पथ के साथी

Sunday, October 13, 2024

1436

 

रश्मि विभा त्रिपाठी

1


मुट्ठी से सरक रहे

रेत सरीखे अब

रिश्ते यों दरक रहे।

2

आँसू की धार बही

हमको रिश्तों की

जब भी दरकार रही।

3

फिर नींद नहीं आई

हमने जब जानी

रिश्तों की सच्चाई।

4

बनकर तेरे अपने

लोग दिखाएँगे

केवल झूठे सपने।

5

किसका मन पिघल रहा?

इंसाँ ही अब तो

इंसाँ को निगल रहा!

6

जग से कुछ ना कहना

जग है सौदाई

चुपके हर गम सहना।

7

देखा तुमने मुड़के

जाते वक्त हमें

हम जाने क्यों हुड़के।

8

दो दिन का मेला है

जीवन बेशक पर

हर वक्त झमेला है।

9

घबराता अब दिल है

रिश्ते- नातों से

हमको यह हासिल है।

-0-

Friday, October 11, 2024

1435

 

1-रात प्रहरी /  डॉ. सुरंगमा यादव

 


रात प्रहरी

कैसे आऊँ मैं प्रिय

लाँ  देहरी

वर्जनाएं तोड़ भी दूँ

जग से मुखड़ा मोड़ भी लूँ

पर न चाहूँगी प्रियवर!

मैं कोई आक्षेप तुम पर

मैं रहूँ जब  दूर तुम से

चाँदनी का ताप सहती

चाँद का सहती उलाहना

मन मेरा भी कमलसा है

और भाती है-

मधुप की मधुर गुनगुन

पर नहीं मैं चाहती हूँ

प्रेम को बंदी बनाना

-0-

 


2-स्वाति बरनवाल

 1-हितैषी

 


वे हमारे हितैषी बनकर आ

उन्होंने बताया कि तुम्हारे

हाथों में यश है और 

पैरों में बेड़ियाँ

मैं निहाल हो उठी,

उन्होंनें मुझे मेरे अस्तित्व का भान कराया।

 

उन्होंने कहा- तुम तीर हो

ख़ूब दूर तक जाओगी,

बस! साथ जुड़ी रहो!

दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करोगी।

 

उन्होंने कहा- मैं तुम्हारें पैरों में 

बेड़ियाँ नहीं रहने दूँगा,

मैं उन्हें काट फेकूँगा।

मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।

 

मैंने दाँतों तले उँगली दबा और 

अपने पैरों को थोड़ा पीछे खींच लिया।

 

ठहरो!

वे शिकारी नहीं;

बल्कि हमारे हितैषी थे।

उन्होंने मेरे पैरों की बेड़ियाँ खोलीं

और अपनी कमान में साधने लगे,

उन्होंने मुझे शिकार नहीं,

बल्कि...

अपने शिकार का जरिया बनाना चाहा।

-0-

 

2-संझा -बाती

 

दोपहर की तपिश में 

जैसे जैसे 

चढ़ती हैं सीढ़ियाँ

फूलती है उनकी सांसे और 

उतरते- उतरते  रुँध जाता है गला.

 

जाने कितनी ही औरतें हैं 

जो कुहकती है

सिसकती हैं और 

पलटवार न करने में ही आस्था रखती हैं।

 

देव- मंदिर की किसी पवित्र दिये की 

मद्धम लौ की भाँति 

आधी सोई, आधी जागी 

उनकी आँखें 

कितनी निश्चल और शांत 

इस इन्तजार में कि 

भक्तों से अटा उसका

प्रांगण खिलता है 

परंतु

देवताओं के प्रवेश से 

खुल जाते हैं उनके मन के कपाट

 

जीवन है संझा बाती 

और उसकी लय, गति और यति।

-0-

Wednesday, October 2, 2024

1434-अग्रजा की याद में

 

हर बार ऐसा हुआ है- रश्मि विभा त्रिपाठी

 


हर बार ऐसा हुआ है

जब तुम याद आई हो

कुछ और कहने की कोशिश में

कुछ और कह गई हूँ मैं

बोलते- बोलते हो गई ख़ामोश 

या कुछ का कुछ लिख गई

अचानक खो बैठी होश

सबने सोचा- मैं नशे में हूँ

तुम ये क्यों करती हो?

