पथ के साथी

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Tuesday, May 18, 2021

1107-नहीं, अब वहाँ नहीं जाना

[कल यानी 17 मई को डॉ. हरदीप कौर सन्धु  जी का जन्म दिन था। सहज साहित्य, त्रिवेणी और हिन्दी हाइकु के सब रचनाकारों की तरफ़ से आपको हार्दिक बधाई !  विश्वभर में हाइकु, ताँका , सेदोका , चोका , हाइबन, माहिया आदि का जो प्रचार- प्रसार हुआ है, उसके लिए हिन्दी हाइकु और त्रिवेणी का योगदान सर्वाधिक है। बहन हरदीप जी ने इन दोनों ब्लॉग[ आज वेब रूप] से मुझको जोड़ा , यह मेरा सौभाग्य है। निःस्वार्थ रूप से कार्य करने वाली हरदीप जी को वे लोग भी  भूलते  जा रहे हैं, जिन्होंने इनसे सीखा। वे  अपना अलग रास्ता अपना चुके हैं। मैं इस बात को विशेष रूप से रेखांकित करना चाहता हूँ कि मैंने  जो इन विधाओं में थोड़ा-बहुत काम किया , उसमें हरदीप बहन का योगदान है। ईश्वर करे आप सदा स्वस्थ एवं प्रसन्न रहेंत, दीर्घायु हों और ये विधाएँ आपकी छत्रछाया में पल्ल्वित-पुष्पित होती रहें।  ] 

रामेश्वर काम्बोज



डॉ. हरदीप कौर सन्धु 

 

नहीं, अब वहाँ नहीं जाना


जब भी मैं ये शब्द
, वाक्य दोहराता हूँ 

उसे मैं अपने सामने ही पाता  हूँ

' तुम समझे नहीं 

तुम बोलते बहुत हो'-

अपनी निरंतर चलती बातों की लड़ी को तोड़ते हुए 

उस ने कहा था

भर आँखों में उदासी 

वह मुस्करा रहा था

तुझे देख-देख जीता था 

कैसे भूल जाऊँ !

लौट आ अब भी 

मैं तो  अब तक वहीं  खड़ा हूँ 

'नहीं, नहीं अब वहाँ नहीं जाना 

तुझे दी जहाँ पीड़ा 

तेरा तोड़ा था यकीन 

चला गया तुझसे दूर 

तुझे करके ग़मगीन’- 

उस ने फिर कहा था 

भर आँखों में उदासी 

मन्द -मन्द मुस्करा रहा था


तेरी वो मुहब्बत
 

तेरा वो यकीन 

अब भी वैसा है 

कुछ भी बदला नहीं 

तेरा ऐसे चला जाना 

मुझे देकर झकानी ( बिना बताए )

सोचता हूँ कहीं 

कोई ख़्वाब तो नहीं 

मैं तो वहीं खड़ा हूँ 

वक्त जाता चाहे बीत 

मेरा वो आज है 

तेरा वो अतीत 

नहीं, अब वहाँ नहीं जाना 

हाँ, अब वहाँ नहीं जाना 

क्योंकि 

मैं तो वहीं ही खड़ा हूँ 

आज भी वहीं ही खड़ा हूँ।

-0- 

Saturday, July 29, 2017

751

रहबर (लघुकथा)
डॉ हरदीप कौर संधु 
Image may contain: one or more peopleसरकारी अस्पताल में से उसे जवाब मिल चुका था। उसकी हालत अब नाज़ुक होती जा रही थी। आंतरिक रक्तस्त्राव के कारण जच्चा -बच्चा की जान को ख़तरा बनता जा रहा था। नाजर के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ और गहरी होती जा रही थीं। बहुत कम दिन मिलते काम के कारण रूपये -पैसे का प्रबंध भी नहीं हुआ था। चौगिर्दा उसको साँस दबाता  लग रहा था। उसकी साँस फूलने लगीं और वह ज़मीन पर बैठ गया। 
"चल उठ ! नाजरा मन छोटा न कर पुत्र ! मैने तो पहले ही बोला था कि हम गिन्दो को काशी अस्पताल ले चलते हैं। वहाँ तेरा एक भी पैसा खर्च नहीं होगा अगर लड़की हुई तो। डाक्टरनी साहिबा लड़की होने पर कोई पैसा नहीं लेती। दवा भी मुफ़्त देती है और सँभाल भी पूरी होगी। " पड़ोस से साथ आई अम्मा ने सलाह देते हुए बोला। 
नाजर अब लेबर रूम के बाहर हाथ जोड़कर बैठा था। शायद उस प्रभु की किसी रहमत की आशा में। मगर उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। 
"लाडो गुड़िया हुई है ,कोई फ़ीस नहीं ,बस गुड़ की डलिया से सब का मुँह मीठा कीजिएगा। " रहबर बनी डाक्टर के बोल सुनकर नाजर की आँखों में शुक्राने के अश्रु तैरने लगे। 

