पथ के साथी

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Monday, May 9, 2016

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1-श्याम त्रिपाठी ( मुख्य सम्पादक -हिन्दी चेतना-कैनेडा)
माँ बनना आसान नहीं ,
वह हाड -मांस का केवल एक शरीर नहीं ,
वह जन्मदायिनी , जग में उससे बढ़कर ,
कोई और नहीं ।

उनके हाथों में है भविष्य ,
जो देती हैं वलिदान ,
जन्मती हैं , वीर जवान,
जो एक दिन बनते है ,
शिवाजी, राणा प्रताप ,
सुभाष और लक्ष्मीबाई जैसी संतान ।

गर्व का दिन है मेरे मित्रो ,
करो अपनी माता का सम्मान,
कितने ही बड़े हो जाओ ,
लेकिन कभी न भूलो ,
माताओं के अहसान ।

भगवान को मैंने देखा नहीं ,
मेरे लिए  मेरी माँ  ही है,
राम ,कृष्ण, जीसस, मोहमद ,
नानक , बुद्ध सभी भगवान ।

धन्य !धन्य ! वह धरती है ,
जिसमें माँ की पूजा होती है,
बालक की खातिर वह ,
भीगे वस्त्र पर सोती है ।
-0-
2-माँ-प्रकृति दोशी

उसकी मुस्कान देख दिन ढ़ल जाता है....
साँवली सी शाम को....
उसका दिया रौशन कर जाता है

सपनों के उन अँधेरों में
उसका साथ ही उम्मीद का उजाला है
ये रूह आज जी रही है
क्योंकि उसका ही सहारा है।

सर रख के उसकी गोद में
रोका आँसुओं को पलकों पे है
क्योकि उस एक बूँद में ही उसने
अपना जीवन समेटा है।

मुझे उस आँगन की कसम है
क्योकि ये रुस्वाई है
अगर माँ को मैं भूल जाऊँ
जिसने उस आँगन में बैठ
तारों की गिनती करवाई है।

मेरे खाने के डिब्बे के पीछे
सारा जमाना मरता है
वो जान है मेरी
जिसके हाथ का खाना
मुझे रोज सताया करता है।

देसी घी ठूँसने के बाद भी
न जाने उसे क्या हो जाता है
हर वक़्त उसे मेरे भूखे होने का
सपना ही आ जाता है।

उसकी उन चूड़ियों की खनखनाहट
मुझे तबसे याद है
जबसे उसने अपने कोमल हाथो से
मेरी पीठ को शाबाशी का
मतलब समझाया है।

हाँ कुबूल लूँ आज मैं
कि जान है वो मेरी
उस काजल के लिए जो उसने
अपनी आँखों से बहाया है।

माँ मुझे इस प्यार की कसम
जो गले से तुझ आज न लगाया
उस रोटी का वास्ता मुझे जिसे तूने
अपनी जली उँलियों से खिलाया है।

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Sunday, May 10, 2015

पानी तो बहता है



श्याम त्रिपाठी (प्रमुख सम्पादक -हिन्दी चेतना)
1
पानी तो बहता है ,
उसका अपना है अधिकार
बिना जल के मछली तड़पे ।
माँ का दिन
केवल एक दिन ,
जो बुनती है अपने बच्चों के सपने ।
क्या है यह माँ?
ईश्वर का अवतार,
प्यार का सिन्धु ,
वात्सल्य की प्रतिमा ,
अमृत की सरिता ,
अवतारों का अवतार ।
इंसानियत की कसौटी ,
त्याग और बलिदान की परिभाषा,
धरा पर एक अनमोल रत्न ।
आँखों में अश्रु भरे
अपनी पीड़ा को छुपाए ,
रक्षा कवच पहने एक सिंहिनी ।
केवल पश्चिम में
उसके लिए एक एक दिन ,
जबकि उसका का हर पल
अपनी औलाद के सुख के लिए।
कैसा निर्मम यह संसार,
इतनी कंजूसी उस माँ के लिए ,
जिसका जीवन उसका परिवार ।
कैसे बदले यह नयी सोच ,
नया विचार ,
धिक्कार धिक्कार !!

2
जीवन की व्यथा
बन गयी एक कथा
संघर्षों का बोझ
अब कैसे उठा पाऊँ?
3
मार्ग अनेकों
कोई दुर्गम , कोई पथरीला
क्लांत पथिक
कौन उसे सीधी राह दिखाए ।
4
मित्र मिले बचपन में
एक साथ पढ़े और खेले,
बड़े हुए तो बिछुड़ गए
अब कैसे उनसे मिल पाएँ।
5
आयी वसंत ऋतु
विटप, तडाग, लतिकाएँ
कोयलिया आम्र-फुनगी पर बैठी
गीत सुनाए ।
6
प्रीतम गये परदेस
भूलि गए मोको ,
बदरवा गर्जत
उनकी बहुतै याद सताए ।
7
पानी और मछली का प्यार
कैसा है एकतरफा वलिदान,
पानी को नहीं होता कोई गम ,
चाहे कभी भी मछली तोड़ दे दम।
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ई-मेल- hindichetna@hotmail.com