पथ के साथी

Thursday, February 13, 2025

1449-तीन कविताएँ

 

1-मखमली अहसास— रश्मि विभा त्रिपाठी

तुम्हारे होंठ
गुलाब की पंखुड़ी हैं
ये पंखुड़ियाँ
हिलती हैं जब
साफगोई की हवा के तिरने से
जज़्बात की शबनम के गिरने से
तब
ख़ुशबू में लिपटे
तुम्हारे लफ़्ज़
महका देते हैं
हर बार मुझे

रेशम- सी हैं
तुम्हारी हथेलियाँ
जो सोखती हैं
मेरी आँखों की नमी
तुमने जब मेरा सर सहलाया था
तो तुम्हारी उँगलियों के
पोरों के निशान
पड़ गए
मेरे भीतर
उनसे मुझे पता चला
कि दुनिया की सबसे कोमल शय
तुम्हारी रूह है

तुम्हारे सीने से लगके
मुझे महसूस हुआ
कि तुमने रख दिए
मेरे गालों पे नर्म फाहे
आज जी चाहे
बता दूँ तुम्हें
मैंने तभी जाना—
कपास
प्रेमी के हृदय में सबसे पहले उगा होगा
इसलिए तो तुम्हारी तरह दिव्य है,
पवित्र है,
निष्कलंक है
और रूह को सुकून देने वाला है
तभी तो ईश्वर ने भी उसे ढाला है
मंदिर की जोत में,
तुम‐ सा वह
फरिश्ता है
हर घाव जो रिसता है
उसपे मरहम मले
दे दर्द से मुक्ति
बिछ जाता है
थकान के तले
जब तुमने बाहें फैलाई थीं
मेरे लिए
और मैं आकर
तुमसे लिपटी थी
तो लगा था
तुमने बिछा दिया है
मेरे लिए
एक घास का गलीचा हरा
मैं हिरनी- सी कुलाचें मारने लगी थी

दुनिया ने छील दिया है मुझे
मेरी खुरदरी ज़िन्दगी
इस हाल में
चाहती है पनाह
तुम्हारी बाहों के बुग्याल में
ताकि उतर आए मुझमें
तुम्हारा मखमली अहसास
जो हर टीस भुला दे
चैन की नींद सुला दे,
वक्त के बिस्तर पर
मैं जब लेटूँ
अतीत की चादर ओढ़कर।
—0— 



2-गौर से देखा होता कभी— रश्मि विभा त्रिपाठी

 

गौर से देखा होता कभी 

मेरी आँखें— 

सर्द स्याह रात के बाद 

निकली

भोर की पहली किरण 

पलकें उठतीं 

तो मिलती गुनगुनी- सी धूप 

ठिठुरता तन गरमाता

 

आँखों में सपनों के बादल

घुमड़ते

अवसाद का ताप 

मिट्टी में समाता

 

आँखों में 

नेह का सावन 

बरसता तेरी हथेली पर

हरियाली की 

फसल उगाता

 

तेरे होठों पर भी था 

पतझड़ के बाद का

बसंत 

मदमाता

लफ़्ज़ों के खिलते फूल 

तो रिश्ते का ठूँठ 

लहलहाता

 

तूने लगाया होता

सोच का रंग प्यारा

मेरा मन तो 

कबसे था हुरियारा

 

अहसास की पुरवाई 

तुझे छू पाती

खोली होती अगर 

तूने अपनी आत्मा की खिड़की कभी 

तूने बंद रखे खिड़की- दरवाज़े 

महसूस ही नहीं किया कभी

जो कर पाता

तो जानता 

कि

ज़िन्दगी खुद एक ख़ुशनुमा मौसम है 

तू खोया रहा 

वक्त के मौसम में

सोचा कि लौटेगा एक दिन तू 

उसके रंग में रँगकर

मगर

सीखा भी तूने तो क्या सीखा 

वक्त के मौसम से—

मौसम की तरह बदल जाना

जबकि वह बदलना था ही नहीं, नहीं दीखा?

वह था—

एक के आने पर दूसरे का उसे 

पूरी कायनात सौंप देना 

और खुद को 

उसके लिए गुमनाम कर देना 

यही दोहराता आया है क्रम

एक दूसरे के लिए हर बार हर मौसम।

मौसमों का बदलना प्यार है—

सच्चा प्यार!

