डॉ•शिव मंगल सिंह मानव
1-गीत
सुंदर खुशबू लिए खड़े हैं
पुष्प मधुर है बगिया सारे ।
प्रकृति से उनको सींच मिल रही
तपन बुझ रही धरती न्यारे।।
मोर
बोलता सुबह शाम है
कोयल
कूक से भरता मन।
चहल
पहल उपवन में हरदम
फल
मिलते हैं प्यारे प्यारे।।
तेरी रहमत मिली है उनको
जिसने धरती को श्रम से सींचा।
श्रम की बूँद से बनता मोती
प्रकृति करे
शृंगार निराले।।
तुमने
दी है कला सँजोकर
पौरुषवान पाए निर्भरता ।
शल्य
चिकित्सा औषधियों में
निर्भर
नहीं दूजे के सहारे ।।
सहनशक्ति औ ज्ञान में अव्वल
सब धर्मों का करते मान।
वृक्ष धरा के संरक्षक हैं
मानव संयम से प्रकृति निहारे।।
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2- किसान-शिवमंगल
सिंह ‘मानव’
मैं किसान का बेटा हूँ
सोचा करता हूँ
आँखें भर भर आती हैं
रोया करता हूँ ।
कभी बाढ़ कभी सूखा
कभी झुलसा से मन रूखा
आँखें नम हो जाती हैं ग़म में
फिर भी हरियाली के गीत गाया करता हूँ। मैं किसान ....
खो गई बैलों की जोड़ी जब से
कंधे पर हल लिए ढोया करता हूँ
जल के अभाव में नीलकमल मुरझाया देख
पंजे अपने मलता
रहता हूँ।मैं किसान......
फार्म भरा, दौड़ा- धूपा
ट्रैक्टर की लोनिंग पास हुई
ट्रैक्टर आया,चलता सरपंच खेत
पंपिंग सेट की आशा में
कुछ खेत बेच,
हर फसल पर ब्याज चुकाया करता हूँ। मैं किसान....
मानव तू अनपढ़ गँवार, अब
पढ़
अपना हिसाब स्वयं कर, आगे
बढ़
फिर भी मुखिया का एतबार कर
धोखा खाया करता हूँ। मैं किसान....
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3- गीत-शिवमंगल
सिंह ‘मानव’
उदित हुआ भारत में सूरज
कैसे किरण को पाऊँ।
धरती के सूने आँगन में
बिरवा एक लगाऊँ ।।
श्रम करना
ही वश में मेरे
चादर कहाँ
बिछाऊँ।
आँधी तूफाँ, वर्षा
ऋतु में
छप्पर कहाँ
लगाऊँ।।
श्रम का शोषण, तन का शोषण
गीत खुशी क्या गाऊँ ।
नदी किनारे बसा मछेरा
कैसे प्यास बुझाऊँ ।।
कोई चमकता
सोना निगले
सोना चम्मच
मुख में ।
दाने-दाने
बच्चे तरसे
कितनी व्यथा
सुनाऊँ।।
लगी आस सूरज मैं देखूँ,
उठता रोज सवेरे ।
मानव इच्छा कभी न पूरी
फिर भी जनम बिताऊँ।।
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4-गंगा
गीत- शिवमंगल सिंह 'मानव'
पतित पावनी निर्मल करती
है तेरी जल धार गंगा !
