पथ के साथी

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Tuesday, October 24, 2023

1381

 

छलिया सपने

 सविता अग्रवाल 'सवि'

 

जब सारा जग सो जाता है

मैं सपनों से ही लड़ती हूँ

बंद नयन के द्वारों पर

क्यों दस्तक देकर आते हो ?

साकार नहीं होना होता

तो क्यों नयनों में सजते हो?

तुम कौन देश से आते हो?

और कौन दिशा को जाते हो?

छलिया बन मुझको छलते हो

परदेसी बन चल देते हो

मेरी नींदों को मित्र बना

मुझसे ही शत्रुता करते हो

बालक को लालच देते हो

फिर छीन सभी कुछ लेते हो

मन में मेरे एक दीप जला

क्यों आँधी बन आ जाते हो

उषा की किरणों में मिल कर

क्यों धूमिल से हो जाते हो  

शबनम की बूँदों की भांति

क्यों मिट्टी में सो जाते हो

मन मेरे में एक आस जगा

नव ऊर्जा सी भर देते हो

 

 पल भर में क्यूँ शैतान से तुम

 

मुझे चेतनाहीन बनाते हो

जब सारा जग सो जाता है

मैं सपनों से ही लड़ती हूँ

छलिया सपनों संग रोज़ रात

मैं यूँ ही झगड़ा करती हूँ |

-0-

Friday, December 3, 2021

1162-तीन कविताएँ

1-शर्तों के कंधों पर-डॉ.सुरंगमा यादव

रत का हथियार दिखाकर
गीत प्रेम के गाते गाओ
हम बारूद बिछाते जाएँ
तुम गुलाब की फसल उगाओ
लपटों में हम घी डालेंगे
अग्नि- परीक्षा तुम दे जाओ
ठेकेदार हैं हम नदिया के
तुम  प्यास लगे कुआँ खुदवा
हम सोपानों पर चढ़ जाएँ
तुम धरती पर दृष्टि गड़ा
माला हम बिखराएँ तो क्या!
मोती तुम फिर चुनते जाओ
सिंहासन पर हम बैठेंगे
तुम चाहो पाया बन जाओ
फूलों पर हम हक रखते हैं
तुम काँटों से दिल बहलाओ
अधिकारों का दर्प हमें है
तुम कर्त्तव्य निभाते जाओ
करो शिकायत कभी कोई न
अधरों पर मुस्कान सजाओ
मन भरमाया,समझ न पाया

हम समझें कोई जतन बताओ
अब मत शर्तों के कंधों पर

संबंधों का बोझ उठाओ

-0-

 2-सविता अग्रवाल 'सवि' कैनेडा 

1

अनगढ़ी प्रणय की दीवार

टूटी साँसों की लड़ियाँ

मधु यामिनी के स्वप्न रीते

वंचना से, भाव भीगे

सूखे पड़े हैं सुमन सारे

प्रतिकार में वायु बही है

बहती नदी की तीव्र धारा

अभिशाप सिक्त

पथ रोके खड़ी है

2

यंत्रों की मची है दौड़

प्रतिस्पर्धा की होड़

अपनत्व हुआ लुप्त

खोया स्वर्णिम प्रकाश

अभिशप्त हो रहा

मानव अस्तित्व

पाने- खोने की ये

कैसी आँख- मिचौनी

जीवन बन गया है

करुणामय कहानी

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Monday, October 12, 2020

1026-चाहत

 सविता अग्रवाल 'सवि' (कैनेडा)

 

भरोसा जो टूटा था

जोड़ रही वर्षों से....

बोलियाँ खामोश हैं

कितने ही अरसों से ...

दस्तक भी गुम है अब

बारिश के शोर में ....

अधूरे जो वादे थे

दब गए संदूकों में ...

नफरतें धो रही

प्रेम रस के साबुन से ...

चट्टानें जो तिड़क गईं

भर ना पाई परिश्रम से ...

उड़ गई जो धूल बन

ला ना पाई उम्र वही ...

नीर, जो सूख गया

लौटा ना सकी सरोवर में ...

अक्षर जो मिट गए

लिख ना पाई फिर उन्हें ...

पुष्प जो मुरझा गए

खिल ना सके बगिया में ...

पत्ते जो उड़ ग

लगे ना दरख्तों पर ...

बर्फ़ जो पिघल ग

जम ना सकी फिर कभी ...

अगम्य राहें बना ना पाई

सुगम सी डगर कभी ...

