पथ के साथी

Thursday, September 26, 2013

मन की झील,

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
सारी  ही उम्र
बीती समझाने में
थक गए उपाय,
जो था पास में
वो सब रीत गया
यूँ वक्त बीत गया ।
2
मन की झील,
चुन-चुन पत्थर
फेंके हैं अनगिन,
साँस लें कैसे
घायल हैं लहरें
तट गूँगे बहरे ।
3
ज़हर- बुझे
बाण जब बरसे
भीष्म -मन आहत,
जीना मुश्किल
उत्तरायण भी बीते
मरने को तरसे।
4
जीवन तप
चुपचाप सहना
कुछ नहीं कहना,
पाई सुगन्ध
जब गुलाब जैसी
काँटों में ही रहना ।
5
उर में छाले
मुस्कानों पर लगे
हर युग में ताले ,
पोंछे न कोई
आँसू जब बहते
रिश्तों के बीहड़ में ।
6
रूप कुरूप
कोई नर या नारी 
दु:ख सदा रुलाए,
प्यार सुगन्ध
ये ऐसी है बावरी
सबको गमकाए ।
7
शीतल जल
जब चले खोजने
ताल मिले गहरे,
पी पाते कैसे
दो घूँट भला जब
हों यक्षों के पहरे ।
8
प्रश्न हज़ारों
पिपासाकुल मन
पहेली कैसे बूझें,
तुम जल हो
दे दो शीतलता तो
उत्तर कुछ सूझे ।
9
पाया तुमको
अब कुछ पा जाएँ
मन में नहीं सोचा ,
खोकर तुम्हें
तुम ही बतलाओ
क्या कुछ बचता है ?

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