थोड़ा सा नेह
कमला निखुर्पा
औ छलक उठा
मन दीपक।
दिप-दिप जल उठी
सोई थी जो बाती।
लगन की लौ
लहककर जल उठी
लगने लगी
हवा से होड़
जलने की
बुझने की।
हवा चलती रही
दिया जलता रहा
नन्ही एक हथेली
करती रही ओट
भरती रही नेह
मन दीपक में।
थोड़ा सा नेह
कमला निखुर्पा
औ छलक उठा
मन दीपक।
दिप-दिप जल उठी
सोई थी जो बाती।
लगन की लौ
लहककर जल उठी
लगने लगी
हवा से होड़
जलने की
बुझने की।
हवा चलती रही
दिया जलता रहा
नन्ही एक हथेली
करती रही ओट
भरती रही नेह
मन दीपक में।
सुकून
स्वाति शर्मा
सुकून की खातिर
घर से दूर आ गए
अपने छोड़े,
रातों के सपने छोड़े
जीवन में तन्हाई
गमों में गहराई,
ना खाने का होश
ना पीने की सुध
बस चलते जा रहे
पाई- पाई जोड़
रहे
दोस्ती टूटी
रिश्ते छूटे
बस इक सुकून की खातिर
सबसे दूर आ गए
सुकून की खातिर
घर से दूर आ गए।
-0-
जय भारती
हिमगिरि का पहने जो ताज है
जय भारती, जय- जय भारती
मिलकर उतारेंगे आरती
जय भारती,जय- जय भारती
वेदों के
गूँजें
यहाँ मंत्र हैं
रामायण-
गीता- से ग्रंथ हैं
ऋषियों ने दिये गूढ़मंत्र हैं
यहीं हैं
अपाला और गार्गी
जय भारती, जय- जय भारती
बंसी बजाई यहाँ श्याम ने
मर्यादा सिखलाई राम ने
पावन किया चारों धाम ने
प्रयाग-धार
भव से उतारती
जय भारती, जय-जय भारती
चरणों को सागर पखारता
दिग्दिगंत
ओम ही उचारता
स्वर्ग
से है इसकी समानता
ऋतुएँ भी रूप आ निखारतीं
जय भारती, जय-जय भारती
नदियों का माँ जैसा मान है
अतिथि यहाँ देवता समान है
वीरों ने वार दिये प्राण हैं
जब-जब
वसुंधरा पुकारती
जय भारती, जय- जय भारती।
-0-
प्रेम की प्रतीक्षा में... (सॉनेट)
अनिमा दास
प्रेम की प्रतीक्षा में तपोवन की
तपस्विनी कह रही क्या सुन
मेदिनी वक्ष में कंपन मंद- मंद, ऐसी तेरे स्पंदन की धुन
बूँद-बूँद शीतल-शीतल तेरे स्पर्श से सरित
जल कल-कल
मंदार की लालिमा- सा क्यों दमकता तपस्वी मुखमंडल?
रहे तम संग जैसे शृंग गुहा में खद्योत, ऐसे ही रहूँ त्रास संग
अयि! तपस्वी,मंत्रित कर अरण्य नभ,भर वारिद में सप्तरंग
शतपत्र पर रच काव्यचित्र मेरी काया को कर
अभिषिक्त
अयि! तपस्वी,त्रसरेणु- सी विचरती,कर
स्वप्न में मुझे रिक्त।
कह रही तपस्विनी, तपस्वी हृदय की अतृप्त तरुणी
रौप्य-पटल पर कर चित्रित मुग्ध मर्त्य,दे दो मुक्त अरुणी!
तपस्या हुई तृप्त, नहीं है क्षुधा का क्षोभ क्षरित स्वेदबिंदु में
समाप्ति के सौंदर्य से झंकृत बह रही निर्झरिणी
सिंधु में।
अयि तपस्वी! मोक्ष की इस सूक्ष्म धारा
में है समय,कर्ता
स्मृति सहेजती तपस्विनी के द्वार पर मोह
है मनोहर्ता।
-0-
कटक, ओड़िशा
छलिया सपने
सविता अग्रवाल 'सवि'
जब सारा जग सो जाता
है
मैं सपनों से ही लड़ती
हूँ
बंद नयन के द्वारों
पर
क्यों दस्तक देकर आते
हो ?
