पथ के साथी

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Friday, September 17, 2021

1132

 

1-अश्रु -भीकम सिंह 

 


नैनों में घिरे

घटा-से 

कभी 

पलकों से झरें ।

उर से 

उलझे हैं 

अभी 

क्या करें, क्या ना करें 

अधरों 

तक आ जाते हैं 

ये अश्रु 

और कहाँ मरें ।

-0-

2-घनाक्षरी छंद

- निधि भार्गव मानवी


 नैनन बसाय तोहे, रख लूँ आ बालमा  मैं,


हँसता  गाता  खेलता
, प्रीत का संसार  दूँ

माँग में सजा के प्रीत, लिख डालूँ नयी रीत

मन  भावनी  ऋतु  से, जीवन  सँवार  दूँ

अँखियों को चार कर, नेह की मिठास भर

सारे   सुख   जगत  के, प्रियतम  वार   दूँ

चंदा मैं  चकोर तुम, आशाओं की भोर  तुम

अपनी  कोमल  बाँहों  का आ तोहे हार  दूँ

                               -0-

Thursday, December 17, 2020

1037-चलो भरें हम भू के घाव

ज्योत्स्ना प्रदीप

(जयकरी/ चौपई छन्द/

विधान~चार चरण,प्रत्येक चरण में 15 मात्राएँ,अंत में गुरु लघु।दो-दो चरण समतुकांत।)

 

धरती  जीवन   का   आधार।


धरती  पर   मानव - परिवार ।।

 

जीव - जंतु  की  भू  ही  मात।

धर्म -  कर्म  कब   देखे   जात।।

 

झील, नदी, नग ,उपवन,खेत ।

हिमनद, मरुथल , सागर,रेत ।।

 

हिना  रंग   की    मोहक   भोर।

खग का  कलरव  नदिया  शोर।।

 

करे यहाँ  खग   हास - विलास ।

अलि ,तितली की मधु की प्यास।।

 

तारों  के   हैं    दीपित    वेश।

सजा   रहे   रजनी  के   केश।।

 

नभ  में  शशि -रवि  के कंदील।

चमकाते   धरती   का  शील।।

 

युग बदला  मन बदले   भाव ।

मानव  के  अब बदले  चाव  ।।

 

हरियाली   के   मिटे    निशान ।

वन , नग   काटे  बने   मकान ।।

 

मानव  के   मन  का ये  खोट ।

मही -हृदय   को  देता  चोट ।।

 

मत   भूलो   हम  भू - संतान ।

करो सदा  सब  माँ  का  मान।।

 

हरियाली  का   कर   फैलाव ।

चलो भरें  हम  भू   के   घाव।।

b

 

-0-


Wednesday, June 17, 2020

1008


1....क्योंकि तुम वृक्ष हो..
                 - डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
तुम-
हमारी ही तरह ,
पलते हो ,बढ़ते हो,
फलते हो, फूलते हो ,फैलते हो
फिर भी हमसे कितने अलग दिखते हो
क्योंकि,
तुम वृक्ष हो मनुष्य नहीं।
दो गज ज़मीन भी तो नहीं चाहिए तुम्हें
बस,बित्ते भर जगह में खड़े हो जाते हो,
हवा से, धूप से , मिट्टी से और पानी से
अपना जीवन चलाते हो।
धरती से खींच कर प्राण रस
अपनी ऊर्जा से मीठे फल बनाते हो,
दुनिया भर को खिलाते हो,
और खुद
आनन्द से नाचते हो/गाते हो/ताली बजाते हो
क्योंकि तुम वृक्ष हो मनुष्य नहीं।
तुम्हारा अनंत विस्तार,
तुम्हारा विराट रूप भी
आतंकित नहीं करता किसी को
क्योंकि तुम जितना ऊपर बढ़ते हो
भीतर भी उतना ही उतरते हो,
तुम्हें किसी से ईर्ष्या नहीं/द्वेष नहीं
तुम्हारे अंदर मद नहीं/मत्सर नहीं/मोह नहीं।
तुम्हें किसी से कुछ लेना नहीं
बस देना ही देना है।
तुम्हारे अंदर
लय है,गति है
नृत्य है गीत है
आनन्द संगीत है
और
सारे ज़माने पर
लुटाने के लिए प्रेम है,बस प्रेम है
क्योंकि
तुम वृक्ष हो मनुष्य नहीं।
-----------------
2.गौरैया बनाना
      ---------------
        -डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