                     --------० ---------

Thursday, October 23, 2014

दीप बने बाराती




डॉ हरदीप सन्धु
1

दीवाली रात 

दीप बने बाराती 

झूमे आँगन। 


2

मिट्टी का दिया 

चप्पा -चप्पा बलता 

बिखरती लौ। 

3

दीवट दिया 

भीतर औ बाहर 

घर रौशन। 
-0- 
ज्योत्स्ना प्रदीप
1
रात में भोर
दीपों का जमघट
क्रांति की ओर॥
2
न जात-पात
न देखे दिन- रात
दीप तो जले।
3
सहमा तम
दीपक तले छुपा
कुछ रूआँसा ।
-0-




Thursday, June 20, 2013

जख़्मी साहिल

[अपनापन कई बार शब्दों की पहुँच से परे हो जाता है, तो चुप्पी में बदल जाता है । अपने दर्द की खुद को जब  आदत- सी हो जाती  है तो लगता है इसको यहीं छुपा लो ,बिखर गया तो ज्यादा टीस देगा । इसी विषय पर आज सहज सहित्य में डॉ हरदीप सन्धु के हाइकु का गुलदस्ता ,आप सबकी भेंट]
1
हाथों से मिटी 
खुशियों की लकीरें 
बिखरा दर्द । 
2
मेरी तन्हाई 
मेरे साथ चलती 
ढूँढ़े साहिल । 
3
छोड़ वजूद 
रेत पर लकीरें 
लौटी लहरें । 
4
शान्त सागर 
बेचैन- सी लहरें 
जख़्मी साहिल । 

-0-

Sunday, April 21, 2013

सिन्दूरी आसमान


डॉ हरदीप सन्धु 
डॉ ज्योत्स्ना
1.
सुहानी भोर 
सागर की लहरें 
मचाएँ शोर 
2.
भोर की बेला 
चीं -चीं गाए चिड़िया 
मन अकेला 
3.
भोर किरण 
सिन्दूरी आसमान 
मंद पवन 
4.
हँसा सवेरा 
खिड़की से झाँकती 
स्वर्ण रश्मियाँ । 
5.
धीमी पवन 
पँखुरी भरे आहें 
खुशबू मन 
-0-

Saturday, July 16, 2011

पात-प्रतिक्रिया

पात-प्रतिक्रिया
[1-रचना श्रीवास्तव,2-शैल अग्रवाल ,3-डॉ हरदीप सन्धु,4-ॠता शेखर मधु  5-रवि रंजन,6-मंजु मिश्रा 7-डॉ नूतन डिमरी,8-रेखा रोहतगी ने अपनी सार्थक टिप्पणियों से मेरा मान ही नहीं बढ़ाया वरन् ‘वाह !वाह! बढ़िया’ जैसी चलताऊ टिप्पणियों से बचते हुए सार्थक प्रतिक्रियाएँ प्रस्तुत कीं। ये सिर्फ़ प्रतिक्रियाएँ ही नहीं, श्रेष्ठ हाइकु के उदाहरण भी हैं ; अत: मैं इन्हे  अलग से देने का लोभ संवरण नहीं कर सका । रवि रंजन जी ने हाइगा,हाइकु और कुही के स्वरूप को सिर्फ़ एक हाइकु में परिभाषित कर दिया, काव्यशास्त्रीय रूप में। मैं आप सबका बहुत कृतज्ञ हूँ।]
1-रचना श्रीवास्तव
1
काँटे चुभे न
बदन , हिलने से
डरे हैं पात
2
राही को छाया
वृक्ष को दे भोजन
पत्ते का काम
-०-
2-शैल अग्रवाल [सम्पादक: लेखनी डॉट नेट -हिन्दी एवन अंग्रेज़ी]
1
फिर आए ये
भोजपत्र आस के
हमारे नाम।
2
पीत पर्ण जो
झरने दो उनको
रोको ना आज।
3
ओस-सा-मन
हवा की छु्अन से
सिहरा गात।
3-डॉ हरदीप सन्धु
1
सुन्दर पात
आपकी छुअन से
सुंदर और !
2
नर्म -नर्म से
हरीतिमा बिखेरें
ये डाल-डाल !
3
पात झरें तो
यूँ बिखर जाएँगें
गली -गली में !
4
सूखे पात तो
फिर से फिर होंगे
हरे कचूर
5
ओ मन तेरा
मुरझा जाए कभी
देखो पात को !

0-

4-ऋता शेखर 'मधु'
    1
नव जीवन
कोमल किसलय
प्राण -संचार।
2
हरे पात दें
प्राणवायु प्राणी को
विष वायु से
5-रवि रंजन
1
चित्र हाइगा
शब्द से है हाइकु
पत्थर कुही।
6-मंजु मिश्रा
कहने को तो
चार आखर पर
अर्थ अनंत
7-डॉ नूतन डिमरी
हरा है अभी,
चाहूँ- रोकूँ समय,
पतझड़ को

8-रेखा रोहतगी

1
-टीका क्यों माथ 
हाइकु व हाइगा
सुन्दर साथ .
2
आपके शोध 
जगाते हैं मन में 
सौन्दर्यबोध