कविताएँ-
3-ये गूँगी मूर्तियाँ-मंजु मिश्रा
ये गूँगी मूर्तियाँ
जब से बोलने लगी हैं
न जाने कितनों की
सत्ता डोलने लगी है
जुबान खोली है
तो सज़ा भी भुगतेंगी
अब छुप छुपा कर नहीं
सरे आम…
खुली सड़क पर
होगा इनका मान मर्दन
कलजुगी कौरवों की सभा
सिर्फ ठहाके ही नहीं लगाएगी
बल्कि वीडियो भी बनाएगी
अपमान और दर्द की इन्तहा में
ये मूर्तियाँ
फिर से गूँगी हो जाएँगी
नहीं हुईं तो
इनकी जुबानें काट दी जाएँगी
मगर अपनी सत्ता पर
आँच नहीं आने दी जाएगी
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1- तुम्हारे
सपनों में -मंजूषा मन
नींद में अधखुली पलक को
थोड़ा और ऊपर उठा
हो जाऊँगी शामिल
तुम्हारे सपनों में...
तुम किसी झाड़ी से तोड़ लेना
एक जंगली गुलाब,
मैं तुम्हें दूँ एक मुट्ठी झरबेरी के बेर,
थककर किसी झील के पानी में
मुँह धो मिल जाये ऊर्जा,
तमाम दिन झुलूँ झूला
तुम्हारी बाहों का..
एक पूरी रात
तुम्हारे सपने में
जी लूं एक पूरा दिन
तुम्हारे साथ।
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2. मंजूषा मन
सारे कसमें और वादे धरे रह गए ।
अश्क आँखों में मेरी भरे रह गए ।
जिस्म के जख्म तो थे गए फिर भी मिट,
रूह के जख्म आखिर हरे रह गए ।
उसके जुल्मो सितम का हुआ ये असर,
थोड़े ज़िंदा बचे कुछ मरे रह गए ।
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3- ए राही !!!
डॉ.पूर्णिमा राय
ए राही !!!
मानव जीवन है अलबेला
है हर इक इन्सान अकेला
चाहे नित नवीन मंजिल को
बीतती नहीं दुख की बेला!!
भास्कर नव किरणें फैलाता है
भँवरा फूलों पर मँडराता है
कुदरत का मधुरिम सौन्दर्य
जीवन उपवन महकाता है!!
मधुरिम रिश्तों की अभिलाषा
मन में जगाती नई आशा
डग भरता राही जल्दी से
छा ना जाये कहीं निराशा!!
सुख वैभव इकट्ठे करता है
आकाश उड़ाने भरता है
औरों को सुख देने खातिर
हरपल विपदाएँ सहता है!!
पत्तों की मन्द सरसराहट
पंछियों की सुन चहचहाहट
बीती बातों की स्मृतियों से
आए अधर पर मुस्कुराहट!!
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