पथ के साथी

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Monday, July 25, 2011

सूरज अभी निकला है



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

जीने के लाखों हैं , मरने के हज़ारों हैं
सूरज अभी निकला है ,क्यों सोचें मरने की ।
जीवन के द्वारे पर ,कभी भीख नहीं माँगी
गर मौत भी आ जाए ,ये बात न डरने की ।
क्या उनको समझाना , जो अक्ल के दुश्मन हैं
नहीं सोचें कभी बातें ,उनको खुश करने की ।
जिस देश न जाना था , वह बाट नहीं पकड़ी
हमने ना कभी सोची, रीता घट भरने की
जिनके सन्देशों ने ,जीवन था दिया हमको
बख़्शीश उन्हें क्यों दें , बीहड़ में विचरने की ।
जीने की तमन्ना है कि  मरने नहीं देती
उनकी  तो रही फ़ितरत  अंगारे  धरने की ।
-0-
[चित्र गूगल से साभार]

Saturday, August 15, 2009

जागरूक भारत



रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
  धर्मान्धता संक्रामक रोग है , मतान्धता विष है , जातिवाद पागलपन है , क्षेत्रीयतावाद राष्ट्र की जड़ों को खोखला करने वाला घुन है और भ्रष्टाचार इन सबका बाप है । स्वयं को श्रेष्ठ न होते हुए भी श्रेष्ट होने की भावना इन मरणान्तक व्याधियों को बढ़ावा देती है । ये सभी व्याधियाँ राष्ट्र को कमज़ोर करती हैं ।
  चुनाव के समय इनका असली प्रकोप देखा जा सकता है । अच्छे लोकतन्त्र के लिए ये सबसे बड़ा खतरा हैं । इनका सहारा लेकर जब तक वोट माँगने का सिलसिला बरकरार रहेगा ; तब तक ये राष्ट्र को कुतरते रहेंगे । इस अवसर पर जैसे भी जीत मिले ; उसी तरह के हथकण्डे अपनाए जाते हैं ।
  आर्थिक शक्तियाँ कुछ लोगों तक सीमित होती जा रही हैं ।भ्रष्टाचार शिष्टाचार का स्थान लेता जा रहा है । शिक्षा समर्पित लोगों के हाथ में न होकर व्यापारियों के हाथ में चली गई है ।यह ख़तरा देश का सबसे बड़ा ख़तरा है । भू माफिया की तरह शिक्षा माफिया का उदय इस सदी की सबसे बड़ी विडम्बना और अभिशाप हैं । भारत की बौद्धिक सम्पदा का एक बड़ा भाग उच्च शिक्षा से निकट भविष्य में वंचित होने वाला है । इसका कारण बनेंगी लूट का खेल खेलनेवाली धनपिपासु शिक्षा संस्थाएँ; जहाँ शिक्षा दिलाने की औक़ात भारत के ईमानदार 'ए' श्रेणी के अधिकारी के बूते से भी बाहर हो रही है । सामान्यजन किस खेत की मूली है ।
  एक वर्ग वह है जो सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाओं को अपनी तिकड़म से पलीता लगाने में माहिर है । वह सारी सुविधाओं को आवारा साँड की तरह चर जाता है । तटस्थ रहकर काम नहीं चल सकता । हमें समय रहते चेतना होगा; अन्यथा हम भी बराबर के कसूरवार होंगे । समृद्ध भारत के लिए हमें सबसे पहले जागरूक भारत बनाना होगा । सोया हुआ
उदासीन भारत सब प्रकार की कमज़ोरियों का कारण न बने ; हमें यह प्रयास करना होगा । हमें आन्तरिक षड़यन्त्रों पर काबू पाना होगा; तभी हम देश के बाहरी दुश्मनों का मुकाबला कर सकते हैं । हम यह बात गाँठ बाँध लें कि कोई देश किसी का सगा नहीं होता , सगा होता है उनका राष्ट्रीय हित । हम राष्ट्रीय हितों की बलि देकर सम्बन्ध बनाएँगे तो धोखा खाएँगे, जैसा अतीत में खाते रहे हैं ।
15 अगस्त 09