अफ़सोस 

मौसम जानता है

प्यार क्या है

इंसान को नहीं पता 

इतना जहीन होकर भी।

—0—

3-खिलता गुलाब हो तुम— रश्मि विभा त्रिपाठी

 

तुम्हारे नेह की नाज़ुक पंखुरियाँ
झर रही हैं
मन की तपती धरती पर
ज़िन्दगी के मौसम में बहार आ गई है

इन दिनों
मेरे ज़ख्मी पाँव पड़ते हैं
जहाँ- जहाँ
चूम लेता है हौले से
मेरे दर्द को
तुम्हारा मखमली अहसास—
मेरी आत्मा में घोल दिया है तुमने
अपना जो यह इत्र

क्या बताऊँ कि है कितना पवित्र!!
माथे पर तुमने जो रखा था
वह बोसा गवाह है
कि हर शिकन को मिटाता
तुम्हारा स्पर्श
पूजा का फूल है
हर मुराद फलने लगी है
नई उमंग नजर में पलने लगी है
आँखों में है तुम्हारा अर्क
महक रही हूँ मैं
वक्त का झोंका
जब भी आता है
और महक जाती हूँ मैं
नींद के झोंके में भी
अब मुझे यही महसूस होता है—
ख़ुशबू का ख़्वाब हो तुम
दुनिया के जंगल में
काँटों के बीच
खिलता गुलाब हो तुम।

—0—

Wednesday, February 5, 2025

1448-बिन माँ का बच्चा

 

- रश्मि विभा त्रिपाठी



बिन माँ का बच्चा
अपनी माँ समान मौसी से
अब बात नहीं कर पाता
उस पर लग गया है
सख़्त पहरा
रोता है, कराहता है
जानना चाहता है
बाप, चाचा, दादी की बेरहमी का
राज गहरा

जब सुनता है
कि बाप को चाहिए हिस्सा
माँ की जायदाद में से
खुश होता है
अपने मन के मरुथल में
इच्छाओं के बीज बोता है
इच्छाएँ जो कभी फली- फूली नहीं

सोचता है-
पापा इतने भी बुरे नहीं
मौसी से बात करानी बंद की है
मेरे ही भले के लिए

फिर गिनने लगता है बच्चा
अपनी नन्ही उँगलियों पर कुछ
मुस्कराते हुए

बच्चा खरीदेगा
खिलौने
जिसके लिए बाप ने कभी
पैसे नहीं दिए

वो खरीदेगा अपने सपनों का कद
सपने— जो रह गए बौने
जिन्हें पालने- पोसने के लिए
बाप ने
उसे कभी नहीं दी
भरपूर नींद

वो खरीदेगा
घर का एक कोना
जो नई माँ के आने पर
उसे कभी नहीं मिला 

स्थायी तौर पर

वो खरीदेगा सुराग
माँ की उन चीजों का
जो बाप ने बेकार समझकर फेंक दी थीं
जो माँ ने कभी
अपने हाथों से छुई थीं
जिनमें माँ का स्पर्श था
वो तलाशेगा उन चीजों में
अपनी माँ के होने का अहसास

वो खरीद सकेगा थपकियाँ
जो माँ की याद में हुड़कते हुए
बाप ने नहीं दीं कभी
उसे चुप कराने के लिए

वो खरीद सकेगा हर करवट पर
तखत के दूसरी ओर के
खाली पड़े रहे हिस्से में
पिता की जगह,
जहाँ बाप कभी नहीं लेटा
उसे उसकी माँ से
हमेशा से बिछड़ने के गम से
उबारने के लिए

वो खरीद सकेगा
रात होते ही
उसे बाहर अकेला पड़ा छोड़ गए
कमरे में जाते
बाप के बिस्तर पर
दूसरी माँ के और बाप के बीच बिछा वही बिछौना
जैसे उसकी माँ बिछाती रही
मरते दम तक
उसके लिए

वो खरीद सकेगा
अपना हर काम
अपने हाथों से करते हुए
हाथों में पड़े छालों के फूटने पर हुए दर्द की दवा
जो बाप ने कभी नहीं दी उसे

