Thursday, January 14, 2021
Monday, January 11, 2021
1041
अनिता मंडा
1
परिभाषाएँ प्रेम की, गई अधूरी छूट।
खिलता जिस पर पुष्प-मन, डाल गई वो
टूट।।
2
पाखी तिनके खोजते, कहाँ बनाएँ नीड़।
जंगल हैं कंक्रीट के, दो पायों की
भीड़।।
3
नीड़ बनाया था जहाँ, कहाँ गई वो
डाल।
वाणी तो अब मौन है, नज़रें करें
सवाल।।
4
ओढ़ चाँदनी का कफ़न, सोई काली रात।
अपने मन को तो मिली, चुप्पी की
सौगात।।
5
चुप्पी हमने साधकर, कर डाला अपराध।
प्यासा हर पल रक्त का, समय बड़ा है
व्याध।।
6
बंद पड़ी सब खिड़कियाँ, खुले न
रोशनदान।
अवसादों के जाल से, मन का घिरा
मकान।।
7
बादल घिरते देखकर, चिड़िया है
बेहाल।
जिन शाखों पर घोंसला, रखना उन्हें
सँभाल।।
8
बालकनी में हैं रखे, कितने मौसम
साथ।
यादों वाली चाय है, हाथों में ले
हाथ॥
9
दुख गलबहियाँ डालकर, चलता हर पल
साथ।
याद नहीं किस मोड़ पर, छोड़ चला सुख
हाथ।।
10
सदियों से होता नहीं, लम्हों का
अनुवाद।
यादों की धारा बहे, मन सुनता है
नाद॥
Saturday, January 9, 2021
1040
सीमा सिंघल 'सदा'
2-मैंने कब कहा?
डॉ . महिमा
श्रीवास्तव
मैं तुम्हारी बहुत कुछ हूँ
यह भी ना कहा
कि कुछ तो हूँ
फिर क्यों मुझे कहा
तुम कौन?
मैंने कब कहा
मुझे अपना आकाश दो
या अपने हिस्से की
छाया ही दो
फिर क्यों मेरे पाँव तले की
ज़मीन खिसका ली गई?
मैंने कब कहा
मुझे याद तुम करो
या मुस्कुराने का बहाना दो
फिर क्यों आँसुओं की
बिन माँगी सौगात दी।
-0-
पता: 34/1,
सर्कुलर रोड, मिशन कंपाउंड के पास,
झम्मू होटल के सामने, अजमेर( राज.)- 305001
Mob.no. 8118805670
Email: jlnmc2017@ gmail.
Tuesday, January 5, 2021
1039
दोहे
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
रिश्ते- नाते नाम के,
बालू की दीवार
आँधी बारिश में सभी, हो जाते बिस्मार।
2
रिश्तों में बाँधा नहीं, जिसने सच्चा प्यार
जीवन- सागर को किया, केवल उसने पार।
3
सारी कसमें खा चुके, बचा नहीं कुछ पास।
जो फेरों का फेर था, तोड़ दिया विश्वास।
4
जीवनभर रहते रहे, जो- जो अपने साथ
बहती धारा में वही , गए छोड़कर हाथ।
5
मौका पा चलते बने, अवसरवादी लोग।
जीवन भर को दे गए, दुख वे छलिया लोग।
6
नीड तोड़ उड़ते बने, कपट भरे वे बाज।
बैठा सूनी डाल पर, पाखी तकता आज।
7
होम किए रिश्ते सभी, मन्त्र बने अभिशाप।
कर्म किए थे शुभ यहाँ, वे सब बन गए पाप।
8
दारुण दुख देकर हमें, तुम पा जाओ चैन।
शाप तुम्हें देंगे नहीं, दुआ करें दिन रैन।
9
सचमुच सब तर्पण किए, सप्तपदी सम्बन्ध।
बहा दिए हैं धार में, धोखे के अनुबंध।
10
दुख में तपता छू लिया, मैंने जिसका माथ।
आँधी में, तूफ़ान
में, वही बचा अब साथ।
11
क्या माँगूँ अपने लिए, यह सोचूँ दिन -रैन।
प्रियवर मैं तो माँगता, तेरे मन का चैन।
12
तेरा दुख पर्वत बना, हटे न तिलभर भार।
दर्द बाँट लें दो घड़ी, देकर निर्मल प्यार।
13
अधर तपे हैं दर्द से,घनी हो गई प्यास।
मधुरिम रस उर से झरे, तुम जो बैठो पास।
14
मन से मन के तार को, देते हैं सब तोड़।
जुड़ता केवल है वही, जिसकी दुख से होड़।
-0-
दोहे
