पथ के साथी

Sunday, November 3, 2019

935-पतझड़ को सांत्वना


सविता अग्रवाल 'सवि' (कैनेडा)

गर्मी का मौसम जाते ही
वसुधा में भी थी हरियाली
छायाचित्र; प्रीति अग्रवाल
बैठा सूरज देख रहा सब
सूझी उसको एक ठिठोली
भर- भर कर पिचकारी रंग की
ऊपर से ही दे दे मारी
कहीं गुलाबी, पीला, नीला,
लाल, जामुनी रंग बिखेरा
कलाकार की कलाकृति-सा
कैनवास पर चित्र उकेरा  
देख- देखकर क दूजे को
वृक्ष खुद से ही शरमा
लेकर बारिश की कुछ बूँदें
धो -धो तन को खूब नहा
रगड़ा तन को इतना तरु ने
पत्ता भी क टिक ना पाया
हो क्रोध में लाल और पीला
जाकर सूरज से वह बोला-
खेल खेलकर तुमने होली
अपना तो आनंद मनाया
पर मेरी हालत तो देखो
तिरस्कृत करके मुझे रुलाया
धरती पर अब कोई मुझको
देख नहीं खुश होता है  
मानव की जर्जर काया से
मेरी उपमा करता है
पतझड़ में आक्रोश था इतना
कचहरी में सूरज को लाया
इलज़ाम लगा उसने इतने
सुनकर सब, सूरज मुस्काया
छोड़ -छाड़कर जिरह कचहरी
सूरज पतझड़ के संग आया
गले लगाया, चूमा माथा
पतझड़ को उसने सहलाया
छोड़ क्रोध, अब सोचो तुम भी
कितने रंग दिए हैं तुमको
देख तुम्हारे रंग अनोखे
जग सारा कितना हर्षाया
बोला सूरज पतझड़ से तब
समझो मेरी भी मजबूरी
शरद ऋतु से किया है वादा
उसको भी है मुझे निभाना
धरती पर कुछ दिन उसको भी
अपना है आधिपत्य जमाना
तुमसे भी मैं वादा करता
नया नाम मैं तुमको दूँगा 
खोया जो तुमने अपना है
सब कुछ मैं वापिस कर दूँगा
बसंत नाम से तुम फिर आकर
धरा पर जाने जाओगे
नव पत्तों और नव कलियों- संग
खिल खिलकर हँस पाओगे
बनकरके ऋतुओं का राजा
जग में पूजे जाओगे
देखूँगा मैं ऊपर से ही
जब स्वयं पर तुम इतराओगे।
          -सविता अग्रवाल ‘सवि’ (कैनेडा)
 दूरभाष : (९०५) ६७१ ८७०७ 
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