डॉ•रामनिवास ‘मानव’,
डी•लिट्•
1
चाहे घर
में दो जने, चाहे
हों दस–पाँच।
रिश्तों
में दिखती नहीं, पहले
जैसी आँच।।
2
रिश्ते
सब ‘इन लॉ’ हुए,
क्या साला, क्या सास।
पड़ी गाँठ–पर–गाँठ
है, ग़ायब
हुई मिठास।।
3
हर
रिश्ते की नींव की, दरकी
आज ज़मीन।
पति–पत्नी भी अब लगें,
जैसे भारत–चीन।।
4
न ही
युद्ध की घोषणा, और न
युद्ध–विराम।
शीत–युद्ध के दौर–से, रिश्ते हुए तमाम।।
5
रिश्तों
में है रिक्तता, साँसों
में सन्त्रास।
घर में
भी अब भोगते, लोग यहाँ वनवास।।
6
‘स्वारथ’ जी जब
से हुए, रिश्तों के मध्यस्थ।
रिश्ते
तब से हो गए, घावों
के अभ्यस्त।।
7
अब ऐसे
कुछ हो गए, शहरों
में परिवार।
बाबूजी
चाकर हुए, अम्मा
चौकीदार।।
8
माँ
मूरत थी नेह की, बापू आशीर्वाद।
बातें ये
इतिहास की, नहीं
किसी को याद।।
9
समकालिक
सन्दर्भ में, मुख्य
हुआ बाज़ार।
स्वार्थपरता
बनी तभी, रिश्तों
का आधार।।
10
क्यों
रिश्ते पत्थर हुए, गया कहाँ सब ताप।
पूछ रही
संवेदना, आज आप
से आप।।
11
खंडित–आहत अस्मिता,
उखडा़–उखड़ा
रंग।
नई सदी
का आदमी, कैसे–कैसे ढंग।।
12
तुमने
हमको क्या दिया, अरी
सदी बेपीर।
छुरी, मुखौटे, कैंचियाँ, और विषैले तीर।।
13
नव–विकास के नाम पर,
मिले निम्न उपहार।
बेचैनी, बेचारगी, उलझन और उधार।।
14
मन गिरवी, तन बँधुआ, साँसें हुई गुलाम।
घुटन भरे इस
दौर में, जीयें
कैसे राम।।