रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
पथ के साथी
Monday, May 16, 2022
Sunday, May 15, 2022
1208-कच्चे रास्ते की उम्र
भीकम सिंह
स्कूल जाने को
एक पगडण्डी थी
जो बारिश में
छिप जाती थी
एक रास्ता भी था
परन्तु कच्चा था
हमारी उम्र जैसा
बारिश में-
हम एक साथ भीगते
नाले, ताल
-तलैया
सब छिपे होते
उस रस्ते में
और नाव
हमारे बस्ते में
बारिश में उनका
थोड़ा- सा रूप
झलकता
तो हमारा
मन मचलता
अक्सर
मूसलाधार के तीरे
हमारी नाव डूबती
धीरे- धीरे
नंगे पैर पानी
खेतों में उतर जाता
फुर्तीले कदम रख- रख
फावड़ा भी थक जाता
बहाव में चलता- चलता
।
दूसरी सुबह
नाव ढूँढने की
परेड शुरू होती
भीगता हुआ फावड़ा
बीज ढूँढता
हमसे पूछता
आज फिर
रैनी-ड़े हुआ
?
सोये हुए बादल
अँगडाते
फावड़े का चेहरा
बहा ले जाते
घर पहुँचकर फावड़ा
धम्म से गिर जाता
और हम भी
गाय -भैंस देखतीं
लो ! आज फिर
चूल्हे का धुआँ
होगा थिर
उपले मरेंगे
गिर - गिर
फिर सूखा फूस ही
याद में आता
निर्धनता की तस्वीर जैसा
खींच लिया जाता
चूल्हा जलता
घर पलता
।
तीसरी सुबह
पगडण्डी की पीठ खुलती
करुणा और क्रूरता
फिसलन में चलती
हँसी-ठट्ठे के साथ
थोड़ी शर्म
थोड़ा गर्व
लेकर हम
चौमासे का पर्व
मना रहे होते
थोड़ी दूर पर
वो बीज मिलता
दूसरे खेत में
फूलता-फूलता
फटे चीथड़े पहने
पानी मिलता
लंगर डाले
हमारी नाव मिलती
स्कूल के दो दिन
वहीं दबे
मिलते
जो बताते
ऐसे ही बहता है जीवन
हम कुछ और
देखने का प्रयास करते
लेकिन हमारे पास
स्कूल जाने के सिवा
कोई रास्ता नहीं बचता ।
-0-
Wednesday, May 11, 2022
1207-गुलमोहर
अंजू खरबंदा
1
एक दिन
तुम्हारी प्रतीक्षा करते हुए
इकट्ठे कर लिये मैंने
ढेर सारे गुलमोहर,
तुम आई तो मुस्कुराते हुए
उछाल दिए तुम्हारी ओर
अचानक
फूलों का सुर्ख रंग
तुम्हारे चेहरे पर उतर आया!
2
एक दिन
मेरा इंतजार करते हुए
तुमने चुन लिए ढेर सारे गुलमोहर
मेरे आने पर
मेरी ओर उछाले और खिलखिला कर हँस दी
यूँ लगा मानो
सारी सृष्टि खिलखिला उठी हो!
3
कल रात
यादों की डायरी खोली
उसमें रखे
गुलमोहर से मुलाक़ात हुई
फिर सारी रात
सिर्फ अँखियों में कटी!
-0-
Sunday, May 8, 2022
1206- धूप गुनगुनी-
शशि पाधा
धूप गुनगुनी छाई है,
लगता जैसे दूर देस से
माँ मुझे
मिलने आई है ।
भोर किरण ने चूम के पलकें
सुबह सुबह जगाया था
धीमे धीमे खोल के खिड़की
रंग स्वर्णिम बिखरया था
शीतल मंद पवन छुए जो
आँचल क्या वह तेरा है?
नीले अम्बर में बदली- सा
तेरे
स्नेह का घेरा है ?
