पथ के साथी

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Wednesday, May 29, 2024

1419

 अनिमा दास 

 


1

पीड़ा पर्व (सॉनेट-33)

एक त्रिज्या हुई है अंकित तुमसे मेरी परिधि पर्यंत

कई भौगोलिक रेखाओं में जैसे सीमित व अनिश्चित

किंतु नहीं है ज्या की ज्यामिति..दृश्य में शून्य दिगंत...

होता प्रतीत। अतः समीकरण हुआ अपथ में समाधिस्थ।

 

तुमसे न करती प्रश्न..न वितृष्ण मन करता प्रतिवेदन 

संपूर्ण व्यथा की एक लता..होती अंकुरित जीर्ण द्वार से 

रिक्त अंजुरी में लिए भग्न स्वप्न..दीर्घ निदाघ- सा जीवन 

कई विलुप्त नक्षत्र व ग्रहाणु परित्यक्त आकाशगंगा के। 

 

किंतु पारिजात- सी रहती..बन अप्सरा स्व स्वर्ग की 

पक्ष्म पर लिये नैराश्य की निशि.. वक्ष में लिए शोक-गीत 

कि तुम्हारी ज्यामिति में कभी रच जाएगी एक वृत्त भी 

मेरी यह शेष ईप्सा; अतः मेरी प्रथी की कथा गीतातीत।

 

आहा! सुनो..पीड़ा पर्व का सुंदर सुमधुर स्वरित-पद्मबंध 

अवांछित दिवस की अश्रु में कादम्बरी की कुहू मंद-मंद।

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पीड़ा पर्व (सॉनेट-35 )

 

तुम्हे है ज्ञात मेरे कौनसे अंग में भरी कितनी है उष्णता 

मेरी भूमि का कौनसा भाग है अस्पृर्श्य..कौनसा पुष्पसार 

यह भी है ज्ञात कि मेरे अलंकार में है तुम्हारा अहंकार 

मेरा अनुराग-तुम्हारा सामर्थ्य, मेरी पराजय है जय-गाथा।

 

तुम्हें कभी मैं लगती अप्सरा-सी अथवा कभी प्रेयसी-सी 

कभी हूँ तुम्हारी तृषा में अथवा कभी हूँ तुम्हारी मृगतृष्णा 

मेरी सरीसृप-सी रात्रि में जलती है तुम्हारी आदिम घृणा 

अंततः शय्या के कुंचन में नहीं होती मेरी कृश काया भी।

 

मेरे अस्तित्व से सदा होता है  दीप्त तुम्हारा वांछित स्वर्ग 

मैं रहती प्रश्नवाचक- सी एवं भ्रम में रहता है मेरा विश्वास 

किंतु सदा मरु में रहता है निरुत्तर.. दिगंत का अवभास 

मर्यादा व माधुर्य से भिन्न आयु को प्राप्त होता अवसर्ग। 

 

जीवित स्त्रीत्व के पीड़ा पर्व में तुमने कभी देखी है सृष्टि?

जलावर्त सा इस मन में प्रलय किंवा दृगों की तप्त वृष्टि?

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Wednesday, April 10, 2024

1411

 

अनिमा दास 

 


1.स्त्री का स्वर (सॉनेट)

 

मौनता की भाषा यदि होती..मृदुल -सहज व सरल

द्रुमदल न होते अभिशप्त..आ:! न होता अंत वन का 

न स्रोतवती होती शुष्क,न मेघों में होता अम्लीय जल 

न होता अज्ञात अभ्र में लुप्त एक पक्षी.. मृत मन का।

 

न होती यक्ष-पृच्छा..न मिथ्या विवाद की धूमित ध्वनि 

न कोई करता अनुसरण सदा अस्तमित सूर्य का कभी 

न पूर्व न पश्चिम न उदीची से.. प्रत्ययी पवन की अवनि  

न होती नैराश्य-बद्ध..निगीर्ण ग्लानि में रहते यूँ..सभी।

 

यह जन्म उसी प्राचीन इतिहास का है एक भग्नावशेष 

निरुत्तर निर्मात्री..पुरुष-इच्छा की स्त्री.. मौन-मध्याह्न 

स्वर में नीरव अध्वर..शून्य भुजाओं में अंतिम आश्लेष 

प्रतिक्षण ध्वस्त होते इसके कण-कण,हैं अर्ध अपराह्न।

 

