-मुरलीधर वैष्णव
माँ ने भले ही जन्म दिया हो उसे
मजदूरी करते हुए
कचरे के आस पास
लेकिन फेंका नहीं उसे
कचरे के ढेर पर उसने
जैसे फेंक दिया था कई कई बार
बड़ी हवेली वालों ने
अपने ही खून को
बड़ी हो गई है अब वह
उठ कर मुँह अँधेरे रोजाना
निकल पड़ती है वह बस्तियों में
कचरा बीनने
उसके कंधे से लटका
यह पोलिथीन का बोरा नहीं
किसी योगिनी का चमत्कारी झोला है
जिसमें भर लेगी वह
पूरे ब्रह्माण्ड का कचरा
सीख लिया है उसकी आँखों ने
खोजना और बीनना
हर कहीं का कचरा
भाँप लेती है उसकी आँखें
आवारा आँखों को भी
और बीन लेती है वह
उनमें भरे कचरे को भी
शाम को जब रखती है वह झोला
कबाड़ी के तराजू में
उठती है उसमें से तब
तवे पर सिकती रोटी की महक
उगता है उसमें से
उसका छोटा–सा
सपना
कचरा बीनती है वह
ताकि कचरा न रहे
हमारे बाहर
और हमारे भीतर भी