निरर्थक यूँ जीवन रहा

हुआ ना सार्थक कभी ....

फिर भी एक आस है

बढ़ने की चाह है ....

हौसले बुलंद हैं ...

चाहतें भी संग हैं ....

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Saturday, August 22, 2020

1024

 1-शशि पुरवार  

 1

कुल्लड़ वाली चाय कीसोंधी-सोंधी गंध

और इलाइची साथ मेंपीने का आनंद

2

बाँचे पाती प्रेम कीदिल में है तूफान

नेह निमंत्रण चाय कामहक रहे अरमान

3

गप्पों का बाज़ार है ,मित्र मंडली संग

चाय पकौड़े के बिनाफीके सारे रंग

4

मौसम सैलानी हुए रोज़ बदलते गाँव

बस्ती बस्ती चाय कीटपरी वाली  छाँ

5

घर- घर से उड़ने लगीसुबह चाय की गंध

उठो सवेरे काम परजीने की सौगंध

6

चाहे महलों की सुबहया गरीब की शाम

सबके घर हँसकर मिलीचाय नहीं बदनाम

7

थक कर सुस्ताते पथिकया बैठे मजदूर

हलक उतारी चाय हीतंद्रा करती दूर

8

कुहरे में लिपटी हुई छनकर आयी भोर

नुक्कड़ पर मचने लगागर्म चाय का शोर

-0-

2- चाहत

सविता अग्रवाल 'सवि' (कैनेडा)

 भरोसा जो टूटा था

जोड़ रही वर्षों से....

बोलियाँ खामोश हैं

कितने ही अरसों से ...

दस्तक भी गुम है अब

बारिश के शोर में ....

अधूरे जो वादे थे

दब गए संदूकों में ...

नफरतें धो रही

प्रेम रस के साबुन से ...

चट्टानें जो तिड़क गयीं

भर ना पाई परिश्रम से ...

उड़ गई जो धूल बन

ला ना पाई उम्र वही ...

नीर- जो सूख गया

लौटा ना सकी सरोवर में ...

अक्षर जो मिट गए

लिख ना पाई फिर उन्हें ...

पुष्प जो मुरझा गए

खिल ना सके बगिया में ...

पत्ते जो उड़ गये

लगे ना दरख्तों पर ...

बर्फ़ जो पिघल गयी 

जम ना सकी फिर कभी ...

अगम्य राहें बना ना पाई

सुगम सी डगर कभी ...

निरर्थक यूँ जीवन रहा

हुआ ना सार्थक कभी ....

फिर भी एक आस है 

बढ़ने की चाह है ....

हौसले बुलंद हैं ...

चाहतें भी संग हैं ....

  email: savita51@yahoo.com

--0-         

 

Friday, July 10, 2020

1015


1-शहर सयाने
डॉ. सुरंगमा यादव

शहर हो ग हैं बड़े ही सयाने
मिलेंगे ना तुमको यहाँ पर ठिकाने
फटी हैं बिवाई, पड़े कितने छाले
सिकुड़ती हैं आँतें, मिले ना निवाले
है लंबा सफर,ना गाड़ी ना घोड़ा
कहाँ जाएँ अपना जीवन बचाने
श्रमिक जो ना होंगे, तो कैसे चलेंगी
तुम्हारी मिलें, कारखाने,  खदानें
तुम्हारे लिए खून इनका है पानी
भरे इनके दम पर तुम्हारे खजाने
न्होंने बना नर्म रेशम के कपड़े
मगर इनके तन को मिलते ना लत्ते
सैकड़ों जोड़ी जूता जिन्होंने बना
रहे पाँव नंगे  बीते   माने
ये   बच्चे,   ये बूढ़े और नारियाँ
उठाते  हैं   कितनी दुश्वारियाँ
समय आज कैसा कठिन आ गया
छिनी रोजी रोटी खोए  ठिकाने।
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2-आग कैसी लगी 
रमेशराज
जल गयी सभ्यता, आज पशुता हँसे।
दोष जिनमें नहीं
गर्दनों को कसे, आज फंदा हँसे।
नागफनियाँ सुखी 
नीम-पीपल दुःखी, पेड़ बौना हँसे।
सत्य के घर बसा
आज मातम घना, पाप-कुनबा हँसे।
बाप की मृत्यु पर
बेटियाँ रो रहीं, किन्तु बेटा हँसे।
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3- जीवन व्यथा
सविता अग्रवाल 'सवि' कैनेडा  

