रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
क्या रूप निराले हैं
वेश धरे उजले
मन इनके काले हैं ।
2
उपदेश सुनाते हैं
खुद दुष्कर्म करें
जग को बहकाते हैं ।
3
जनता बेहाल हुई
गुण्डों की टोली
अब मालामाल हुई ।
4
पर निश-दिन कतरे हैं
सच्चे लोग यहाँ
लगते अब खतरे हैं ।
5
अब तक दु:ख झेला है
छोड़ नहीं जाना
मन निपट अकेला है ।
6
यूँ मीत अनेक रहे
मन को जो समझे
बस तुम ही एक रहे ।
7
हम याद न आएँगे
जिस दिन खोजोगे
फिर मिल ना पाएँगे ।
8
तुम हमसे दूर हुए
जितने सपने थे
सब चकनाचूर हुए ।
9
उनको सन्ताप हुआ
अनजाने हमसे
लगता था पाप हुआ ।
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