वो खरीद सकेगा अपनी बेगुनाही
जो सौतेली माँ ने अपनी हर गलती उस पर डाली थी
तब खुद को बेकसूर साबित करने को नहीं थी उसके पास

बच्चा खरीद सकेगा अपना हक
जो घर में मौजूद
उसकी माँ की हर चीज पर
सौतेली माँ ने जमा रखा है
सिवाय ममता को छोड़कर

 

खरीद सकेगा

अपना भी हिस्सा 

माँ का सबकुछ 

जो उसके हिस्से में आना था

अब दूसरी माँ के हिस्से में आ गया है

वो खरीद सकेगा
बाप नाम के आदमी के भीतर

रखने को एक बाप का दिल
जो उसने पति बनते ही

सुहागरात पर निकालकर रख दिया था
अपनी दूसरी दुल्हन के कदमों में
बच्चे से फेर लिया था मुँह
बच्चा घुटता रहा सदमों में

बच्चा खरीद सकेगा
थोड़ी शर्म भी बाप के लिए
जो माँ की बरसी से पहले
सेहरा सजाने पर उसे नहीं आई थी

वो खरीद सकेगा

अपनी माँ के लिए रत्ती भर इज्जत
जो उसे जीते जी
और मरने के बाद नहीं मिली कभी

बच्चा खरीदेगा
नानी के घर जाने के लिए
गर्मी की छुट्टियों के वही दिन
माँ के मरने के बाद
बाप आज तक कभी
ननिहाल की चौखट पर नहीं ले गया उसे
कि वह एक घण्टा भी बिताता
नाना- नानी का लाड़ पाता

बच्चा चाहता है
कि हिस्से में मिले
उन पैसों से बाप खरीदकर

 ले आएगा भगवान से उसके लिए
उससे एक बार मिलने को तरसते

अस्पताल के बेड पर लेटे 

नाना के लिए 

कुछ साँसें
जो उससे बिना मिले चले गए
ताकि वे फिर जी उठें
और वो उनसे मिल सके

बच्चा खरीद सकेगा
बूढ़ी नानी की बाहों में वही दम
फिर से झूला झुलाने को
कंत- कतैंया करने को
पाँव के जोड़ों की वही फुर्ती
पकड़म- पकड़ाई खेलने के लिए

बच्चा खरीद सकेगा
मौसी की आँखों की चमक
जो उससे मिलने के लिए रो- रोकर
गँवा दी है उसने

बच्चा खरीद सकेगा वो बचपन
जिसे बाप ने बीतने दिया
बगैर बेफ़िक्री, खेल, मौज- मस्ती के
हर वक्त के रोने के साथ

लेकिन सबसे पहले
खरीदना चाहता है बच्चा
थोड़ा– सा अमृत अपने लिए
माँ को जहर देकर मारने वाले

बाप की वजह से

फिलहाल तो बच्चा 

खरीदना चाहता है आजादी
जो माँ के हत्यारे के साथ रहने के डर से

उसे आजाद कराएगी।
—0—

Tuesday, February 4, 2025

1447

 

एडजस्टमेंट

लिली मित्रा

 


नीले सलवार-कमीज़ पर हरी बिंदी!!

कोई तुक बनता है क्या?

सूरज की रोशनी में घुटन

और

धुंध में जीवन का उजास

अटपटी सी सोच लगती है... ना?

एक पिंजरे में कैद पंछी आसमान को देख

जब पंख फड़कता होगा तो

ऐसा ही कुछ मन में कल्पना करता होगा…

उस पंछी के लिए 'एडजस्टमेंट' बस इतना

सा आशय रखता हो...शायद।

पर हर औरत ये कहती सुनाई देती है-

थोड़ा सा एडजस्ट करो...हो जाएगा।

एडजस्टमेंट औरत के शब्दकोश का एक जरूरी शब्द क्यों है?