Monday, May 11, 2009

मणिमाला-3


मणिमाला-3
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1-पूजा
       पूजा आडम्बर नहीं मन को  शुद्ध करने की प्रक्रिया है  जो अपने आपको शुद्ध प्रमाणित करने  की आवश्यकता समझते हैं , वे तरह तरह के आडम्बरों में पड़ते हैं ।
2- लोभ-वृत्ति
       लोभ-वृत्ति मनुष्य के आत्मसम्मान को डँस लेती है।
3-विवेक
       उचित अनुचित का विवेक करना , मनुष्य के मनुष्य होने की पहचान है । सेठ साहूकार के पास गिरवी रखा धन प्राप्त हो सकता है; परन्तु गिरवी रखा विवेक नहीं ।
4-प्रकाश के उपासक
       अँधेरे में रहना , अँधेरे में रखना रोशनी के शत्रुओं की प्रवृत्ति रही है। प्रकाश के उपासक युगों-युगों से अँधेरे की हर पर्त उघाड़ने के लिए प्रयासरत रहे हैं ।
5-साधनों की पवित्रता
       कोई भी कार्य अपने साधनों से श्रेष्ठ माना जाता है। निकृष्ट साधनों से प्राप्त स्वर्ग भी त्याज्य है ।
6-कर्मशील
        मैं नरक में भी कई जन्मों तक रह सकता हूँ; यदि वहाँ काम से जी चुरानेवाले लोग न हों ।
7- अच्छी सलाह
       सर्प को अमृत रुचिकर नहीं लगता । दुष्ट को अच्छी सलाह कभी नहीं भाएगी ।
8-धर्म
       जो धर्म मनुष्य को मनुष्य नहीं समझता वह  मनुष्य से ऊपर नहीं है; राष्ट्र से ऊपर तो हो ही नहीं सकता ।
9-धर्म और कवच
              धर्म को कवच की आवश्यकता नहीं होती ।धर्म अपने आप में कवच है ।फ़तवों की बैसाखी पर आदमी ही ठीक से नहीं चल सकता ; धर्म कैसे चलेगा ।
[ 24 जनवरी, 2007]

मणिमाला-1


मणिमाला-1

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1-बड़ा काम
        जो किसी काम को छोटा समझकर उसे करना नहीं चाहता,वह  ज़िन्दगी में कभी बड़ा काम नहीं कर सकता ।
2-सदाचारी
       सदाचारी व्यक्ति अपने  कार्यों से बड़े बनते हैं। दुराचारी व्यक्ति दूसरों के काम में बाधाएँ उत्पन्न करके बड़प्पन बटोरना चाहते हैं ;लेकिन एक  न एक दिन उनकी कलई खुल जाती है ।
3-विश्वासघात
       मित्रों से विश्वासघात करनेवाला व्यक्ति खुद से भी विश्वासघात करता है ।
4-कपट-भावना
       धूर्त्त व्यक्ति अपनी मीठी-मीठी बातों का सहारा रोज़-रोज़ नहीं ले सकता ।   उसकी कपट-भावना  कभी न कभी प्रकट हो ही जाती है ।
5-शिक्षक
       जिस शिक्षक के मन में जाति-पाँति  और ऊँच-नीच का कूड़ा-कचरा भरा होता है, वह कभी विद्यार्थियों के हृदय को नहीं जीत सकता है ।
6-चापलूस
       चापलूस  व्यक्ति अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर अजनबी जैसा व्यवहार करने लगता है ।
7-चुगलखोर
              चुगलखोर पर कभी विश्वास मत करो ।उसके लिए न कोई अपना है और न पराया ।उसकी जीभ को तो विष-वमन करने में ही आनन्द मिलता है ।
8-ईर्ष्या
      ईर्ष्या का प्रारम्भ दुर्बलता  से होता है । मानसिक रूप से पंगु व्यक्ति ईर्ष्या में रात दिन जलकर अपने विवेक की भी हत्या कर देते हैं ।
[10 -8-1986]