साकार नहीं होना होता
तो क्यों नयनों में
सजते हो?
तुम कौन देश से आते
हो?
और कौन दिशा को जाते
हो?
छलिया बन मुझको छलते
हो
परदेसी बन चल देते हो
मेरी नींदों को मित्र
बना
मुझसे ही शत्रुता करते
हो
बालक को लालच देते हो
फिर छीन सभी कुछ लेते
हो
मन में मेरे एक दीप
जला
क्यों आँधी बन आ जाते
हो
उषा की किरणों में मिल
कर
क्यों धूमिल से हो जाते
हो
शबनम की बूँदों की भांति
क्यों मिट्टी में सो
जाते हो
मन मेरे में एक आस जगा
नव ऊर्जा सी भर देते
हो
पल भर में क्यूँ शैतान से तुम
मुझे चेतनाहीन बनाते
हो
जब सारा जग सो जाता
है
मैं सपनों से ही लड़ती
हूँ
छलिया सपनों संग रोज़
रात
मैं यूँ ही झगड़ा करती
हूँ |
-0-
हरसिंगार
सुरभि डागर
हरी-हरी डालियों पर
भरे हरसिंगार के फूलों से
वायु भी सुरभित हो
हृदय को स्पर्श कर
मन को सिंचित कर देती,
मानों रात ही महक उठी हो ।
सुवह की भोर में शाख से झरकर
बिखर जाते हैं धरा की गोद में,
किसी की पूजा की थाली में
हो जाते हैं महादेव पर
समर्पित
और पूर्ण हो जाती है
गंगाजल में विसर्जित होकर
हरसिगार की जीवन-यात्रा।
बस ये ही जीवन है ! ! !
-0-
-0-
माँ का मायका
खो गया था माँ का मायका
जिस दिन खोई थी मेरी नानी
नानी के साथ-साथ खो गया था
वह नक्शा जिस पर अंकित थे
माँ की पहली किलकारी
पहले क़दम और पहले शब्द के नक़्श
युवा होती माँ के सतरंगी सपनों
शरारतों ज़िदों प्यार और मनुहार का बही ख़ाता
कैसे ममता में डुबो-डुबोकर सुनाती थी नानी
इकलौती बेटी के लड़कपन के किस्से
न चाहते हुए भी जल के राख हो गई
नानी के साथ सारी बही
ग़म ओढ़े गुमसुम सी माँ ठंडी साँसें भरती
औचक सिर हिलाती बुदबुदाने
लगती
माँ तो माँ ही होती है
भले वह तैराक न हो पर जानती है तारना
डरना क्यों? मैं हूँ ना! कहकर
ताल में उतरने का देती है हौसला
माँ ऐसा भरोसा जो कभी डूबने नहीं देता
ख़ुद अनजान होती है उड़ान से
पर हमें सपनों के पंख लगाकर
दिन-रात उड़ाती है सातवें आसमान तक
मेहरबानियों से भरा रखती है घर द्वार आले दीवार
किसी से न तो कुछ माँगने का ढब जानती है
न किसी बात को मना करने का
बस आठों पहर होठों पे रखे असीस बाँटती है
दरियां खेस भले बुनना जाने न जाने पर
रिश्ते बुनने में बड़ी माहिर होती है
यादों को फ़ोलती माँ फिर-फिर सुबक उठती
उसकी आँखों में
आँसुओं के संग
तैर रहे हैं नानी के संग के प्रसंग
बीता हुआ प्रत्येक क्षण कसमसा रहा है अंतस को
माँ को यूँ दुख में निढाल देख
अचानक युवा हो गए मेरे काँधे
उसकी आँखों में उमड़ते सैलाब को
बाँध लगाने को प्रयासरत थीं मेरी हथेलियाँ
माँ को सीने से लगाकर सुनने लगा था मेरा सीना
माँ की अपूरणीय क्षति की चित्तकार
निर्जीव सी खोखली हुई माँ के
दुख की थाह को मापने को जुटी थीं
मेरी नाक़ाम कोशिशें
हर बार शून्य ही मिल रहा था
मेरे अंदाज़ों का परिणाम
बार-बार माँ को धीरज बँधाने को
ख़ुद से सटाते हुए सोच रही थी
कि नानी के गम में यूँ घुल-घुलकर
कहीं चली गई जो मेरी भी माँ
तो कौन सटाएगा मेरी तरह
मुझे सांत्वना देने को अपने सीने से।
-0-
1- हथकटी ठाकुर
छुट्टी वाले दिन
जब पतिदेव
हर घंटे दो घंटे बाद रह-रहकर बोलें-'तुम्हारे
हाथों की बनी हुई चाय पीने का मन कर रहा है'
'गरमागरम कॉफी पीने को जी मचल रहा है’
सच बता रहें हैं हम-
हमारी आत्मा
कह उठती है-
हे प्रभु!
