पथ के साथी

Monday, July 12, 2021

1114

1- भीकम सिंह

पेड़-1

 


पेड़ की बात

बड़ी बात है

पर्यावरण में

कार्बन-हरण में

और मुस्कानों  में 

 

मानव

जिन्दा है

अस्तित्व के साथ

आज -

पेड़ों की वजह से

सही मायने में  

-0-

 

पेड़-2

 

 

पेड़ बेगुनाह

मगर बन्दी हैं

दिन-माह,

वर्षों से

किसी पहाड़

अथवा

मैदान पर,

पत्तियों में बस

एक ही मलाल 

 

आँधी क़ातिल




पत्तियों को चूमा

मोड़ा

तोड़ा

टहनियों को

भरे के बाहों  में

कहीं का ना छोड़ा

फिर भी

हो ग बहाल 

-0-

 

पेड़-3

 

 

इस वर्ष

बड़ी तेजी से

लौटा है पतझड़

बसंत का

हकदार बनने

बदलने पेड़ों के खाते 

 

रोष

नाराज़गी

बेचारगी

मुस्कुराहट

ॠतुऐं सब दिखा चुकी

मौसम के नाते  

 

पेड़ों का

मन

हुआ विवश

पत्तियों ने भी

ओढ़ लिये

मुरझाए-से छाते 

-0-

 

2-कृष्णा वर्मा

1-अनोखी यात्रा


लेखनी को विश्राम नहीं

यह कैसी यात्रा

राहत का कोई निशान नहीं

भूली है क़लम आज

मंगल -कलश पर

सुखपूरित शब्दों से

स्वस्तिक रचना

पल-पल पूर रही

पीड़ा बेबसी में डूबे

विनम्र श्रद्धांजलियों- संग

ओम शांति के काले आखर

भूल गई लिखना

गुलाबी पंक्तियाँ

न छन्द, शिल्प का ख़्याल

न मात्राओं की गणना

निरंतर उडेल रही

खारी अनुभूतियों से रची

समीक्षाएँ

कैसे वाद-विवादों में आज

घेरा विक्षिप्त हवाओं ने

मरे सब मेले तमाशे

रोए आवारगी

अपनों से भयभीत हुए

हँसी ठठ्ठे -कहकहे

कौन जाने कब भरेगा

काल का उदर

कब थमेंगी कलमें

परसने से अवसाद।

-0-

2-रस्म-रिवाज़

 

किस संगदिल की मानसिकता ने

गढ़े होंगे यह रस्म-रिवाज़

शादी के नाम का ठप्पा एक अंगूठी

जिसे पहनाकर सिकोड़ दिए जाते हैं

उस नामुराद तंग दायरे में

स्त्री के ख़्वाब उसकी चाहतें उसका वजूद

कई बार नज़रों में चुभती हुई को

उतार फेंकने की चाह

यकायक कर देती है दिल को ख़ौफजदा

सहमकर स्वयं ही रुक जाता है

निगोड़ा दाया हाथ

स्त्री ने ही तो दिए स्त्री को

थरथराते कमज़ोर संस्कार

सुना-सुनाकर अपशकुनी के किस्से

इस छोटे से पिंजरे में कैसे

ख़ुद को तोड़ मरोड़कर

पूरी तरह से समाई होने को

मिटाती चलती है अपने वजूद के निशान

इस निर्जीव पत्थर जड़े छल्ले को

क्यों दे दी इतनी औक़ात

जो पल-पल याद दिलाती है

बंधन में बँधी स्त्री को उसकी औक़ात।

2

प्रत्येक परिस्थितियों के गर्भ से

लम्हा-लम्हा उगते विचारों को

सँजोती पिरोती हूँ

अमुक कथन में

तो क्यों तिरछा-सा कुछ

शूल-सा कसकता है

धुँआता है सुलगता है

भीतर अंगार- सा

साँसों की पसली पर

दुख की आप्त व्यथा

के दबाव से

घिरने लगती हूँ

सघन अंधकार में।