और यही एक आवश्यक शब्द जब विद्रोह का बिगुल बजाता है

तो उसकी ध्वनि में अट्टहास का सुर नहीं

किसी जलतरंग की तरंग का लहरिया सुर होता है

जो पहले उसकी रगों में

फिर उसके परिवेश, तदनंतर संपूर्ण ब्रह्मांड

में फैल जाता है।

वह जुट जाती है इस शब्द के कई पर्याय बनाने में,

इस शब्द की नई व्याकरण गढ़ने में।

पर्याय का हर शब्द नए सन्दर्भानुकूल अर्थ-परिधान में

उपस्थित होता है

वो इस 'एडजस्टमेंट' का पिंजरा तोड़ता नहीं है-

पिंजरे की फांक से पूरा असमान खुद में

घसीट लेता है...

-0- फरीदाबाद, हरियाणा।

(मृदुला गर्ग जी की कहानी 'हरी बिंदी'  पढ़ने के बाद उपजी कविता)

-0-

Monday, February 3, 2025

1446

 

वासन्ती  पाहुन

शशि पाधा


वासन्ती  पाहुन लौट के  आया
डार देह की भरी-भरी
मंद-मंद पुरवा के झूले
नेह की गगरी झरी-झरी

 
उड़-उड़ जाए हरित ओढ़नी
जाने कितने पंख  लगे
रुनझुन गाए गीत पैंजनी
कंगना मन की बात कहे

 
ओझल हो न पल भर साजन
 
मुखड़ा देखूँ घड़ी-घड़ी।

कभी निहारूँ रूप आरसी
कभी मैं सूनी माँग भरूँ
चन्दन कोमल अंग  सँवारे
बिछुआ सोहे पाँव धरूँ

 
जूही- चम्पा वेणी बाँधूं
 
मोती माणक जड़ी-जड़ी

 
रुत  वासन्ती सज धज आई
देहरी आँगन धूप धुले
आम्र तरू पे गाये कोयल
सौरभ के नव द्वार खुले

     
ओस कणों में हँसती किरणें
     
हीरक कणियाँ लड़ी-लड़ी

महुआ टेसू गँध बिखेरें
आँख मूँद पहचान करूँ
कलश प्रीत का छल- छल छलके
अँजुरी भर रसपान करूँ

   
मौसम ने सतरंग बिखराये 
   
धरा वासंती लाल-हरी

-0-

Monday, January 13, 2025

1445

 

लौट आओ 

    - सुशीला शील स्वयंसिद्धा

 

 

 त्योहारों की रौनको 

 लौट आओ !

 कितनी सूनी है मन की गलियाँ 

 बरसों से नहीं चखी 

लोकगीतों की मिठास 

सूनी सी आँखें 

पलक -पावड़े बिछाए हैं 

कभी तो दिखेंगी

हँसती-गाती-नाचती-हुलसती 

हुड़दंग करती बच्चों की टोलियाँ 

 

 यादों में तैर-तैर जाते हैं दूल्हा- भट्टी 

 जीभ पर अनायास 

 आ विराजती है गुड़ की पट्टी 

 संग चली आती हैं गज्जक-रेवड़ियाँ 

 टप्पे-बोलियाँ 

 सुंदर मुंदरिये संग 

 झूमते टीके-बालियाँ 

 थिरकती पायल 

 खनकती चूड़ियाँ 

 मचलते परांदे 

हँसती फुलकारियाँ 

चहक उठती हैं 

नचदी कुड़ियाँ -

सानू दे दे लोहड़ी 

तेरी जीवै जोड़ी 

 

 

 लोहड़ी की आग और रेवड़ियों से 

 बिछड़ गए हैं उपले 

 चली आई हैं थोक में लकड़ियाँ 

 कहाँ दे पाती हैं उपले जैसी 

 धीमी आँच और तपन 

 जिनको थापते-सुखाते 

 होते थे स्नेहिल जतन 

 

 

महीनों के त्योहार

सिमट गए हैं चंद घंटों में 

खो गए हैं चूल्हे-भट्टी  

कड़ाहियों में पकती गजक-पट्टी 

माँ के हाथों की मिठास 

दुकानों के सौदों में खो गई है 

तरक़्क़ी करते-करते 

जिंदगी कितनी फ़ीकी हो गई है

 

 

 त्योहारों की रौनको 

ओ ढोल ओ ताशो !

ओ उत्साह ओ उल्लास 

ओ तन मन का हुलास 

लौट आओ !

