1-भारत
माँ ने आँखें खोलीं(चौपाई )
ज्योत्स्ना प्रदीप
भारत माँ ने आँखें खोलीं,
देखो वो भी कुछ तो बोली ।
बालक मेरे हैं अवसादित,
पथ ना जानें क्यों हैं बाधित।
वसुधा वीरों की मुनियों की,
ज्ञान कोष थामें गुनियों की।
कोई तो था प्रभु का साया,
कोई गंगा भू पर लाया ।
संतानें अब बदल गई हैं,
माँ की आँखें सजल भई हैं ।
निकलो अपनी हर पीड़ा से,
खुद को सुख दे हर क्रीडा से ।
कुटिया चाहे ठौर बनाना ,
घी का चाहे कौर न खाना।
पावनता को अपनाना है,
नवयुग सुख का फिर लाना है।
किरणें थामे नैन कोर हो,
सबकी अपनी सुखद भोर हो ।
बनना खुद के भाग्य विधाता,
आस लगाये भारत माता ।
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1-
मैं आजाद हूँ -
सत्या शर्मा ‘ कीर्ति’
आओ आज मनाते हैं आजादी का जश्न
तुमने दिया मुझे नव भविष्य की कल्पना
और आजाद होने की अनुभूति ।
और हो गयी मैं आजाद.....
तोड़ दी सारी बंदिशें......
अपनी मासूमियत भरी कोमल
भावनाओं का चोला उतार फेंका मैने
क्यों जकड़ कर रखूँ खुद को
मर्यादा ,सभ्यता ,
शान्ति और देशप्रेम
की जंजीरों से ।
मैं आजाद हूँ .....
और मुझे क्या लेना कि
सरे आम किसी की मासूमियत
से खेली
जाए / भरे बाजार किसी लाचार
बाप की पगड़ी उझाल दी जाए /
मासूमों को
बेच दिया जाए ...
मैं तो आजाद हूँ ...
मुझे कोई फर्क नही पड़ता
भगत सिंह , चन्द्रशेखर
,सुभाषचंद्र बोष
जैसे देश भक्तो के बलिदान से ।
क्योंकि मैं आजाद हूँ .....
काला धन से तिजोरियों को भरने
के लिए / सांस्कृतिक धरोहरों पर अपने
नाम गुदवाने के लिए / गरीबों के जमा पूँजी
पर अपने लिए महल बनाने के लिए ।
हाँ हूँ आजाद मैं....
मुझे कोई फर्क नही पड़ता / उजाड़ जाने दो
ये उपवन ये मनभावन जंगल / बन जाने दो
कंक्रीटों के महल / हो जाने दो गंगा को
अपवित्र।
मुझे क्या मै तो आजाद हूँ ....
और सुनों,
तुम भी आजाद हो मेरी तरह
अपने वर्तमान की व्यापकता को पहचानो
मत पोछो किसी के आँसू
मत दिखाओ सहानुभूति बाले बादल ।
चलो मिल कर खाते हैं बारुद ,
पीते हैं रक्त और लगाते हैं जोर का अट्टहास
कि मैं आजाद हूँ .........
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2-शहीदों
के नाम -सत्या
शर्मा ‘कीर्ति
आज मौन हैं मेरे शब्द
नहीं लिखनी मुझे कोई कविता
क्या सचमुच इतने समर्थ है मेरे शब्द
इतनी सार्थक है मेरी अभिव्यक्ति / कि
रच दूँ आपके बलिदानों को सिर्फ एक
कविता में....
हाँ, नहीं लिखनी मुझे अपने जज़्बात
अपने अंदर उपजे असीम वेदना की लहर..
कैसे व्यक्त कर दूँ कुछ चन्द शब्दों में
आपके बच्चों की चीत्कार जो आपके
पार्थिव शरीर से लिपटकर गूँजी थी...
और किया था आपकी माँ ने अपनी ममता का
अंतिम श्राद्ध...
क्या लिख पाऊँगी / कि मृत्यु के अंतिम
पलों में भी
बह रहे थे आपकी आँखों से देश भक्ति
का प्यार /
कि आपने कहा होगा फहरा लूँ आज तिरंगे को
आखरी बार / कि गोलियों से छिदे सीने में भर ली होगी
वतन की पवित्र मिट्टी /
कि आपने अपने कुनबे को
‘हम जैसों’ के हवाले कर हो गए शहीद......
मत रोकना आज मेरे कलम से बहते रक्त..
सचमुच व्यर्थ हैं मेरे शब्द / खोखले हैं मेरे आँसू
जो आपके बलिदान का मान नहीं रख सकते ।
पर हाँ .. डरती हूँ फिर भी कि आपका बलिदान भी
न बनकर रह जाए कोई ‘टॉपिक’............
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2-अर्धनारीश्वर
- -सत्या शर्मा ‘कीर्ति
कौन हूँ मैं
क्या आस्तित्व है मेरा
हूँ ईश्वर की भूल या
रहस्यमयी प्रकृति का प्रतिफल ...
है शब्दों , अर्थों से परे एक वजूद मेरा
पूर्ण- सा / सम्पूर्ण- सा
क्योंकि अधूरे भावों का विस्तार नही है मुझमें /
न स्त्रियों -सा तुम्हें रिझाने की है चिन्ता
ना पुरुषों-सा पुरुषत्व दिखाने की चेष्टा
खुश हूँ अपनी सृष्टि से..
क्योंकि देखा है मैंने खुद के अंदर
जन्म लेती हुई माँ को
गाती हूँ जब अनजाने से घरों में
आशीषों भरे कोई मधुर से गीत
तब मेरे दिल से उतर इक मासूम-सी माँ
लेती है बलाएँ नन्ही-सी कली की
अपनी आँखों की गोद में बैठा झुलाती है वो झूले
और लौट आती है हौले से
अपने इस कठोर से तन में ..
देखा है पनपते पिता का वात्सल्य
जब अकेली मासूम के साथ खेलना चाहता है
कोई वहशीपन
तो चिंघाड़ पड़ता है एक आदर्श पिता-सा
करता है रक्षा हजार हाथों से
और लौट आता है इस कोमल से दिल में
हाँ तो सुनो
मैं तो पूर्ण हूँ अपने मन के विस्तृत धरातल पर ..
नहीं हूँ प्रकृति की कोई गलती मैं
मैं तो हूँ प्रकृति का उपहार कोई
क्योंकि महसूस किया है मैंने अक्सर
मैं ही हूँ अर्धनारीश्वर ।
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