पथ के साथी

Saturday, March 4, 2023

1298-क्षणिकाएँ

 -रश्मि विभा त्रिपाठी


1

वक्त ने खेला

ये कहकरके

मेरे साथ

खेल गंदा-

' देख!

अब तेरे ही अपने कसेंगे

तेरे गले में फंदा। '

2

अपना समझकर

खोला था जिसके आगे

दिल का हर राज

फिर

एक दिन वही

झपट पड़ा मुझपर

बनकरके बाज।


3

कर-करके

'मेरा-मेरा'

चले गए जो

उठाकर अपना डेरा

एक आदमी भी

नहीं पहुँचा

उनके घर

करने को फेरा।

4

बुरे वक्त की

बस

यही है

एक अच्छी बात,

इसी दौरान

पता चलती है

हरेक की औकात।

5

माना

मेरे संग रहा

वक्त का

बर्ताव

बेहद खराब,

फिर भी खुश हूँ

कि

इसने

खींच दिए

चेहरों से नकाब।

6

उधर

वक्त के खेल में

आदमी को

मिली

शिकस्त करारी,

इधर

डुगडुगी बजाते

उसीके अपने

बन बैठे मदारी।

7

पहले के लोग मानते थे-

घर में चार बर्तन हों

तो कभी-कभी खटकते हैं!

अब पल में

छोटी—सी बात पर

एक-दूसरे पर चलते मुकदमे

परिवार पूरी जिंदगी

अदालतों की चौखट पर

अपना सर पटकते हैं

बच्चे भटकते हैं।

8

बड़े-बूढ़ों का मत था

कि प्रेम में भेद

पाप है

इस नीति पर चलने का

मुझे तो पश्चाताप है

मेरा अपना

जो आज दुश्मन बना

उसके सामने दिल का शीशा रखना

कितना गलत था!

9

आजकल

बेहतर है, मत कहना

जाकर

किसी से

मन की बात

वरना

वही बैठ जाएगा

तुम्हारे रास्ते में लगाकर घात।

10

सच बताना-

मैंने तुम्हें और तुमने मुझे

अपना माना

अपराध है?

साधकर बैठा है जमाना

अपनी ओर निशाना।

11

वक्त

जब नहीं रहा

मेरे संग,

मैंने

अपनों को

देखा

बदलते रंग।

12

कभी आजमाना हो

तो

झूठमूठ की

करना

थोड़ी—सी खिटपिट

फिर देखना

रिश्ते

रिश्ते नहीं-

हैं गिरगिट।