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
रिश्ते- नाते नाम के,
बालू की दीवार
आँधी बारिश में सभी, हो जाते बिस्मार।
2
रिश्तों में बाँधा नहीं, जिसने सच्चा प्यार
जीवन- सागर को किया, केवल उसने पार।
3
सारी कसमें खा चुके, बचा नहीं कुछ पास।
जो फेरों का फेर था, तोड़ दिया विश्वास।
4
जीवनभर रहते रहे, जो- जो अपने साथ
बहती धारा में वही , गए छोड़कर हाथ।
5
मौका पा चलते बने, अवसरवादी लोग।
जीवन भर को दे गए, दुख वे छलिया लोग।
6
नीड तोड़ उड़ते बने, कपट भरे वे बाज।
बैठा सूनी डाल पर, पाखी तकता आज।
7
होम किए रिश्ते सभी, मन्त्र बने अभिशाप।
कर्म किए थे शुभ यहाँ, वे सब बन गए पाप।
8
दारुण दुख देकर हमें, तुम पा जाओ चैन।
शाप तुम्हें देंगे नहीं, दुआ करें दिन रैन।
9
सचमुच सब तर्पण किए, सप्तपदी सम्बन्ध।
बहा दिए हैं धार में, धोखे के अनुबंध।
10
दुख में तपता छू लिया, मैंने जिसका माथ।
आँधी में, तूफ़ान
में, वही बचा अब साथ।
11
क्या माँगूँ अपने लिए, यह सोचूँ दिन -रैन।
प्रियवर मैं तो माँगता, तेरे मन का चैन।
12
तेरा दुख पर्वत बना, हटे न तिलभर भार।
दर्द बाँट लें दो घड़ी, देकर निर्मल प्यार।
13
अधर तपे हैं दर्द से,घनी हो गई प्यास।
मधुरिम रस उर से झरे, तुम जो बैठो पास।
14
मन से मन के तार को, देते हैं सब तोड़।
जुड़ता केवल है वही, जिसकी दुख से होड़।
-0-
Thursday, December 31, 2020
1038-करो भोर का अभिनंदन
1-करो भोर का अभिनंदन
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मत उदास हो मेरे मन
करो भोर का अभिनन्दन!
काँटों का वन पार किया
बस आगे है चन्दन-वन।
बीती रात, अँधेरा बीता
करते हैं उजियारे वन्दन।
सुखमय हो सबका जीवन!
आँसू पोंछो, हँस देना
धूल झाड़कर चल देना।
उठते –गिरते हर पथिक को
कदम-कदम पर बल देना।
मुस्काएगा यह जीवन।
कलरव गूँजा तरुओं पर
नभ से उतरी भोर-किरन।
जल में ,थल में, रंग भरे
सिन्दूरी हो गया गगन।
दमक उठा हर घर-आँगन।
-0-
2-अलविदा-मंजूषा मन
मैं भी वैसे ही आया था
इस दुनिया में,
जैसे सब आते हैं
अबोध नवजात,
कोमल,
एक बर्फ़ीली रात में ठिठुरता,
नहीं जानता था
क्या होती है विपदा
दर्द और पीड़ा से अनजान
मैं...
खाली हाथ था,
नहीं लाया अपने साथ
शुभाशुभ का पूर्वाग्रह,
कोई रोना।
अभी चलना सीख ही रहा था
कि थम गया सब कुछ,
आपदाओं ने पसार लिए पाँव,
मैंने किसी को नहीं मारा,
कब्रों और जलती चिताओं का
मैं केवल साक्षी बना,
नहीं किया कुछ भी तहस नहस
मैंने अपने हाथों से,
मेरे सिर क्यों फोड़े सारे ठीकरे
मेरे माथे क्यों मढ़े सारे कलंक
सारी मौतें, सारी भूख
मुझे तो बीतना था पन्ने दर पन्ने
सो लो मैं बीत चला,
लाओ समेट कर धर दो
मेरे हाथों में सब
मैं लाया तो नहीं था
पर सम्भवतः ले जा सकूँ।
मैं... दो हजार बीस
ले जाऊँगा तुम्हारे दिए सारे आरोप,
तुम्हारी पीड़ा,
फिर कभी लौटकर न आऊँगा,
अलविदा... अलविदा... अलविदा...
-0-
डॉ सुरंगमा यादव
आओ मिल गाएँ स्वागत गीत!
जग देहरी पर नवल सूर्य का
देख आगमन हर्षित जन-मन
मंगलकारी-भव दुःखहारी
बन कर आया मीत
आओ मिल गाएँ स्वागत गीत !