मंदिर में ऊँचे घंटे- सी
दूर है मंज़िल पास नहीं
उछल- उककर पहुँच ना पाऊँ
पाँव हैं छोटे, पहुँच ना पाऊँ
भटक रही हूँ दिशाहीन- सी
कौन दिशा को मैं अपनाऊँ
संबंधों की गठरी थामे
खोल-खोलकर गिनती जाऊँ
किससे नाता पक्का जोड़ूँ ?
किस नाते को मैं सरकाऊँ
शशोपंज में पड़ी हुई हूँ
किससे सच्ची प्रीत लगाऊँ ?
ठोकर खाऊँ और गिर जाऊँ
उठकर पूरी सँभल ना पाऊँ
कैसी व्यथा भरी जीवन में
किसको जाकर मैं बतलाऊँ ?
    -0-

Sunday, June 21, 2020

1011-पिता



1-सविता अग्रवाल 'सवि' कैनेडा

मस्तिष्क में बल भर
विपदाओं से लड़ते
सरदी के मौसम में
निरंतर चलते
अपने अस्तित्व को सँभाले
बच्चों की परवरिश करते
अपने ध्येय पर अडिग
मीलों दूर चलते
पैसा -पैसा बचाते
और हम सब पर लुटाते
क्यों न सोचा कभी
अपने लि तुमने
सर्दी में गर्म जूता बनाने का
मख़मली बिस्तर और बिछौने का
लम्बे दिनों में भी
न तुमने आराम किया
बच्चों की खुशहाली के लि
दिन- रात काम किया
याद है मुझे वह दिन
जब स्कूल पिकनिक के लि
तुमसे पैसे माँगे थे
विपदाओं के लि रखे जो
थोड़े से पैसे थे
माँ से कहकर तुमने
वही दिलवा थे
मेरे मुख पर मुस्कराहट देख
तुम भी मुस्करा थे
आज पीछे मुड़कर सोचती हूँ
तो लगता है
कितने इरादे थे तुम में
सबको खुश रखने के
वादे थे तुम में
आदर्श जीवन हमको सिखा ग
पिता ! तुम संसार से विदा क्यों ले गए ?
हमारे बीच से अलग क्यों हो गए ?
जीने के लि हमें अकेला छोड़ ग
अकेला छोड़ गए।

2-परमजीत कौर 'रीत'

कितने भी मजबूत भले हों,नाज़ुक जाँ हो जाते हैं 
माँ के बाद पिता अक्सर, बच्चों की माँ हो जाते हैं 

हर बात सोचने लगते हैं, सोते-से जगने लगते हैं 
हर आहट पर चौंके-चौंके,वो  चौखट तकने लगते हैं 
इस-उसके आने-जाने तक,जो फ़िक्र में ही डूबे रहते 
उस हरे शज़र के चिंता में, यूँ पात सूखते- से लगते
सूरज बन तपने वाले फिर, शीतल छाँ हो जाते हैं  
माँ के बाद पिता अक्सर,बच्चों की माँ हो जाते हैं 


माला के मोती बँधे रहें ,खुद धागा बनके रहते हैं 
हर खींच-तान को आँखों की, कोरों से देखा करते हैं 
इक वक्त था सबकी आवाजें,नीची थी उनकी बोली से।
इक वक्त जो उनकी वाणी में,झर-झरते हैं पीड़ाओं के।
खुद में कर-करके फेर-बदल,घर से दुकाँ हो जाते हैं 
माँ के बाद पिता अक्सर ,बच्चों की माँ हो जाते हैं 
-0-
( 15 अगस्त 2018 को आकाशवाणी सूरतगढ़ के 'महिला जगत' की काव्य गोष्ठी में प्रसारित)

Tuesday, May 5, 2020

983


1-तीन कविताएँ

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

1-लिखूँगा गीत मैं इसके 05-08-1980( आकाशवाणी गौहाटी से प्रसारण-18-8-1980)