लौट आओ ! !

-0-

Saturday, January 11, 2025

1444-मैं चला जाऊँगा

  रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 

मैं चला जाऊँगा

बहुत दूर

चाँद और सूरज से परे

अब लौट न पाऊँगा।

फिर भी

कभी हवा बनके

कुछ खुशबू ,

तुम्हारे आँगन में

बिखरा जाऊँगा।

 

ताप जब तुम्हें सताए

मैं बनके बदरा

बरस जाऊँगा,

पर मैं लौट न पाऊँगा।

 

शर्तों में नहीं जिया;

इसलिए

केवल विष ही पिया

सुकर्म भूल गए सब

दूसरों के पापों का बोझ

मैंने अपने ऊपर लिया

जी-जीके मरा

मर-मरके जिया।

 

ऐसा भी होता है

जीवन कि

मरुभूमि में चलते रहो

निन्दा की धूल के

थपेड़े खाकर

जलते रहो ।

जिनसे मिली छाँव

वे गाछ ही  छाँट दिए

जिन हाथों ने दिया सहारा

वे काट दिए

ऐसे में मैं कैसे आऊँगा ?

कण्ठ है अवरुद्ध                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             

गीत कैसे गाऊँगा ?

मैंने  किया भी क्या ?

जो दुःखी थे

उनको और दुःख दिया

मेरे कारण औरों ने भी

ज़हर ही पिया

सबका शुक्रिया!

Wednesday, January 1, 2025

1443

1-करो स्वागत

सुदर्शन रत्नाकर

 


बीत रहा है धीरे-धीरे

अस्तित्वहीन होता वर्ष

उखडी-उखड़ी -सी साँसें हैं

उदासी है छाई,

कहीं नहीं है हर्ष।

मौसम में नमी है

धूप भी अलसाई है

थके- थके दिन हैं,

रातों में ठंडाई है।

जीवन में उत्साह नहीं

बिछुड़ने की परवाह नहीं।

जा रहा है, तो जाने दो

जाने दो साथ में

सालभर की नकारात्मक

 सोच को

पाँवों में चुभे शूलों को

अपनी की हुई भूलों को।

विरोधियों की आवाज़ को

सड़ी -गली मान्यताओं को

पोंछ दो दर्पण पर पड़ी धूल को

जिसमें दिखाई नहीं देता

अपना ही असली चेहरा।

 

नए वर्ष का अभिनंदन करो

पुराने को भूल जाओ

नव उमंग, नव क्रांति

मिटाकर मन की भ्रांति

करो स्वागत, उगती नव किरणों का

फैला दें जो उजास

नव आशाओं का।

-0-


2-पाहुन/-शशि पाधा

 

द्वारे इक पाहुन है आया

सुख सपनों की डलिया लाया 

 

आशाओं की हीरक मणियाँ 

विश्वासों की झिलमिल लड़ियाँ 

प्रेम-प्यार के बन्दनवार

सजी-सजी हर मन की गलियाँ 

 

मंगल दीप जलें देहरी पर

किरणों ने नवरंग बिखराया

 दूर दिशा से पाहुन  आया 


नया सवेरा, नई ऊषा में

जीवन की उमंग नई

समय की धारा के संग बहती

जीवन की तरंग नई


राग रंग से रंगी दिशाएँ

इन्द्र धनु से थाल सजाया

  नव वर्ष द्वारे है आया 

          

धरती ,सागर, नदिया पर्वत

स्वागत’ ’स्वागत’ बोल रहे

आगत के कानों में पंछी

नव कलरव रस घोल रहे

  रोम-रोम बगिया का पुलकित

   सृष्टि ने नवगीत है गाया

  नव पाहुन द्वारे पर आया।

-0-

3-नववर्ष!

डॉ.सुरंगमा यादव

इक्कीसवीं सदी अबचौबीस बरस की हो ली

पच्चीसवें    वसंतीसपनों ने   आँखें खोलीं

खोने की है कसक  तोपाने का सुकूँ भी है

छूने को आसमाँ हैमन में  जुनून भी है

नववर्ष तू  दिलों मेंसंकल्प ऐसा भरना

मुट्ठी में कर लें सागर,मन में गुमान हो ना।