य भवसागर पार उतर जाते ,  जिन्होंने 3 पग में पूरे ब्रह्मांड को नाप लिया थावे ही भगवान केवट जैसे साधारण मनुष्य को निहोरा कर रहे हैं और अब आगे देखिए, यह सुन केवट के मन में कैसे आनंद की हिलोरें आकार लेने लगीं और वह चरण पखारने लगा।

 

अति आनंद उमगि अनुरागा

चरण सरोज पखारन लागा

पार उतारकर केवट ने दण्डवत्प्रणाम किया और जब राम की इच्छा जान सीता ने उतराई स्वरूप रत्नजड़ित अँगूठी देने का प्रयास किया, तो उसने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया और कहा - आज मेरी दरिद्रता की आग बुझ गई है। मैंने बहुत समय तब मजदूरी की और विधाता ने आज भरपूर मजदूरी दे दी है। हे नाथ आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरे

 दीनदयाल अनुग्रह चौरे

फिरती बार मोहिजो देबा

 सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा

मित्रो! यही है दया का सच्चा स्वरूप, जो प्रेम में परिवर्तित हो सारे भेद मिटा देता है। आदमी के मन में गहरे उतरकर दिल को दिल से जोड़ देता है। न कोई लेन देनन कोई स्वार्थ केवल निर्मलनिस्वार्थ प्रेम। सारे धर्मों का यही संदेश है

अत्याचारी कंस बन मत ले सबकी जान

दया करे गरीब पर वो सच्चा बलवान

-0-v.joshi415@gmail.com