पथ के साथी

Friday, August 31, 2018

641


क्षणिकाएँ

1-प्रियंका गुप्ता
1-
कई बार जीना पड़ता है
बेमक़सद , बेवजह
बेमानी हो चुकी ज़िंदगी को भी-
जैसे हम अक्सर पढ़ते हैं कोई कविता
बस शाम गुज़ारने को...|
2-
कितना अच्छा होता
गर ज़िंदगी होती
कोई कविता
सुना लेते किसी को
या गुनगुनाते कभी किसी गीत सा;
पर ज़िंदगी तो
बस एक सूखी रोटी- सी है
बेहद कड़क...बेस्वाद,
चबाओ तो कमज़ोर  दाँत टूट जाते हैं....|
3-
ख़्वाब तो होते हैं
बस किसी अंत-विहीन क़िताब -से;
या फिर
कोई अनंत कहानी;
या अगर
ख़्वाबों की तुलना
क्षितिज से करूँ तो कैसा हो...?
बस देखो, और छू न पाओ...|
4-
फुदकती धूप
जाने कब
गोद में आ बैठी
दुलराया कित्ते प्यार से
ज़रा-सी आँख लगी
और ये जा, वो जा;
चंचल खरगोश कब एक जगह टिके हैं भला...?
5.
आँखें
अभ्यस्त हो गईं हैं
नमी और सीलन की
ताज़ा हवा से दम घुटता है
सोचती हूँ
इन्हें किसी बक्से में रख दूँ
बंद दरवाजों के पीछे से
किसको दिखती है दुनिया...?
-0-
(प्रियंका गुप्ता),एम.आई.जी-292, कैलाश विहार,
आवास विकास योजना संख्या-एक,कल्याणपुर, कानपुर-208017 (उ.प्र)
ईमेल: priyanka.gupta.knpr@gmail.com
मोबाइल: 09919025046
ब्लॉग: www.priyankakedastavez.co.in
-0-
2-अनिता मण्डा

1.इंतज़ार
रैन की शय्या पर
तारकों के फूल बिछा
चंद्रमा के दिये में
बाती सरकाती है स्त्री

उजाले की उँगली धरे
ढूँढ़ ले प्रिय
सजल पिघलता है चाँद
बुझ जाता है

इंतज़ार गर खत्म होता
तो वो इंतज़ार न रहता

2.अमावस
ये तारे
इंतज़ार में टकटकी बाँधे
स्त्रियों की आँखें हैं

चाँद मद का प्याला है
भरता है रीतता है
अमावस भी खाली नहीं जाती
ज़मीं के मयखानों से

3-उड़ान
तुम में से
कुछ
कम कर रही हूँ
अपने को
जैसे भाप बन
उड़ जाती हैं
समुद्र से नदी

4-पूँजी
प्रतीक्षा की पगडण्डी पर
सुख रहे आभास की मानिंद
दुःख अर्जित -पूँजी की तरह
न खर्च होते हैं
न बाँटे जाते हैं !

5
आविष्कार

जब भी तुम उदास हुए
तुम्हें हँसाने को
एक झूठा सच्चा बहाना खोजा मैंने
न माने कोई इसे
बड़ा आविष्कार तो क्या
बहुत बार जग सुंदर बन गया
इसी बहाने से.

6
चिनार

हवा के साथ  हाथ हिलाकर
बुला रहे हैं चिनार के पत्ते
अपनी तरफ़

लाल, भूरे, हरे, नारंगी, बैंगनी
रंगों का सम्मोहन ऐसा है कि
दृष्टि बाँध लेते हैं सब रंग
और वो खिलखिलाते हैं

हमें अपने से उलझा हुआ देख !
7
अलाव

आमने-सामने बैठे थे हम तुम
बीच में जल रहा था एक अलाव
जिसमें कभी डाले जा रहे थे
वो उलाहने जो कभी शब्द न बन पाए

कभी वो अपेक्षाएँ,     
जो तुमने रखी मुझसे छिपाकर
मेरे प्रति ही।

8
भाव की नींव
अभावों से भर
बनाता है मन
सपनों का घर
रहेंगे हम-तुम
उसमें मिलकर

9
खोज

कभी जो खुद से मिलने की
तलब जगे
खोजना मुझमें
तुम मुक़म्मल मिलोगे वहाँ.

10
साँझ में सूरज

जले ढिबरी
बन्द दरवाज़े में
नीचे से झाँके
रौशनी की लकीर
ज्यों बैठा हो फ़कीर
ऐसे ही गया
क्षितिज तले
सूरज अभी-अभी

11
कागज़

आसमानी कागज़ पर
वासन्ती लिखावट
इंद्र-धनु !

-०-