प्रभु,
मुझे अगले जन्म में गौरैया बनाना.
क्योंकि गौरैयों के मुखौटे नहीं होते.
गौरैयों में बडे या छोटे नहीं होते।
गौरैया नेता नहीं होती,
गौरैया अभिनेता नहीं होती,
गौरैया में धर्म-जाति के झगड़े नहीं होते
गौरैया मे बात-बेबात के लफ़ड़े नहीं होते
गौरैया बस गौरैया होती है.
जाने कहाँ-कहाँ से चुन-चुनकर तिनके लाती है
अपने गौरा के साथ मिलकर नीड़ बनाती है,
अलस्सुबह,
पंख फड़फड़ाती है,
प्रेम गीत गाती है
ला-ला कर दाने अपने चूजों को चुगाती है
और फिर,
शाम को  नीड मे लौट कर ,
गौरा के शीश पर शीश टिकाकर
प्रेम से सो जाती है।
   -------------------
-0-
विमोहा छन्द  में तेवरी-(212 2120
रमेशराज

ज़िन्दगी लापता
रोशनी लापता।

फूल जैसी दिखे
वो खुशी लापता।

होंठ नाशाद हैं
बाँसुरी लापता।

लोग हैवान-से
आदमी लापता।

प्यार की मानिए
है नदी लापता।
-0-

Tuesday, February 18, 2020

958-ज्योत्स्ना प्रदीप की छन्दोबद्ध रचनाएँ



1-शीत ऋतु ( कुंडलिया)
1
सीली- सीली रात की, काँप गई है देह
आज चाँद का साथ ना, सूना-सूना गेह ।।
सूना-सूना  गेह, सुधाकर कौन छुपा
तारों की सौगात , नभ में कौन है ला ।।
अपनों का ना साथ, रात की आँखें गीली।
तन की बात है क्या, निशा तो मन से 'सीली'।।
2
हिमकर हिम की मार से, छुपा रहा है गात ।
रैन धुंध से जूझती, कैसे ये हालात ।।
कैसे ये  हालात ,दुखी है रात सलोनी ।
मुख पर है ना तेज,बनी है  सूरत  रोनी ।।
बिन चंदा के आज, रात  रोई  है छुपकर ।
"बिन तेरे ना चैन, अभी भी आजा 'हिमकर'।।"
-0-
2-दोधक  छंद (यह 11 वर्ण का छन्द है।[तीन भगण (211+211+211और दो गुरु 2+2होते हैं)
1
प्रीत हुई मन फागुन छाया ।
भीतर रंग नया खिल आया ।।
माधव माघ रसा छलका
फागुन प्रीत भरे  सुर गा ।।
2
काज-सभी तजके तुम आए।
प्रेम  भरे  मे सब  गाए।।
लाज भरी अँखियाँ घन भारी।
आज हँसे सखियाँ ,पिय सारी।।
3
होठ हँसे  पर नैन उनीदें ।
लो पढ़ते फिर  प्रेम- क़सीदे
बोल रहे  इक साल हुआ रे।
चार दिनों यह हाल हुआ रे।।
4
माँ  ,बहना करती सब बातें ।
मीत सखी सब खूब सताते।।
क्यों बन माधव  रोज़ रिझाते।
साजन क्यों तुम पीहर आते ?
-0-
3-विद्युल्लेखा /शेषराज छंद(शिल्प:- [मगण मगण(222 222),दो-दो चरण तुकांत,  6 वर्ण )
1
देखो भोली  रैना
खोले प्यारे नैना।।
आए चंदा तारे।
चाँदी के ले धारे।।
2
राका की ये काया ।
जैसे काली छाया ।।
चाँदी जैसी लागे ।
यामा रातों जागे ।।
3
मेघों  की है टोली ।
राका धीरे बोली ।।
तारों का है  चूड़ा ।
खोलूँ प्यारा जूड़ा।।
4
मेघों के मंजीरे।
बाजे धीरे -धीरे ।।
सारी  रैना गाते।
कैसे प्यारे नाते!!
-0-

Sunday, May 5, 2019

900



1-ज्योत्स्ना प्रदीप
1-हरिगीतिका
(प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ, 16 तथा 12 मात्राओं के बाद यति तथा अन्त में लघु-गुरु वर्ण अवश्य होता है। कहीं-कहीं पदों में यति 14-14मात्राओं पर भी हो सकती है ।)