यदि हुई अभिषिक्त यह उर्वि..यदि हुआ नादित अंभोधर 

प्रतिगुंजित होगा अंतरिक्ष में तब अविजित स्त्री का स्वर।

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2. प्रेम पर्व (सॉनेट -30)

 

मंदर पर सप्तरंग का आँचल,सखी,आओ उत्सव गीत गाओ

मदमत्त भ्रमर करे पुष्प संग प्रीत..कृष्ण रास संग रच जाओ

मुग्ध मन नृत्य करता.. है स्निग्ध किरणों में सम्पूर्णतः तन्मय

रूप यौवन का हो रहा तीर्ण...गमक रहा... कर रहा अनुनय।

 

प्रेम हो रहा व्यक्त सखी कि रक्तिम हुआ आह!प्राच्य आकाश 

स्वप्नगुच्छ हुआ स्फुटित..शतदल के सरोवर में आया प्रभास

पीत रंग ने किया स्पर्श.. मुखमंडल हुआ स्वर्ण सा अरुणित

मंद-मंद स्वर में कहा प्रेम ने 'सुनो प्रिया तुममें मैं हूँ प्लावित।'

 

इस नगर में नहीं रहा जीवन यदि... स्वर्गीय -संभव- सरल

यदि वसंतकुंज में भी... समस्त पीड़ाएँ रहीं. सदैव जलाहल 

कोई प्रतिवाद नहीं होगा..न होगा मृदु वेणु-ध्वन. न वंशीवट 

दृगोपांत में अश्रुमिश्रित परागरेणु से सिक्त होगा कालिंदी तट।

 

प्रेम पर्व की वर्तिका हो रही प्रज्वलित.. जीवन हुआ फाल्गुन 

मन के कोण-अनुकोण में गूँज रही गीतप्रिया की..मधुर धुन।

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Saturday, December 23, 2023

1391-पद्म प्रतिमा (सॉनेट)

 मूल रचयिता (ओड़िआ) - इं. विष्णु साहू 

 अनुवाद - अनिमा दास, कटक, ओड़िशा 

स्वर्णिम तनु की चंद्रकिरण में तरल लास्य कर द्रवित

चिरयौवना तुम कर कामना की शिखा प्रज्जलित

मुकुलित हो तुम किसी मंजरी वन में.. हे, अभिसारिका!

नहीं हूँ कदापि भ्रमित कि भिन्न है तुम्हारी भूमिका।

 

चारण कवि की चारु कल्पना तुम तरुण तरु की छाया

नृत्यशाला की मृण्मयी हो तुम मग्नमृदा की माया

तिमिर-तट की शुक्र तारिका तुम हो मुक्ता कुटीर की  

मंजुल तुम्हारे देह-देवालय जैसे अग्नि में ज्योति सी।

 

जिसके हृदय में नहीं रही कभी कोई प्रेयसी-रूपसी 

उसे नहीं है ज्ञात कि किस सुधा से पूर्ण है काव्यकलशी 

हे,मधुछंदा! तुम्हारी सुगंध से सुगंधित मेरी नासा

मन में भर दी है तुमने भावपूरित तरल काव्यभाषा।

 

तुमने किया है परिपूर्ण  जीवन-पात्र मेरा.. हे,परिपूर्णा!

नयन में नृत्य करती छलहीन तुम्हारी पद्म प्रतिमा।

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Thursday, November 30, 2023

1387

 तुम कहो.. मैं लिखूँ (सॉनेट)

अनिमा दास

 

मैं जीवन लिखता हूँ तुम मृत्यु लिखो, मैं उत्तर लिखता हूँ तुम पश्चिम लिखो

संताप का अर्थ एक ही है...जीवंत हो अथवा मृत..अभिशाप भी एक ही है

स्वतः आ जाए गीत तो..हर्ष व उल्लास लिखो..अथवा अधर रक्तिम लिखो

सीमाओं में परिबद्ध आशाओं का...ध्वस्त होने की कहानी... अनेक भी हैं।

 

कोई भी पर्व तुम्हे यदि प्रेम पर्व प्रतीत हो..मेरी प्रतीक्षा ही होगी चतुर्दिश

तुम म्लान मुख्यमंडल से न देखना दर्पण..गवाक्ष पर होगी एक प्रतिछाया 

उस प्रतिछाया की भाषा में मेरे कुछ अक्षर होंगे,उनकी ध्वनि होगी अहर्निश

तुम कहोगी 'मैं गाती हूँ गीत..तुम सुनो'..मैं कहूँगा 'तुम्हारे शब्दों में है माया'

 

उस मायापाश में होगी मेरी आत्मा बद्ध..करूँगा प्रश्न मैं 'क्या यह था छल?'