तुम रखके 

मेरे होठों पर अपनी उँगली

मेरा हाथ थामकर क्या ये चाहती हो

कि मेरी रुसवाई हो

 

हर बार ऐसा हुआ है

कि जब तुम याद आई हो

तो जो भी मिला मुझसे

उस शख़्स के आगे

तुम्हारी हर बात

दुहराई शिद्दत से

इस बात से बेख़बर 

कि कौन समझेगा उस बात को

मेरे- तुम्हारे जज़्बात को

क्या कुछ न कहा मेरे बारे में

दुनिया वालों ने

यहाँ तक कह दिया मुझसे

कि तुम पगलाई हो

 

हर बार ऐसा हुआ है

जब तुम याद आई हो

कुछ खाया न गया ज़रा- सा

मर गई भूख

आँखों से बही नदी

मन रहा प्यासा

जैसे दो निवाले खाके जल्दी में

मैं दौड़ती थी स्कूल के लिए

और तुम पीछे आती थी 

खाने की प्लेट,

पानी का गिलास लिये

फिर अचानक 

अपने हाथ में 

मेरे बस्ते में रखने के लिए 

तुम टिफिन 

और पानी की बोतल लाई हो

 

कई बार नींद खुली है

कई बार रात भर जागी हूँ

कई बार दिखा है साया तुम्हारा

जिसे पकड़ने को

तेज रफ़्तार से भागी हूँ

फिर थककर 

जब लेटी हूँ बिस्तर पर

तो महसूस हुआ माथे पर

तुम्हारा हाथ

और आने लगी झपकी

जैसे बचपन में तुम मुझे सुलाती थी

तुमने दी हो वही थपकी

लगा, तुमने लोरी गाई हो

 

कई बार ऐसा हुआ 

जब तुम याद आई हो

दिन के उजाले में भी

चलते- चलते किसी चीज से

टकरा गई हूँ

ठोकर खाकर औंधे मुँह गिरी हूँ

कई बार घुटने छिले

हमदर्दी या दिलासे के बजाय 

ताने मिले-

जवानी के जोश में अंधी हूँ

तो कोई बोला-

देखकर नहीं चलती, सिरफिरी हूँ

हर मोड़ पर मैं

मुसीबतों में घिरी हूँ

कुछ भी नहीं दिखता तुम्हारे सिवा

मेरी आँखों के आगे

तुम धुंध बनकर छाई हो

 

हर बार ऐसा हुआ है 

जब तुम याद आई हो

कि तुम्हारे जाने का जो घाव

दिल में है

उससे ख़ूब रिसा मवाद

ख़ूब उठी टीस

फिर लगा

धीरे से आकर

तुमने छू लिया मुझको

वो घाव भर गया

बगैर मरहम- पट्टी के

दर्द मिट गया

जैसे तुम दवाई हो

 

हर बार ऐसा हुआ है 

जब तुम याद आई हो

जब मैंने तुम्हें 

अपने बहुत क़रीब पाया है

तुम्हारा बोसा लिया

तुम्हें गले लगाया है

जबकि मेरे तुम्हारे बीच 

अब सात समंदर की नहीं

धरती से आसमान तलक की दूरी है

लोग चौंके बहुत ये कहते हुए 

क्या ज़िन्दगी में

फिर उससे मिलना मुमकिन है

जिससे ताउम्र की जुदाई हो

 

मैं नहीं दे पाती जवाब 

किसी भी बात का

किसी को क्या पता 

किस्सा मेरे हालात का 

तुम थी मेरी ज़िन्दगी 

जो ख़त्म हो चुकी हो;

लेकिन मैं फिर भी जी रही हूँ

क्योंकि तुम 

मेरे सीने की धुकधुकी हो

उससे पूछे कौन जिए जाने का आलम

और वो क्या बतलाए?

-जो जी तो रहा हो

पर जिसने अपनी जान गँवाई हो

 

पर मैं तुमसे पूछना चाहती हूँ

बताओ ना?

कि ये क्या जादू है तुम्हारा

(कहाँ से सीखा, कब सीखा,

मैंने तो तुम्हें बाहर जाते कभी नहीं देखा)

तुम थीं 

तो तुम्हारा वज़ूद 

सिमटा हुआ था

कमरे से

घर की दहलीज़ तक,

तुम

नहीं हो 

तो आज क्यूँ 

तुम हर शय में समाई हो??

-0-

Wednesday, September 25, 2024

1433

 

