पथ के साथी

Monday, May 18, 2015

ग़ायब हुई मिठास।




डॉरामनिवास मानव, डीलिट्

1

 चाहे घर में दो जने, चाहे हों दसपाँच।
रिश्तों में दिखती नहीं, पहले जैसी  आँच।।
2
रिश्ते सब इन लॉ हुए, क्या साला, क्या सास।
पड़ी गाँपरगाँठ है, ग़ायब हुई मिठास।।
3
हर रिश्ते की नींव की, दरकी आज ज़मीन।
पतिपत्नी भी अब लगें, जैसे भारतचीन।।
4
न ही युद्ध की घोषणा, और न युद्धविराम।
शीतयुद्ध के दौरसे, रिश्ते हुए तमाम।।
5
रिश्तों में है रिक्तता, साँसों में सन्त्रास।
घर में भी अब भोगते, लोग यहाँ वनवास।।
6
स्वारथ जी जब से हुए, रिश्तों के मध्यस्थ
रिश्ते तब से हो गए, घावों के अभ्यस्त।।
7
अब ऐसे कुछ हो गए, शहरों में परिवार।
बाबूजी चाकर हुए, अम्मा चौकीदार।।
8
माँ मूरत थी नेह की, बापू आशीर्वाद।
बातें ये इतिहास की, नहीं किसी को याद।।
9
समकालिक सन्दर्भ में, मुख्य हुआ बाज़ार।
स्वार्थपरता बनी तभी, रिश्तों का आधार।।
10
क्यों रिश्ते पत्थर हुए, गया कहाँ सब ताप।
पूछ रही संवेदना, आज आप से आप।।
11
खंडितआहत अस्मिता, उखडा़उखड़ा रंग।
नई सदी का आदमी, कैसेकैसे ढंग।।
12
तुमने हमको क्या दिया, अरी सदी बेपीर।
छुरी, मुखौटे, कैंचियाँ, और विषैले तीर।।
13
नवविकास के नाम पर, मिले निम्न उपहार।
बेचैनी, बेचारगी, उलझन और उधार।।
14
मन गिरवी, तन बँधुआ, साँसें हुई गुलाम।
घुटन भरे इस दौर में, जीयें कैसे राम।।