तुम्हारी मौनता से अजंता की मूर्तियों में होगा कंपन..क्या तुम रहोगी मौन?

कहूँगा,'न तुम जीवन लिखो..मृत्यु नहीं है समीप..न है इसकी कामना सरल

क्या तुम तथापि रहोगी मौन?... इस जम्बूद्वीप में प्रेम से सिक्त...होगा कौन?

 

इस उत्सव को कर मुखरित..प्रणय पाश में कर बद्ध..तुम हो जाओ जीवित 

मानवरूप में दैवत्य हो किंवा दैत्य..इस काव्यकलश में रहेगी मृत्यु निश्चित।

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Monday, October 30, 2023

1382

 

प्रेम की प्रतीक्षा में... (सॉनेट)

अनिमा दास

  


प्रेम की प्रतीक्षा में तपोवन की तपस्विनी कह रही क्या सुन

मेदिनी वक्ष में कंपन मंद- मंद, ऐसी तेरे स्पंदन की धुन

बूँद-बूँद शीतल-शीतल तेरे स्पर्श से सरित जल कल-कल

मंदार की लालिमा- सा क्यों दमकता तपस्वी मुखमंडल?

 

रहे तम संग जैसे शृंग गुहा में खद्योत, ऐसे ही रहूँ त्रास संग

अयि! तपस्वी,मंत्रित कर अरण्य नभ,भर वारिद में सप्तरंग

शतपत्र पर रच काव्यचित्र मेरी काया को कर अभिषिक्त

अयि! तपस्वी,त्रसरेणु- सी विचरती,कर स्वप्न में मुझे रिक्त।

 

कह रही तपस्विनी, तपस्वी हृदय की अतृप्त तरुणी

रौप्य-पटल पर कर चित्रित मुग्ध मर्त्य,दे दो मुक्त अरुणी!

तपस्या हुई तृप्त, नहीं है क्षुधा का क्षोभ क्षरित स्वेदबिंदु में

समाप्ति के सौंदर्य से झंकृत बह रही निर्झरिणी सिंधु में।

 

अयि तपस्वी! मोक्ष की इस सूक्ष्म धारा में है समय,कर्ता

स्मृति सहेजती तपस्विनी के द्वार पर मोह है मनोहर्ता।

 

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कटक, ओड़िशा 

 

 

 

 

Wednesday, June 28, 2023

1337

1-बहुत दिनों के बाद

कमला निखुर्पा

 


बहुत दिनों के बाद

खिलखिलाकर हँसे हम

सृष्टि  हुई सतरंगी ...

दूर क्षितिज पे 

चमका इंद्रधनुष..

कि हाथों में पिघलती गई आइसक्रीम ...

मीठी बूँदें  जो गिरी आँचल पे

परवाह नहीं की..

चटपटी नमकीन संग

मीठे जूस की चुस्की भर

गाए भूले बिसरे गीत ।

नीले अम्बर तले

बादलों के संग-संग 

हरी-भरी वादियों में

डोले जीभर

झूले जीभर

बिताए कुछ  यादगार पल ..

तो हुआ  ये यकीं ..

ओ जिंदगी ! सुनो जरा

सचमुच तुम तो हो बहुत हसीं ..

बस हमें ही जीना नहीं आया कभी...