शब्द- रश्मि विभा त्रिपाठी

फुसफुसाहट, शालीन संवाद


बहस या चीख़-पुकार
शब्द बुनते हैं एक दुनिया

खोलके अभिव्यक्ति के द्वार
एक रेशमी रूमाल 

या एक नुकीली कटार
या दिल को बेधते 

या पोंछते हैं आँसू की धार

स्याही और कलम से 

ये बनाते हमारे भाग्य की रेखाएँ
इन्हीं शब्दों के गलियारे से 

हम तय करते हैं दिशाएँ
सब भस्मीभूत कर दे

एक शब्द वो आग भड़का दे
जीवन छीन ले या फिर से 

किसी का दिल धड़का दे

नीरव को कलरव में बदले

फिर कलरव का खेल पलटता
शब्द की डोर से आदमी 

आदमी से जुड़ता और कटता
शब्द दुत्कारता या 

आवाज़ देकर पास बुलाता है,
पल में रोते को हँसाता है

हँसाते को रुलाता है
शब्द के दम पर ही 

कोई बस जाता है यादों में
ये ही छलिया और ये ही 

साथ जीने- मरने के वादों में
दूरियों की दीवार में बना देते हैं 

ये नजदीकी का दर
शब्दों के पुल पर हम मिलते 

उस पार से इस पार आकर
चुप्पी के हॉल में 

शब्दों का ही गूँजता संगीत है
इन्हीं से बनते हैं दुश्मन

इन्हीं से हर कोई अपना मीत है

विश्वकोश के बाग में जाएँ

तो शब्दों के फूल करीने से चुनें
कुछ भी कहने से पहले 

थोड़ी इन शब्दों की भी सुनें
शब्द हमें दूर कर सकते हैं

शब्द ही हमें रखते हैं साथ
खोलते दिल के दरवाज़े 

शब्दों के गमक भीगे हाथ
उसने शब्दों के वो फूल चुने थे

जिनमें थी पुनीत प्रेम की सुवास

वो नहीं है मगर 

ज़िन्दा है उसके होने का अहसास
-0-

Sunday, September 22, 2024

1432

 

क्या मुश्किल ले जो ठान
     - सुशीला शील राणा

 


बेटों के वर्चस्व वाली दुनिया में
बेटियों का आना
कब उत्सव हुआ

न कोई थाली बजी
न बधावे के गीत गूँजे
न कोई मिठाई
खीर-लापसी
न कोई जीमना
न जिमाना

जच्चा भी
अनकिए अपराध के बोध से
कुछ सहमी- सी
स्वीकारती है हर ताना
सहती है चुपचाप
शब्दों के तीर

दुलारती है नन्ही- सी जान को
कुछ
यों
मानो जच्चा के कक्ष की दीवारों में
लगे हों आँख-कान
जो कर देंगे चुगली
बेटी को लाड़ लड़ाने के अपराध की
घर भर से

पिता भी
अपने माता-पिता
समाज की लाज-लिहाज-शर्म के
बोझ तले दबे
दबाते रहे अपनी इच्छाएँ
लाड़ो को बाँहों में झुलाने
काँधे पर
गाँव-गुआड़ में घुमाने की

खरपतवार सी
बढ़ जाती हैं बेटियाँ
बेटों को मिली
सुविधाओं से वंचित
अव्वल आती हैं बेटियाँ

कर दी जाती हैं पराई
उनके सपने
उनकी प्रगति
चढ़ जाते हैं बलि
अच्छे घर-वर की चाह में

संस्कारों के साँचों में ढली
कब कर पाती हैं विरोध
माँ-बाप के सुख पर
अपना सुख
न्यौछावर कर देती हैं बेटियाँ

बुनती हैं बया सा सुंदर घोंसला
पालती हैं नन्हीं जानों को
वृद्ध सास-ससुर को
सबको सँभालते-सँभालते
ख़ुद को खो देती हैं बेटियाँ

जितनी भी बचती हैं शेष
दोनों घरों में बँटते-बँटाते
फिर भी रहती हैं विशेष बेटियाँ

असहाय बूढ़े माँ-बाप की
हो जाती हैं लाठी
ताक पर धर देती हैं समाज
उसकी रूढ़ियाँ
माँ-बाप के लिए
ढाल हो जाती हैं बेटियाँ

बेटियों के अपराधी
समय-समाज-रूढ़ियाँ
माँग रहे हैं माफ़ी
सृष्टि की जनक
सृष्टि की पालक
सृष्टि की
संवाहक
सृष्टि का शृंगार हैं बेटियाँ

वधुओं को तरसते आँगन
नन्ही किलकारियों को
तरसते कान
कब से रहे हैं पुकार
बेटी है तो सृष्टि है
बचानी है अगर सृष्टि
तो बचा लो बेटियाँ

बचा लो बेटियाँ
कि बच पाए इंसान की ज़ात
बच पाएँ पीढ़ियाँ
आसमां में मंडराते बाज़-गिद्धों से
बचानी हैं चिरैयाँ
तो बाँध दो इनके पंजों में
वीर शिवा का वही वाघ
-नख
जो फाड़ दे वहशी की अंतड़ियाँ
बाँध दो इनके परों में
पैनी ब्लेडों की पत्तियाँ
कि उड़ा दें हर बुरी नज़र की
चिंदी-चिन्दियाँ

अब घर-घर हो शंखनाद
बजे रण की भेरी
बिटिया नहीं उपभोग
हर भक्षी के लिए
हुई बारूद की ढेरी
बेटी है रानी झाँसी
संग जिसके झलकारी
कर्णावती-दुर्गावती
क्या मुश्किल ले जो ठान
बिटिया! तू बन रज़िया सुल्तान

-0-