अंग अंग को सिहरन देने
आई जो पुरवाई है
लगता जैसे दूर देश से
माँ ही मिलने आई है ।
भरी दोपहरी में अम्बर से
बिन बदली ही मेह झरा
खाली सी थी मन की गगरी
किसने आकर नेह भरा?
आँगन में तुलसी का बिरवा
धीमे धीमे डोल रहा
सौगातों से भरी पिटारी
धीरे से कोई खोल रहा |
अम्बुआ की डाली के नीचे
बैठी जो परछाई है
लगता जैसे दूर देश से
माँ ही मिलने आई है ।
देख न पाती माँ मैं तुमको
फिर भी तुम तो यहीं कहीं
आँगन में या बगिया में हो
कलियों में तुम छिपी कहीं|
एक बार भी मिल जाती तो
जी भर तुमसे मिल लूँ माँ
नयनों में भर सूरत तेरी
पलकों को मैं मूँद लूँ माँ
जानूँ तू तो यही कहेगी
माँ भी कभी परायी है ?
फिर क्यों लगता बरसों बाद
तू मुझसे मिलने आई है?
फिर क्यों लगता बरसों बाद -------
Saturday, May 7, 2022
1205-माँ की उँगलियाँ
आशमा कौल
इस उम्र में भी माँ
फेरती है बालों में
जब प्यार
से उँगलियाँ
अचानक बरसों पुरानी
नींद लौट आती है
इन बरकती उँगलियों की
थिरकन से बनी रोटियाँ
जैसे जन्मों की
भूख
मिट जाती है
न जाने इन उँगलियों में
कैसा
अजब सा जादू है
यह ढलती उम्र को
बचपन बनाती हैं
पुरानी यादों के
झरोखे से
जादूगरी यह उँगलियाँ
सपनों में
परियाँ दिखाती है
बिखरे-उलझे जीवन से
संजीदगी दर-किनार कर
रोना सिखाती है
हमें हँसना सिखाती है
इन
फनकार उँगलियों की
मधुर
थाप
थकन रस्ते की दूर कर
मंजिल पर लाती है
और चूम कर चेहरा हमारा
ले
हथेलियों में
माँ हमें
दुनिया दिखाती है
इन उँगलियों पर
गिनकर जीवन का गणित
माँ हमें हर हाल में
जीवन का हल बताती है
गहन
सोच की वीरानियों में
गुम होते हैं जब हम
यह उँगलियाँ प्यार
से
कितना रिझाती है
पोंछकर संदेह की गर्द
जिंदगी
के आइने से
माँ की उँगलियाँ हमें
सबका असली चेहरा
दिखाती है
यह
खुदगर्ज दुनिया
बिछाती है हमारे सामने
जब मुश्किलों की बिसात
तब माँ, हर चक्रव्यूह को
भेदना सिखाती है।
-0-
कृषि मंत्रालय , भारत सरकार की सेवा निवृत्त अधिकारी
Friday, May 6, 2022
1204- तीन रचनाकार
1-डॉ . भीकम सिंह
1-स्मृति
एक जुगनू था
सूरज का स्वप्न देखता
तारों-सा झरता
रोशनी के टुकड़े
उठा-उठाकर
मारा - मारा फिरता
वहीं मेरा प्रेम था
रात - सा गहरा
बिठा कर पहरा
सुबह होने से डरता ।
2-गर्त
कुछ नेताओं को
शादी-समारोह में बुलाकर
हम धन्य हो जाते हैं
मित्र खटखटाते रह जाते हैं
हमारी भावनाओं के दरवाजे
जिन्हें हम
कामकाजी
तरीकों से खोलते हैं ।
आओ और चल दो
अपना सम्मान बचाने के लिए
मित्र जानते हैं
हम हाथ जोड़कर
नेताओं के आगे- पीछे
कस्तूरी की खोज में लग जाते हैं
हमारी आस्था मित्र कहाँ तोलते हैं ।