मणिमाला-2


मणिमाला-2
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1-अनुभव की आँच
   ठोस व्यक्तित्व का स्वामी अनुभव की आँच में तपकर और सुदृढ़ हो जाता है ; परन्तु फुसफुस व्यक्तित्व वाले लोग अनुभव की आँच नहीं झेल पाते ;इसीलिए पिंघलकर अस्तित्वहीन  जाते हैं ।
2-अनु्भव का मापदण्ड
   अनु्भव का मापदण्ड  कार्यक्षमता है , समय का अन्तराल नहीं ।सजग व्यक्ति एक साल में जितना सीख लेता है ; उलझे विचारों वाला व्यक्ति बीस साल में भी उतना नहीं सीख पाता है ।
3-पलायनवादी व्यक्ति
   पलायनवादी व्यक्ति न दूसरों की बात समझ सकता है और न दूसरों को अपनी बात समझा सकता है। वह कमज़ोर लोगों के सामने गुर्राता है तो दृढ़ लोगों के सामने घिघियाता है ।
4- आत्मप्रशंसा
    जो अपनी प्रशंसा स्वयं करता है, उसे दस-बीस लोग मूर्ख न भी समझें तो क्या फ़र्क पड़ता है ।
5-स्वार्थ
   स्वार्थ का रेगिस्तान सम्बन्धों की तरलता को सुखाकर ही दम लेता है ।
6-शोभा
   जूते पैरों की शोभा बढ़ा सकते हैं, सिर की नहीं  ।सिर की शोभा वही बढ़ा सकता है ;जो सबका   चहेता होता है ।
7-अनुशासन
   अनुशासन आन्तरिक चेतना है। भय के कारण दिखाया गया अनुशासन केवल ढोंग है। व्यवस्था का अंकुश हटते ही भय से अनुशासित लोग कामचोर बनने में पीछे नहीं रहते ।
8-विचार-शक्ति
   जो स्वयं किसी बात का निर्णय नहीं ले सकते  , उनकी विचार-शक्ति  की अकाल मृत्यु हो  जाती है और उन्हें हमेशा किसी दूसरे के इशारों पर ही नाचना पड़ता है ।
9- कंगाल
   दूसरे के मुँह का कौर छीनकर खानेवाला व्यक्ति भले ही करोड़पति बन जाए ; परन्तु मन से वह कंगाल ही रहता है ।
10-ईमानदारी
   यदि किसी की ईमानदारी को परखना है तो उसे बेईमानी  करने का अवसर दीजिए । अवसर मिलने पर भी जो ईमानदार बना रहे ;वही सच्चा ईमानदार है ।
[ 4 जनवरी, 1987]

Tuesday, March 24, 2009

मुस्कान तुम्हारी


[आगे बढ़ो तुम पार अँधेरे के ।
दो क़दम दूर हैं द्वार सवेरे के॥]

मुस्कान तुम्हारीपीछे तो केवल छाया है
यही तुम्हारा सरमाया है ।

तुम अपनों को ढूँढ़ रहे हो
कोई साथ नहीं आया है ।

देखी है मुस्कान तुम्हारी
सब कुछ आँसू से पाया है ।

जिसको तुमने गीत कहा था
चुपके रो-रोकर गाया है ।

तुम भी बाज नहीं आते हो
जी भरके धोखा खाया है ।

आशीषों की वर्षा करके
केवल ज़हर तुम्हें भाया है

अपनों का तो सपना पाला
गैरों ने ही अपनाया है ।

-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
19 मार्च 2009

Sunday, March 9, 2008

मैं अभी हारा नहीं हूँ ।



मैं अभी हारा नहीं हूँ ।
जग अभी जीता नहीं है

मैं अभी हारा नहीं हूँ ।
फ़ैसला होने से पहले ,
हार क्यों स्वीकार कर लूँ ।
-गीतकार समीर