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2-चैत की रातनंदा पाण्डेय


चैत की रात का उत्साह ऐसा कि ,

बिना किसी अनुष्ठान के उसने

अपनी अतृप्त कामनाओं में

रंग भरने का निश्चय कर लिया

 

आज पहली बार

आँगन में बह रही

पछुआ हवा के

 विरुद्ध जाकर वह

अपनी तमाम दुविधाओं को

सब्र की पोटली में बाँधकर

मौन की नदी में गहरे गाड़ आई,

 

बहा आई आस्थाओं, संस्कारों ,

परम्पराओं और नैतिकताओं के उस

भारी भरकम दुशाले को भी

जिसे ओढ़ते हुए उसके काँधे झुकने लगे थे

 

ढिबरी की लाल-लाल रोशनी

और ढोल मंजीरों की आवाजों के बीच

सबसे नजरें बचाकर

अपने वक्ष में गहरे धँसी सभी कीलों को

चुन-चुनकर उखाड़कर फेंकती गई

अंत कर  दिया उसने अँधेरों के प्रारम्भ को ही

 

अब आंगन का मौसम बदल गया

टूटी हुई वर्जनाओं और मूल्यों की रस्साकसी में खींचते

सदियों से उजड़े उस आँगन की रूह

आज फिर से धड़क उठी थी

 

वर्षों से जो ख्वाब ! उसकी बंद मुठ्ठी में कसमसा रहे थे

अब उसमें पंख उग आ हैं...!

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3-रश्मि लहर

1-सुनो कवि!

 


विषमताओं की कोख से उपजी

निर्धनता की ऑंतों से उलझकर

वेदना की तीव्रता को सहती हुई

अपने स्वरूप को टटोलते हुए

सचेत हो  पड़ी है कविता!

 

युवाओं के

तिलमिलाते शब्दों से गुथी

नहीं सजना चाहती है

लबराते अधरों पर!

न रुकना चाहती है

प्रणय के प्रकंपित स्वरों पर..

आज!

 

व्यवस्था से खिसियाए

संपूर्ण युग की

सहकार बनना चाहती है कविता।

ज़मींदोज़ सिद्धांतों को ललकारती

संवेदना की

यर्थाथवादी काया के साथ..

कविता

करती है शंखनाद!

 

सुनो कवि!

शब्दों का

अवसादी निनाद!

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3-अनियंत्रित स्वप्न

 

झाँक रहे हैं नयनों के

कोने-कोने से

स्वप्न।

 

छिपे कांख में थे यथार्थ की,

कसमसाए वे कब?

पुलकित-पवन उम्मीदों की भी,

वे पाए थे कब??

 

दौड़ रहे मन के कानन

में, मृगछौने-से

स्वप्न।

 

गलबहियाँ कर के मिलतीं,

कुछ स्मृतियाँ  चंचल।

रंगत बदले फिर कपोल,

मल दें बतियाॅं सन्दल।।

 

खूब लुभाते हैं माखन-

मिश्री  दोने-से

स्वप्न।

 

रूप सजाता मन, अतीत के

विरही वादों का।

पुनर्जन्म ज्यों होता भूली-

बिसरी यादों का।।

 

कर लेते मन को वश में,

जादू-टोने-से

स्वप्न।।

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रश्मि लहर, इक्षुपुरी कालोनी, लखनऊ-226002

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4- अनिमा दास

 


 

कलंक भी है सौंदर्य (सॉनेट)

 

मंजुरिम सांध्य कुसुम. मधुर ज्योत्स्ना में है दीर्घ प्रतीक्षा

तुम्हारा आगमन एक भ्रमित कामना मात्र लेती है परीक्षा

दृगंचल में शायित इच्छा..व इच्छा में है अनन्य अभिसार

कल्पना ही कल्पना है..हाय! वर्णिका में है यह अभ्याहार।

 

 

अस्ताचल की अरुणिमा में...मंत्रमुग्ध सा यह मुखमंडल

कृत्रिम क्रोध से स्पंदित हृदय में जैसे नव प्रणय पुष्पदल

द्वार से द्वारिका पर्यंत है कृष्णछाया, हाँ ! क्यों कहो न ?

ऐ ! लास्य-लतिका, ऐ ! मानिनी मदना, शून्य में बहो न।

 

 

कलंक भी सौंदर्य है..यह कहा था मुझे सुनयना ने कभी

सौम्य-मृदु अधरों से छद्म -शब्दों का मधु झर गया तभी 

देहान्वेषी ने उसके अंगों का अग्नि से किया था अभिषेक

तथापि निरुत्तर प्रतिमा में शेष नहीं था मुक्ति का अतिरेक।

 

स्वप्नाविष्ट प्रकृति,अद्य अंतर्मुखी विवेचना में है पुनः संध्या

तिक्त वासना में है चीत्कार करती क्यों शताब्दी की बंध्या?

 

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