हमने सोचा नहीं था
चापलूसी का भी गर्त है
जिसमें -
लहूलुहान रिश्तों की पर्त है
हम स्वार्थ में डूबते
रसातल में पहुँचकर
कहकहे खोजते हैं ।
हम सफल हैं
ऐसा हम मानते हैं
चापलूसी सलामत रहीं
तो सफलता के झरोखों से
खुद्दारी भी देख लेंगे
जिसे
कुछ सिरफिरे पोषते हैं ।
-0--
2-रश्मि लहर, लखनऊ
1
स्वेटर में भाव समाहित कर
रिश्ते बुनना जाने थीं तब
ईंटें चुनकर अपना एक घर
अम्मा गढ़ना जाने थीं तब
अपने रुनझुन से ऑंगन में
किलकारी भरते बचपन में
मनमोहक नन्हे क़दमों संग
अम्मा सजना जाने थीं तब
अपने हाथों की गर्मी से
सपनों की छिपती नर्मी से
एहसासों से अनुभव चुनकर
अम्मा बॅंटना जाने थीं तब
अक्सर टकराहट होती थी
टेढ़ी-मेढ़ी- सी रोटी की
मीठी झिड़की दे सबका मन
अम्मा भरना जाने थी तब
चेहरे जब रंग बदलते थे
उखड़े-बिलखे जब लगते थे
चुप्पी के हर एक भावों को
अम्मा पढ़ना जाने थी तब
निर्धन की आकुल क्षुधा मिटा
निर्दोष क्लेश को परे हटा
पलकों पर उज्ज्वल समय सजा
अम्मा बसना जाने थीं तब
हालात से नहीं हारी थीं
अपनों पर जीवन वारी थीं
अपने कुटुम्ब की अल्पे ले
अम्मा मिटना जाने थीं तब
-0-
2
तुम!
इस तरह आना..
कि जैसे बहते ऑंसुओं को
खिलखिलाहट धो जाए..
मन के उचाट विचार ..
चुपचाप..
प्रेम के आँचल में खो जाएँ!
तुम इस तरह आना..
कि
विहस उठे क्षितिज पर संध्या..
और
दौड़कर गले लगा ले..
चाँद
को!
विरही धरा..
तुम इस तरह आना!
-0-
3-प्रीति अग्रवाल कैनेडा
क्षणिकाएँ
1.
मैं नदिया होकर
भी प्यासी,
तुम सागर होकर
भी प्यासे,
'गर ऐसा है
तो ऐसा क्यों,
दोनों पानी...
....दोनों प्यासे!
2.
उनींदी अँखियाँ
तलाशती सपनें
जाने कहाँ गए
यही तो हुआ करते थे....
उनके पूरे होने की आस में
हम दोनों जिया करते थे....।
3.
करिश्में की चाहत में
कटते हैं दिन,
हम ज़िंदा हैं
करिश्मा ये
कम तो नहीं....!
4.
मेरी कमरे की खिड़की
छोटी सही....
उससे झाँकता जो सारा
आसमाँ, वो मेरा है !
5.
यूँ तो होते हो
पास, बहुत पास
हर पल....
शाम होते ही मगर
याद आते हो बहुत।
6.
जानती हूँ मुझसे
प्रेम है तुम्हें,
दोहरा दिया करो
फिर भी,
सुनने को जी चाहता है....!
7.
चलना सँभलके
इश्क नया है...
सँभल ही गए
तो, इश्क कहाँ है!
8.
रिश्ते
बने कि बिगड़े
सोचा न कर,
थे सिखाने को आए
सिखाकर चले....।
9.
तुम्हारे कहे ने ही
दिल को
छलनी कर दिया,
अनकहे तक तो हम
अभी पहुँचे ही नहीं....!
10.
गिनवाते रहे
तुम अपने गिले,
हम इस कदर थके
कोई शिकवा न रहा...।
11.
एक बार बचपन में
चाँदी का सिक्का उछाला था
चित-पट तय हो ही न पाई
वो जाकर
आसमान में जड़ गया,
वही तो है
जो चाँद बन गया!
-0-