सहमी नदी

सहमी नदी यह देख के,हर रोज पादप हैं घटे ।।
नग चीख भी सुन लो कभी,पल में हिया उसका फटे ।।
दिखता नहीं खग खेत में,सब रेत से सपने झरे ।।
अब मोर भी चितचोर ना,दिखते नहीं घन वह भरे ।।
खिलते नहीं अब फूल भी,बस शूल ही मन में उगे ।।
अब हंस ना बसते नदी,सर, ताल सीपिज ना चुगे ।।
कर दो भला फिर से ज़रा,तुम बीज भूतल रोप दो ।।
धरती भली कितनी छली,उसको कभी मत कोप दो ।।
युग कौनसा अब आ गया,तम छा गया फिर से घना ।।
मिटती नहीं अब पीर ये,रघुवीर हे कर दो दया!
-0-
2-दोधक
(यह 11 वर्ण का छन्द है ।[तीन भगण (211+211+211और दो गुरु 2+2होते हैं)

प्रीत भरा यह मास निराला ।
माधव झूम रहा मतवाला ।।
रंग सजे बिखरे हर डाली ।
गीत न बुनती हरियाली।।
-0-
3—तोटक छंद
 (चार सगण  112 =कुल 12 वर्ण-चार चरण)

बिन चाँद कभी जब रात रहे ।
किससे मन की यह बात कहे ।
तम चीर हिया फटता रहता ।
मन ने सब भीतर घात सहे ।

शशि के बिन जीवन सार नहीं।
अब ना प्रभ की रसधार कहीं।
हरसा हिय साजन से अपना ।
फिर भी छिपता उस पार कहीं ।।

मनभावन साजन आस करूँ ।
अब चंद्र बिना कित साँस भरूँ ।।
अब आ प्रिय जीवन दे मुझको ।
फिर से अधरों पर हास धरूँ ।।

-0-
गीत- मंजूषा मन 

फिर मिलूँ मैं न मिलूँ दीदार तो कर लो।
आखरी है ये मिलन अब प्यार तो कर लो।

ढ़ल रहा जो समय ये तो फिर न आएगा,
साथ मेरा ओ सनम तू फिर न पागा।
एक सपना आँख का साकार तो कर लो।
                 आखरी है.......

दीप मन का प्रज्वलित है अब बुझाओ भी,
गीत मैंने इक लिखा है गुनगुनाओ भी।
मौन में जो स्वर बसे गुंजार तो कर लो।
                 आखरी है........
प्रेम की चौपाइयाँ अब गा न पाऊँ मैं,
है यही अच्छा कि तुझको छोड़ जाऊँ मैं।
तुम मुझे उठकर विदा इस बार तो कर लो।
                  आखरी है........
फिर मिलूँ मैं न मिलूँ दीदार तो कर लो।
आखरी है ये मिलन अब प्यार तो कर लो।
-0-

Friday, May 3, 2019

899


रमेशराज

 1-शृंगारिणी छंद (राजभा X4=यानी 212+212 + 212+ 212)]

1
आपने नूर की क्या नदी लूट ली 
गीत के नैन की रोशनी लूट ली
क्या यही आपकी है समालोचना  ?
शब्द के अर्थ की ज़िन्दगी लूट ली

ऐ कहारों कहो क्या हुआ हादिसा  !
आपने तो नहीं पालकी लूट ली ?
पांडवो आज भी आपकी भूल से  
कौरवों ने सुनो द्रौपदी लूट ली !

-0-
2-दोधक ( भानस X3+2+2 यानी 211+211+211+2+2)

देख न पूनम-मावस गोरी
रास रचा, अब लै रस गोरी।
मेल-मिलाप भयौ पल कौ ही
प्यास रही जस की तस गोरी।

प्रेम-पगे मन मे विष फैले
नागिन-सौ तन लै डस गोरी।
गा अब गा नवप्रेम-कथा को
भानस भानस भानस गोरी।
-0-

Monday, April 22, 2019

895


प्रदूषण (अहीर छंद)
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

बढ़ा प्रदूषण जोर।
इसका कहीं न छोर।।
संकट ये अति घोर।
मचा चतुर्दिक शोर।।

यह दारुण वन-आग।
हम सब पर यह दाग।।
जाओ मानव जाग।
छोड़ो भागमभाग।।

जंगल किए विनष्ट।
हता है जग कष्ट।।
प्राणी रहे कराह।
भरते दारुण आह।। 

धुआँ घिरा विकराल।
ज्यों  उगले विष व्याल।।
जकड़ जगत निज दाढ़।
विपदा करे प्रगाढ़।।
गूगल से साभार

दूषित नीर-समीर
जंतु समस्त अधीर।।
संकट में अब प्राण।
उनको कहीं न त्राण।।

विपद न यह लघुकाय।
शापित जग-समुदाय।।
मिल-जुल करें उपाय।
तब यह टले बलाय।।
-0-