अर्चन वंदन करूँ आरती
पूजन करूँ शत बार गंगा।।
सुर नर
मुनि दर्शन को तरसें
अमृत
है रस धार।
दर्शन-मात्र से मुक्ति होती
महिमा
अपरंपार गंगा ।।
परम पूज्य काशी नगरी है
उत्तरवाहिनी गंगा ।
शिव का डमरू डम-डम बाजे
भक्तन भीड़ अपार गंगा ।।
दूषित न
कर जल अमृत है
जगत जीव
सत्कार ।
नयन
मूँद आचमन है करना
शंकर
जटा विस्तार गंगा।।
तट पर जल बीच
सुरभित होते
दीप दान दिख रही
कतार ।
मानव प्रमुदित
दर्शन पाकर
नमन करूँ
बारम्बार ।।
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5-गीत-शिवमंगल
सिंह 'मानव'
काम करोगे अँधियारे का
चाहोगे उजियारा लिख दें।
पर की थाली छीन रहे हो
चाहोगे संझियारा लिख दें।।
नीयत अब
भी ठीक नहीं है
कथनी
करनी अंतर है।
बंदर
बाँट में लगे हो निसदिन
चाहोगे
बँटवारा लिख दें।।
जनधन तन-मन उनका अपना
रोटी भी दिखती जिन्हें सपना ।
पगडंडी पर चलना मुश्किल
चाहोगे गलियारा लिख दें।।
भू
लेखों का बस्ता भारी
नकल न
मिलती मारा मारी।
पेशी
देकर हार चुके हैं
चाहोगे
निबटारा लिख दें।।
टूटी मड़ैया सड़क किनारे
आग लगा कर जला दिया ।
मानव पानी बूँद को तरसें
चाहोगे जलधारा लिख दें।।
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6-एक
दृश्य - शिवमंगल सिंह 'मानव'
शाम होते ही वृक्षों पर,
पक्षियों का कलरव सुनाई पड़ता है ।
बोझ पड़ता है और अधिक,
उन्हीं सघन वृक्षों पर ,
जो पहले से ही बोझ को सहते
एकाकी वन में खड़े हैं ।
पक्षियों में कुछ छोटे और कुछ बड़े पक्षी,
बड़े पक्षी बैठ जाते हैं समूह में,
छोटे पक्षी उड़ते रहते हैं,
जगह पाने की आशा
में ।
बहेलिया भी कौवों को नहीं ,
बल्कि,
तोतों और कबूतरों की आशा में ,
बिछाता है जाल ।
शायद,
यह सोच कि
बड़े पक्षी समझते हैं उसकी चाल ।
दूरदर्शिता की ओट में ,
करता है कांव
कांव बड़ा पक्षी ही,
छोटा पक्षी शांति और अहिंसा का,
पुजारी बन बैठना चाहता है चुप ।
तभी भान होता है कि चारो ओर
छाया है अंधेरा धुप्प
।
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7-कब
तक -शिवमंगल सिंह 'मानव'
जीवट था वह ज्योति पुंज,
कहाँ ढल गया?
विषमताओं की बेलि में,
उलझ गया ।
दिग्भ्रमित या कि
कर्तव्यविमूढ़ वह
चाहता था
कुछ अर्पित करना ।
मायावी दुनिया ने
दोहन किया उसका,
समझा,
मूर्ख, स्वार्थी,
धूर्त या निकम्मा ।
बंद करो अब,
नृशंस नृत्य कदाचार का ।
इस सदी ने,
तुम्हें,
ज्ञानवान बनाया।
परंतु, तुम?
इंसान से रोबोट हो गए ।
लिप्सा, ईर्ष्या में,
जली झोपड़ी,
असहाय की ।
वर्दी उतरवाने की धौंस ,
राष्ट्र –धन बटोरने की लालसा
आखिर,
कब तक?
कब तक ???
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8-आदमी-शिवमंगल
सिंह 'मानव'
जी रहा है आदमी
किसके लिए?
अपने लिए,
या उसके लिए ।
बचपन,
यौवन, बीत गया ।
कमा- कमा कर,
खूब खिलाया,
ख़ुद खाया,
और
उसे खिलाया ।
सो गया
फिर,
जग न पाया ।
अच्छा था,
भोला था,
सबके लिए जिया ।
छोड़ गया,
कुछ निशानी ,
सोचने,
पछताने के लिए ।
साथ क्या गया?
कुछ नहीं ।
कुछ शब्द,
बोल गए,
अच्छा था ।
इंसानियत थी,
पर का ध्यान ,
रखता था,
अपना कुछ न था !
अपना कुछ न था !
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