Tuesday, November 6, 2007

दिया जलता रहे


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


यह ज़िन्दगी का कारवाँ ,इस तरह चलता रहे ।
हर देहरी पर अँधेरों में दिया जलता रहे ॥
आदमी है आदमी तब ,जब अँधेरों से लड़े ।
रोशनी बनकर सदा ,सुनसान पथ पर भी बढ़े ॥
भोर मन की हारती कब ,घोर काली रात से ।
न आस्था के दीप डरते ,आँधियों के घात से ॥
मंज़िलें उसको मिलेंगी जो निराशा से लड़े ,
चाँद- सूरज की तरह ,उगता रहे ढलता रहे ।
जब हम आगे बढ़ेंगे , आस की बाती जलाकर।
तारों –भरा आसमाँ ,उतर आएगा धरा पर ॥
आँख में आँसू नहीं होंगे किसी भी द्वार के ।
और आँगन में खिलेंगे ,सुमन समता –प्यार के ॥
वैर के विद्वेष के कभी शूल पथ में न उगें ,
धरा से आकाश तक बस प्यार ही पलता रहे ।
24-4-2007

Friday, November 2, 2007

चिन्तन


शिक्षक के लिए संकीर्णता से मुक्त होना अनिवार्य है ।जब लोग अन्तरिक्ष में जा रहे हों उस समय यदि शिक्षक वर्गवाद,जातिवाद ,सम्प्रदायवाद के गिजबिजाते कीचड़ में लोट लगाता रहे तो क्या होगा ?शिक्षक का प्रत्येक पल खुशबू-भरे फूल खिलाने का पल है ।वैमनस्य ,घृणा ,क्षुद्रता का प्रचार –प्रसार करने का नहीं ।कोई संस्कारवान् हो या न हो चलेगा ,लेकिन शिक्षक संस्कारवान् नहीं है ,नैतिक बल वाला नही है;वह बच्चों को अपनी कुण्ठा का विष ही पिलाएगा।वह अमृत लाएगा भी कहाँ से ।शिक्षक-अभिभावक का सम्बन्ध ढाल –तलवार का सम्बन्ध नहीं वरन एक दूसरे के पूरक का है।माता-पिता और शिक्षक में आपसी समझ तथा संवाद बना रहे तो बहुत सारी बालमनोवैज्ञानिक जटिलताओं का निराकरण हो सकता है। यही तादात्मय बच्चे के हित में है ।



Sunday, September 16, 2007

जीवन-धारा

पहाड़ पर चढ़ना कठिन है ,इसी तरह ईमानदारी का जीवन जीना दुष्कर है;पतन होना भी कठिन है।
बेईमानी का जीवन जीना आसान है ; उसी तरह पतन का मार्ग भी आसान है।गिर पड़े तो सँभलना लगभग असंभव है ।
अत: कठिनाइयों में भी सच्चे मार्ग का अनुसरण करो ।

Saturday, July 21, 2007

ज़िन्दगी की लहर

आग़ के ही बीच में ,अपना बना घर देखिए ।
यहीं पर रहते रहेंगे ,हम उम्र भर देखिए ॥
एक दिन वे भी जलेंगे ; जो लपट से दूर हैं ।
आँधियों का उठ रहा , दिल में वहाँ डर देखिए ॥
पैर धरती पर हमारे , मन हुआ आकाश है ।
आप जब हमसे मिलेंगे , उठा यह सर देखिए ॥
जी रहे हैं वे नगर में ,द्वारपालों की तरह ।
कमर सज़दे में झुकी है , पास आकर देखिए ॥
टूटना मंज़ूर पर झुकना हमें आता नहीं ।
चलाकर ऊपर हमारे , आप पत्थर देखिए ॥
भरोसे की बूँद को मोती बनाना है अगर ।
ज़िन्दगी की लहर को सागर बनाकर देखिए