1
लिखूँगा गीत मैं इसके
खुद तलवार बनकरके।
बगावत की हज़ारों आँधियाँ,रोकेंगी राहों को।
सीने में, ठोंककर कीलें,दबाएँ मेरी चाहों को
जब तक लहू की एक बूँद,शेष है शिराओं में
मोड़ सकता है तब तक कौन बज्र-सी भुजाओं को
काट दोगे चरण भी तो
मैं ललकार बनकरके  ।
कौन है जो माता को टुकड़ों में बाँटेगा
कौन -सा कुपूत माँ के हाथ काटेगा
गंगा-ब्रह्मपुत्र की जो पहने हुए माला
कौन इसके प्रेम की गहराई पाटेगा!
सिर को काट दोगे तो
रुधिर की धार बनकरके।
भारतभूमि का हर कण, हमें है जान से प्यारा
हरेक धर्म बहाता यहाँ पर , प्रेम की धारा
हिमालय से सागर तक,पूरब से पश्चिम तक
एक हृदय, एक आवाज़, सभी का एक है नारा
झोंक दोगे ज्वाला में
तो अंगार बनकरके।
-0-
2- पूजा करके देखी है(08-08-1980आकाशवाणी गौहाटी से प्रसारण-18-8-1980)

फूलों के सौरभ से पूजा करके देखी है
सिरों की भेंट देकरके,सत्कार होना चाहिए ।
भारत माँ की चन्दन-धूल साँसों में समा जाए
इसकी राह में अपनी हस्ती तक मिटा जाएँ ।
उठाने की करे कोशिश इस पर जो नज़र तिरछी
बिजलियों की तड़प बनकर, कहर उस पर ढा जाएँ ।
झरने की कल-कल के सारे राग बासी  हैं
लपलपाती लहरों से अब प्यार होना चाहिए ।
हिन्दू क्या, मुस्लिम क्या, हैं सब एक माला के मोती
भाव होते अनेकों तो, माला टूट गई होती
कहा कश्मीर मस्तक  से पूर्वोत्तर की बाहु ने
मन और कर्म की एकता ही प्यार है बोती ।
          विभीषण और जयचन्द तो हमेशा जन्म लेते हैं
          हमें शिवा, प्रताप बनने को तैयार होना चहिए।
-0-
3-इस अब लेखनी से
(08-08-1980(आकाशवाणी गौहाटी से प्रसारण-18-8-1980)
  
कंचन -सी कामिनी के झिलमिलाते रूप पर लाखों
लिखकर गीत रातों में तारों को सुनाए हैं,
फूलों के रस में बोरकरके , साथ भौंरों के
चाँदनी के साथ सब वन-पर्वत हँसाए हैं ।
इस अब लेखनी से सिन्धु की अग्नि जगाने दो
कोटि-कोटि कण्ठों को प्रयाण गीत गाने दो ।
गतिमय द्रुत चरणों को , शिखर तक पहुँच जाने दो
मिल फ़ौलादी बाहों को महासेतु बनाने दो
फिर देखें ये तूफ़ानी इरादे कौन मोड़ेगा !
‘भारत एक है’ के सूत्र को फिर कौन तोड़ेगा !
ऐसे हर इरादे को जलाकर राख कर देंगे,
टकराने वाली हर ताकत को ख़ाक़ कर देंगे।
-0-

5-आईना
प्रीति अग्रवाल ( कैनेडा)


कई दिनों बाद
अपने आप को आज
आईने में देखा
कुछ अधिक देर तक
कुछ अधिक ग़ौर से!

रूबरू हुई-
एक सच्ची सी सूरत
और उस पर मुस्कुराती
कुछ हल्की सीं सलवट,
बालों में झाँकती
कुछ चाँदी की लड़ियाँ,
आँखों में संवेदना
शालीनता की नर्मी,
सारे मुखमंडल पर
एक मनोरम सी शान्ति!

फिर अनायास ही
खुद पर
बहुत प्यार आया,
आज, मुझे मैं
अपनी माँ_ सी लगी!!

          -0-
          
4-वक़्त के पास वक़्त
सविता अग्रवाल 'सवि' ( कैनेडा)

वक़्त के पास वक़्त
आज वक़्त के पास वक़्त है
मुझसे बातें करने का
मुझे मुझसे मेरी पहचान कराने का
घर में अक्सर मेरे पास बैठता है
उलझी रहती हूँ जब स्वयं में
मुझे मेरे पास रखे वक़्त से
मेरा परिचय कराता है
नए-नए शौक पैदा करवाता है
अधूरे जो शौक थे मेरे
उनसे फिर मिल जाने का
प्रयास कराता है
शर्त भी वह एक साथ में रखता है
घर की चारदीवारी में रह कर ही
मुझे सब कुछ कर लेने
और आसमाँ तक घूम आने का
सपना दिखा देता है
वक़्त के पास आज वक़्त है
मुझसे मेरी पहचान कराने का |
-0-