क्रन्दन कलरव में बदले
टूटे तार जुड़ें मन के
गूँज उठे फिर जीवन में
खोया मृदु संगीत
आओ मिल गाएँ स्वागत गीत !
अभिनन्दन नववर्ष तुम्हारा
हर्षाए आँगन- चौबारा
गत दुःख की छाया से जग
फिर न हो भयभीत
आओ मिल गाएँ स्वागत गीत!
--0-
4- दीप हूँ मैं-पूनम सैनी
जल रहा है मेरा कण - कण
मिट रहा हूँ मैं प्रतिक्षण
अंधियारे से टक्कर लेता
रोशन जहाँ बनाता हूँ मैं
बस इतना ही सोचकर...
जन-जन के लिए एक सीख हूँ मैं
जलना काम है मेरा
दीप हूँ मैं...दीप हूँ मैं।
-0-
Thursday, December 17, 2020
1037-चलो भरें हम भू के घाव
ज्योत्स्ना प्रदीप
(जयकरी/ चौपई छन्द/
विधान~चार चरण,प्रत्येक चरण में 15 मात्राएँ,अंत
में गुरु लघु।दो-दो चरण समतुकांत।)
धरती जीवन का आधार।
धरती पर मानव - परिवार ।।
जीव - जंतु की भू ही मात।
धर्म - कर्म कब देखे
जात।।
झील, नदी,
नग ,उपवन,खेत ।
हिमनद, मरुथल
, सागर,रेत ।।
हिना रंग की मोहक भोर।
खग का कलरव नदिया शोर।।
करे यहाँ खग हास -
विलास ।
अलि ,तितली
की मधु की प्यास।।
तारों के हैं दीपित वेश।
सजा रहे रजनी के
केश।।
नभ में शशि -रवि के
कंदील।
चमकाते धरती का शील।।
युग बदला मन बदले भाव ।
मानव के अब बदले चाव
।।
हरियाली के मिटे
निशान ।
वन , नग
काटे बने मकान ।।
मानव के मन का ये
खोट ।
मही -हृदय को देता
चोट ।।
मत भूलो हम भू
- संतान ।
करो सदा सब माँ
का मान।।
हरियाली का कर
फैलाव ।
चलो भरें हम भू
के घाव।।
b
-0-
Friday, December 11, 2020
तीन कविताएँ
डॉ. सुरंगमा यादव
थक न जाएँ कदम
तुम्हारी ओर बढ़ते-बढ़ते
कुछ कदम तुम भी बढ़ो न !
चलो यह भी नहीं तो
हाथ बढ़ाकर थाम ही लो
ये भी न हो अगर
तो मुस्कराकर
इतना भर कह दो
'मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा है'
बस मैं सदा तुम्हारी ओर
बढ़ती रहूँगी!
-0-
2-बड़ी हुई है नाइंसाफी
भावना सक्सैना
राजधानी का रुख करते हैं,
सत्ता से हैं बहुत
शिकायत
सड़कें जाम चलो करते
हैं।
हम तो रस्ता रोकेंगे
जी
कहीं कोई फँस जाए हमें क्या
अपनी ज़िद पर हम
डटते हैं।
वह तो अपने लिए नहीं
जी
वंचित का चूल्हा बुझ
जाए
हम अपने कोष हरे रखते
हैं।
टैक्स रुपये का नहीं
चुकाएँ
कर देने वाले, दे ही देंगे
तोड़-फोड़ हम तो करते
हैं।
देश हिलाकर हम रख
देंगे
हम स्वतन्त्र मन की
करने को
आम जनों को दिक करते
हैं।
कुर्सी के लालच, पक्ष हमारे
अपनी बुद्धि गिरवी
रखकर
हम कठपुतली से हिलते
हैं।
राजधानी का रुख करते
हैं,
सत्ता से हैं बहुत
शिकायत
सड़कें जाम चलो करते
हैं।
-0-
संध्या झा
जिसने किताबों से दोस्ती कर ली
वो फिर अकेला कहाँ ।
किताबों ने बस दिया ही दिया है ।
उसने कुछ लिया है कहाँ ।
किताबों को जिसने
अपना हमसफ़र बनाया है ।
किताबों
ने भी हर राह पर साथ निभाया है ।
किताबें
आपकी सोच में फ़र्क़
करती है ।
किताबें आपको ज़मीं से आसमाँ पे रखती
है ।
किताबें सहारा किताबें किनारा ।
किताबें अँधेरी गलियों में चमकता सितारा ।
किताबों की सोहबत
जैसे ख़ुद से
मोहब्बत ।
किताबे सवारे बिगड़ी
हुई सीरत ।।
-0-