वश में है

तुमने फूल खिलाए
ताकि खुशबू बिखरे
हथेलियों मे रंग रचें ।
तुमने पत्थर तराशे
ताकि प्रतिष्ठित कर सको
सबके दिल में एक देवता ।
तुमने पहाड़ तोड़कर
बनाई एक पगडण्डी
ताकि लोग मीठी झील तक
जा सकें
नीर का स्वाद चखें
प्यास बुझा सकें।
तुमने सूरज से माँगा उजाला
और जड़ दिया एक चुम्बन
कि हर बचपन खिलखिला सके
यह तुम्हारे वश में है ।
लोग काँटे उगाएँगे
रास्ते मे बिछाएँगे
लहूलुहान कदमों को देखकर
मुस्कराएँगे ।
पत्थर उछालेंगे
अपनी कुत्सित भावनाओं के
उन्हें ही रात दिन
दिल में बिछाकर
कारागार बनाएँगे।
पहाड़ को तोड़ेंगे
और एक पगडण्डी
पाताल से जोड़ेंगे
कि जो जाएँ
वापस न आएँ।
सूरज से माँगेगे आग
किसी का घर जलाएँगे।
यह उनके वश में है।
यह उनकी प्रवृत्ति है
वह तुम्हारे वश में है ।

बंजारे हम

जनम - ­ जनम के बंजारे हम
बस्ती बाँध न पाएगी ।
अपना डेरा वहीं लगेगा
शाम जहाँ हो जाएगी ।
जो भी हमको मिला राह में
बोल प्यार के बोल दिये ।
कुछ भी नहीं छुपाया दिल में
दरवाजे सब खोल दिये ।
निश्छल रहना बहते जाना
नदी जहाँ तक जाएगी ।
ख्वाब नहीं महलों के देखे
चट्टानों पर सोए हम ।
फिर क्यों कुछ कंकड़ पाने को
रो रो नयन भिगोएँ हम ।
मस्ती अपना हाथ पकड़ कर
मंजिल तक ले जाएगी ।

तिनका­- तिनका

तिनका ­तिनका लाकर चिड़िया
रचती है आवास नया।
इसी तरह से रच जाता है
सर्जन का आकाश नया।
मानव और दानव में यूँ तो
भेद नजर नहीं आएगा ।
एक पोंछता बहते आँसू
जीभर एक रुलाएगा।
रचने से ही आ पाता है
जीवन में विश्वास नया।
कुछ तो इस धरती पर केवल
खून बहाने आते हैं ।
आग बिछाते हैं राहों पर
फिर खुद भी जल जाते हैं ।
जो होते खुद मिटने वाले
वे रचते इतिहास नया ।
मंत्र नाश का पढ़ा करें कुछ
द्वार -द्वार पर जा करके ।
फूल खिलाने वाले रहते
घर­ घर फूल खिला करके।
रहता सदा इन्हीं के दम पर
सुरभि ­ सरोवर पास नया।

Sunday, June 3, 2007

अधर पर मुस्कान

अधर पर मुस्कान दिल में डर लिये

लोग ऐसे ही मिले पत्थर लिये।

आँधियाँ बरसात या कि बर्फ़ हो

सो गये फुटपाथ पर ही घर लिये।

धमकियों से क्यों डराते हो हमें

घूमते हम सर हथेली पर लिये।

मिल सका कुछ को नहीं दो बूँद जल

और कुछ प्यासे रहे सागर लिये ।

हार पहनाकर जिन्हें हम खुश हुए

वे खड़े हैं सामने पत्थर लिये ।


..............

कितनी बड़ी धरती

कितनी बड़ी धरती ,

बड़ा आकाश है !