हमें 'शोले पिक्चर' वाले 'ठाकुर साहब' क्यों
नहीं बना देते आप?
'हथकटी ठाकुर लिली की गुहार'
-0-
सुनो लड़कियो! शायरों से खुद को बचाकर रखना,
बहुत ही 'डेंजरस
प्रजाति' हैं- रे बाबा!
एक शायर साहब ने कहा है -
'चाँद शरमा जाएगा, चाँदनी रात में
यूँ ना जुल्फों को अपनी सँवारा करो'
हैं!
...
मतलब?
...
हम बेचारी हॉलोविन की डायन बनी फिरती रहें क्या!!
-0-
3- इज़हार-ए-ख़ौफ़
जैसे ही हमारे हाथ में ये पोछे वाला
डंडा-बाल्टी आता है, हमारे घर के वातावरण में एक ख़ौफ पसर जाता है,
और फिर बजता है, बैकग्राउंड में
स्पॉटीफाई (म्यूजिक ऐप) पर बारम्बार 'सुधा रघुनाथन'
की आवाज में-
'भो शम्भू
शिव शम्भू
स्वयं भो,'
ढिढिंग ढिढिंग मृदंगम् की जबरदस्त ऊर्जा से भरपूर स्वर – संगीत- लहरी पर एकदम तांडवीमुख मुद्रा लिये
पोंछा मारते हुए, हम! सामने कोई आ जाए, उस वक्त तो एक जोड़ी ज्वलंत दृष्टि से- ढाँय...
एकदम्म फायर!!
एक दिन बिचारे हमारे पतिदेव ने 21 वर्ष
बाद हमसे कबूला कि सुनो लिली, तुम्हारे इस अवतार को देखकर
हम डर के मारे काँप जाते हैं, भीतर
तक।
अरे बता नहीं सकते आप लोगों को, के हम केतना खुस हुए ये 'इजहारे- ख़ौफ' सुनकर
सच्ची!
तो बोलो-
भो शम्भो, शिव शम्भो, स्वयंभो
भो शम्भो, शिव शम्भो, स्वयंभो
गङ्गाधर शंकर करुणाकर मामव भवसागर तारक...।
-0-
बहुत बड़ा पहाड़- सा लक्ष्य साधने के लिए कभी-कभी मेहनत, लगन,
एकाग्रता, तत्परता, जैसे प्रेरणाप्रद, जोशीले, चॉकोलेटी मनोभावों के साथ कुछ 'कड़वे
करेले-दूजे नीम चढ़े 'जहर मनोभावों का सम्मिश्रण करना
परमावश्यक हो जाता है, जैसे- बेवजह पतिदेव से झगड़ लेना,
अपनी गलतियों का दोषारोपण उन पर लगाना, सामान्य
सी बातों का बतंगड़ बनाकर तू-तू, मैं-मैं का परिवेश
निर्मित करना। इससे होगा यह कि आप तिड़कती -भिड़कती उठेंगी क्रोध के आवेश में सिंक
में ढेर लगे बर्तन फटाफट निकल जाएँगे, उबलते गुबार में तन का सारा आलस्य रफूचक्कर हो जाएगा कुछ देर पहले तक
फैले घर के सारे कामों को निपटाने का पहाड़- सा लक्ष्य
झटपट निपट जाएगा।
रही बात पतिदेव के बिगड़े मिजाज ठीक करने की... एक कप गरम चाय /
कॉफी बनाइए
बेवजह झगड़े की वजह बताइए... अपनी गलतियों का दोषारोपण उन पर से
हटाइए और तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रण में लाइए।
( आवरण एवं सभी रेखाचित्र;सौरभ दास)