[जीवन में नारी के बहुत सारे
रूप देखे , माँ बहन , बेटी, मित्र-सभी अद्भुत !कुछ तो ऐसे कि एक रूप में सारे रूप समाए हुए ! मुझे इनका जितना नि:स्वार्थ स्नेह
मिला, आशीर्वाद मिले , शुभकामनाएँ मिलीं ; वे सब मेरे जीवन की पूँजी है। इन सभी का मेरे ऊपर इतना ॠण है कि जन्म -जन्मान्तर
तक इसको चुकाना मुश्किल है ।मैं चुकाना भी नहीं चाहूँगा ।कुछ ॠण अपने सिर पर बकाया
रखूँगा ताकि ये सब रूप मुझे हर जन्म में मिलें ।
अपने
इन दोहों के माध्यम से आज अपनी आवाज़ सब तक पहुँचा रहा हूँ , किसी दिखावे के लिए नहीं
,वरन् इन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए।]
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
नारी केवल तन नहीं ,नारी
मन की धूप ।
मन में जिसके वासना ,कब
पहचाने रूप । ।
2
नवरात्र उपवास किए , मिटे
न मन के ताप ।
पुरुष बनकरके नरपशु, फिर-फिर
करता पाप ॥
3
नारी जननी पुरुष की ,ममता
की आधार ।
बड़े भाग जिसको मिला,इसका
सच्चा प्यार । ।
4
मस्तक पर धारण करूँ ,तेरे
पग की धूल ।
प्यार-सुधा तेरा मिले ,
मिटते मन के शूल । ।
5
मन्दिर मैं जाता नहीं ,
निभा न पाता रीत ।
पूजा-सी पावन लगे , मुझको तेरी प्रीत । ।
6
नारी के आँसू बहें ,
जलते तीनो लोक ।
नारी की मुस्कान से ,मिटते
मन के शोक । ।
7
अन्तर में जब-जब उठे ,
तेरे कोई पीर ।
सच मानो मेरा हिया ,होता
बहुत अधीर । ।
8
जब तक अन्तिम साँस हैं,
मैं हूँ तेरे साथ ।
टिका रहेगा अहर्निश ,तेरे
सिर पर हाथ । ।
9
जहाँ -जहाँ मुझको मिली
, तेरे तन की छाँव ।
देवालय समझा उसे ,
ठिठके मेरे पाँव । ।
10
कटु वचन जो भी चुभे ,
बनकर उर में शूल ।
माफ़ करो मन से सभी ,
जो भी मेरी भूल । ।
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