पथ के साथी

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Monday, July 24, 2023

1349-तीन कविताएँ

 

1-परदों से झाँकती ज़िदगी

इन्दु कृति

 


परदों से झाँकती ज़िदगी

अनंत संभावनाओं की तलाश में

जैसे तैयार हो रही हो

एक सफल उड़ान भरने को...

 

एक परितृप्त श्वास से भरपूर

और नवीन सामर्थ्य से परिपूर्ण

ये उठी है नया पराक्रम लेकर

नवजीवन के प्रारम्भ का विस्तार छूने।

 

परिधियों से बाहर आने की आतुरता

आसक्ति नहीं, प्रतिलब्धता

समीक्षा नहीं,  अनंतता

विस्तारित व्योम को बस छू लेने की लालसा.....

 

परदों से झाँकती ज़िन्दगी।।

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2-हाँ! यह वही सावन है

अनीता सैनी 'दीप्ति'

 

ज़ुल्म !

पवन के अल्हड़ झोंकों का

कि घटाएँ फिर उमड़ आयीं

चित्त ने दी चिंगारी

एहसास फिर सुलग आए

भरी बरसात में जला

हाँ! यह वही सावन  है।

 

धुँआ उठा न धधका तन

सपनों का जौहर बेशुमार जला

बेचैनियों में सिमटा बेसुध

पल-पल अलाव-सा जला

हाँ! यह वही सावन है।

 

बुझा-सा

ना-उम्मीदी  में जला

डगमगा रहे क़दम

फिर ख़ामोशी से चला

जीवन के उस पड़ाव पर

बरसती बूँदों ने सहलाया

हाँ! यह वही सावन है।

 

पलकों को भिगो 

मुस्कुराहट के चिलमन  में  उलझ   

दिल के चमन को बंजर कर गया 

भरी  महफ़िल में

अरमानों संग जला

हाँ!यह वही सावन है।

 

बेरहम भाग्य को भी न आया रहम

रूह-सा  रूह  को  तरसता मन

एक अरसे तक सुलगा

फिर भी न हुआ कम

पेड़ की टहनियों से छन-छनकर जला

हाँ! यह वही सावन है।

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रोकना जरूरी है

 -रेनू सिंह जादौन


 

 रोकना ज़रूरीहै पीढ़ियों के बीच खाई को।

हमारी सभ्यता की हो रही हमसे विदाई को।।

 

परख है आपको गुण और अवगुण की बहुत लेकिन,

सुना है आपने देखा नहीं अपनी बुराई को।

 

यहीं सब मोह माया छोड़ खाली हाथ जाना है,

बढाओ रोज तुम थोड़ा सा' कर्मों की कमाई को।

 

भले ही बंद हैं खिड़की घरों के बंद दरवाजे,

बताते शोर क्यों लेकिन गरीबों की दुहाई को।

 

जरा मीठी रखो बोली रखो व्यवहार भी मीठा,

सुई होती नहीं कोई है' रिश्तों की सिलाई को।

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Saturday, October 10, 2015

अजनबी शहर



1-ज्योत्स्ना प्रदीप
क्षणिकाएँ
1
वो बुज़ुर्ग है !
नहीं......,
उसकी छत्र-छाया में
बैठो तो सही
आज के तूफानों से  बचाने वाला
वो ही तो
मज़बूत दुर्ग है ।
2
 कुछ !रिश्ते
कितने आम हो गए  !
बस हस्ताक्षर से ही.
 तमाम हो गए !
3
महानगर की
वो छोटी- सी लड़की
पता भी न चला.
जाने कब
बड़ी हो गई ?
किसी विरोध में
भीड़  के साथ
वो भी खड़ी   हो गई !
-0- 


2-अमित अग्रवाल
 अजनबी शहर

अजनबी शहर की
बेदर्द भीड़ के बीच
कोई अपना सा लगा तो,
मैंने मीत  कहा था. 
बेगानी इस दुनिया में
जब दर्द बाँटता मेरे 
सहलाता ज़ख्मों को,
मैंने प्रीत कहा था.
गिर-गिर के सँभलने का
अहसास अनोखा था
छोटे से उस पल को,
मैंने जीत कहा था. 
सूने दर पे मेरे
वो दस्तक अजीब थी
हल्की सी उस आहट को,
मैंने गीत कहा था.  

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3-इन्दु गुलाटी
राहें

कभी खामोश और
कभी  चीखती इस राह में
एक ठहराव  एक शून्य सा है
जो पर उठता- सा प्रतीत होता है
जैसे  हल्की सी  खाली सी
ज़िन्दगी स्वयं ही तैरती जा रही हो
डोलती नाव की तरह---
जैसे हल्की- सी  खाली- सी
ज़िन्दगी स्वयं ही उड़ती जा रही हो
आवारा बादल की तरह---
यह पानी और धुएँ की रेखा
धुँधले निशाँ छोती जाती है
जो इन खामोश और चीखते
क्षणों में ग़ुम हो जाते हैं
पर हलचल -सी मचा जाते हैं
एक समतल सतह पर
आने वाली सभी रेखाओं
का मार्ग रोकते हुए

Monday, August 17, 2015

संशय



इन्दु

शाम की इस ठंडी आग में

बुझते दिए को जलाए हूँ,

जब भी रोशनी खोने लगता है

उसे गरम हवा के छींटे देती हूँ;

पर शायद ये जानता है

इस ठंडी आग के साए में

इसे उम्र भर जलना है;

हर नई छींटे के साथ

फिर जल उठता है

एक नई आशा और

उमंग मन में  संजोये.

गूगल से साभार

आशा का यह बुझता दिया

तुमसे कहता है,

कोई एहसान न करना;

रना इस ठण्डे तूफ़ान में

यह अंतिम  साँस भरेगा......

शब्दों के इन जंजालों में

गहरा भेद छिपा है

खुद ही नहीं समझ पाती

मैं क्या हूँ? क्यों हूँ? कौन हूँ?
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परिचय-इन्दु
शिक्षा: एम. ए. समाजशास्त्र, बी.एड.
सृजन-लेख रचना, कविता रचना 
निवास-गुड़गाँव                    
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