बाँट दूँ वह सब ,

जो मेरे पास है

बहुत दिया जग ने

मैंने दिया कम ।

कैसे चुकाऊँ कर्ज़

इसी का है ग़म ।

अपने या पराए कौन ,

यह आभास है ।

…………

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

19मार्च 07

Thursday, March 15, 2007

इंसान की बातें

इंसान की बातें

आदमी को चुभ रही इंसान की बातें ।
आज लगती तीर –सी ईमान की बातें ॥

जो किनारों पर रहे तूफ़ान के डर से ।
आज वे करने लगे तूफ़ान की बातें ॥

हर दिन बाज़ार में काम उनका बेचना ।
हर जगह भाती उन्हें दूकान की बातें ॥

जो अर्से तक रहे यहाँ अर्दली बनकर ।
आज वे करने लगे पहचान की बातें ॥

भूख से दम तोड़ती चिथड़ों बँधी गठरी ।
पेट क्या उसका भरें भगवान की बातें ॥

यार से पूछी कुशल घर –गाँव की हमने ।
उसने कही लाश की ,किरपान की बातें ॥

………………

Monday, March 12, 2007

मैं घर लौटा,


बहुत मैं घूमा पर्वत -­पर्वत
नदी घाट पर बहुत नहाया
और पिया तीरथ का पानी
आग नहीं मन की बुझ पाई।
बहुत नवाया मैंने माथा
मंदिर और मजारों पर भी
खोज न पाया अपने मन का चैन जरा भी ।
रेगिस्तानों में चलाकर के
दूर गया मैं सूनेपन तक
आग मिली बस आग मिली थी।
मैं लौटा सब फ़ेंक ­फान्काकर
भगवा चोला और कमंडल
और खोजने की बेचैनी
उन सबको जो नहीं पास थे
पहले मेरे।
मैं घर लौटा।
आकर बैठा था आंगन में
टूटी खटिया पेड नीम का
बिटिया आयी दौदी­ दौदी
दुबकी गोदी में वह आकर
पत्नी आयी सहज भाव से
और छुआ मुझको धीरे से।
बरस पडी जैसे शीतलता
और चांदनी भीनी­ भीनी
मेरे छोटे से आंगन में ।
मैं मूरख था ,
अब तक भटका
बाहर-बाहर।
झाँक न पाया था भीतर मैं
पावन मन्दिर , तीर्थ जहाँ था
और जहाँ थे ऊँचे पर्वत
शीतल ­शीतल ,
और भावना की नदियाँ थीं
कल­कल करती
छल ­छल बहती।
झोंके खुशबू के
भरे हुए थे , बात ­बात में।
जुड़े हुए थे हम सब ऐसे
नाखून जुड़े हो
साथ मांस के
युगों ­युगों से ।


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जरूरी है

जीवन के लिए जरूरी है
थोडी़ - सी छाँव
थोडी़- सी धूप।
थोडी़ - सा प्यार
थोडी़- सा रूप।
जीवन के लिए जरूरी है…
थोडा़ तकरार
थोड़ी मनुहार।
थोड़े -से शूल
अँजुरीभर फूल।
जीवन के लिए जरूरी है…
दो चार आँसू
थोड़ी मुस्कान।
थोड़ी - सा दर्द
थोड़े------- से गान।
जीवन के लिए जरूरी है…
उजली- सी भोर
सतरंगी शाम।
हाथों को काम
तन को आराम।
जीवन के लिए जरूरी है…
आँगन के पार
खुला हो द्वार।
अनाम पदचाप
तनिक इन्तजार।
जीवन के लिए जरूरी है …
निन्दा की धूल
उड़ा रहे मीत।
कभी ­ कभी हार
कभी ­ कभी जीत।

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3 -बहता जल

हम तो बहता जल नदिया का
अपनी यही कहानी बाबा।
ठोकर खाना उठना गिरना
अपनी कथा पुरानी बाबा।
कब भोर हुई कब साँझ हुई
आई कहाँ जवानी बाबा।
तीरथ हो या नदी घाट पर
हम तो केवल पानी बाबा।
जो भी पाया, वही लुटाया
ऐसे औघड, दानी बाबा।
अपने किस्से भूख­ प्यास के
कहीं न राजा रानी बाबा।
घाव पीठ पर , मन पर अनगिन
हमको मिली निशानी बाबा।
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