1-नई इबारत को श्रद्धांजलि
मंजु गुप्ता
सतयुग, त्रेता, द्वापर , कलियुग में
छलती आईं नारियाँ
सदा से
अहल्या , सीता , द्रौपदी, दामिनी
देती रहीं अग्नि
परीक्षा भामिनी
अधर्म पर धर्म की जीत
बता गई .
सदा रही पाबंदियों में
नारी
भेदभाव की सहती बीमारी
सीमाओं में बँधी बेचारी
भयभीत बचपन और जवानी
अन्याय के प्रति गुहार
लगा गई .
दामिनी की तस्वीर को न
देखा
चैनलों - समाचारों से
सुना
भूखे भेड़ियों ने उसे
नोचा
सारा भारत है एक हुआ
आंदोलनों का बिगुल बजा
गई .
हो रही अब मानसिकता दूषित
बच्ची- नारी से होता दुराचार
इंसानियत हो रही
शर्मसार
आजाद घूम रहें गुनहगार
व्यवस्थाओं पर उँगली उठा गई .
‘माँ मैं
अब भी जीना चाहती’
सोच थी उसकी आशावादी
हौसले - साहस की
थी वह उड़ान
ताकत , ऊर्जा , शक्ति की तूफ़ान
क्रांति की मशालें जला गई .
खिड़कियाँ दिमागों की
खोल गई
राजपथ को अग्निपथ बना
गई
तेरह दिनों तक
जीवन - मृत्यु से खेली
शहादत को गले से लगा गई
.
सत्ता के वृक्ष को हिलाकर चली गई
लालबत्तियों को सबक
सिखा रही
दुराचारियों को भयभीत
करा गई
देशवासियों की रूह जगा गई
दोषियों को जब मिलेगी
सूली
तभी दामिनी को श्रद्धांजलि
यही हर दिल की बुलंद
आवाज
यही उसकी पीड़ा का अंजाम
नवयुग की शुरुआत करा गई .
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2-शाश्वत प्रश्न
कविता मालवीय
वह
सूरज के नीचे खड़े होकर
अक्सर अँधेरे से डर जाता है
समझ नहीं पाता है
कि अँधेरा ही प्रकाश की फसल उगाता है,
कसके गिरो तभी उठने का मज़ा आता है,
बंद खिड़की का अवसाद ही
खुली खिड़कियों की क्रांति खटखटाता है,
आँसुओं से भरे अतीत के खेत में ही
हरे भरे वर्तमान का धान उग पाता है ,
हाशिये में लिखा नोट ही
खास मसले का पता बताता है,
किनारों पर रहने का मोह- त्याग ही
नई धरा की खोज का बीड़ा उठाता है,
बल्लीमारान की बेनूर गली क़ासिम से ही
ग़ालिब की शायरी का दरिया उफान पर आता है ,
फिर इंसान सूरज के नीचे खड़े हो कर
अँधेरे से क्यों डर जाता है?
अक्सर अँधेरे से डर जाता है
समझ नहीं पाता है
कि अँधेरा ही प्रकाश की फसल उगाता है,
कसके गिरो तभी उठने का मज़ा आता है,
बंद खिड़की का अवसाद ही
खुली खिड़कियों की क्रांति खटखटाता है,
आँसुओं से भरे अतीत के खेत में ही
हरे भरे वर्तमान का धान उग पाता है ,
हाशिये में लिखा नोट ही
खास मसले का पता बताता है,
किनारों पर रहने का मोह- त्याग ही
नई धरा की खोज का बीड़ा उठाता है,
बल्लीमारान की बेनूर गली क़ासिम से ही
ग़ालिब की शायरी का दरिया उफान पर आता है ,
फिर इंसान सूरज के नीचे खड़े हो कर
अँधेरे से क्यों डर जाता है?
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3-शून्य
एहसास
सीमा स्मृति
क्या फर्क पड़ता है
आघात-प्रतिघात से
जब दर्द का एहसास
शून्य पड़ जाता है।
यथार्थ तड़पता है—
महज शब्दों के जाल में
किसी रक्तहीन दिल के टुकड़े की
तरह
जो इक बूँद रक्त को तरसता है।
मूल्यों, नैतिकता , आदर्श,
मानवीयता की आड़ में
अमानवीयता अनैतिकता का ताण्डव
नृत्य हुआ करता है, कहते है------
कहते हैं
ये शहर है इंसानो का
फिर क्यों------
खुद अपना अक्स यहाँ
इंसानियत को तरसता है ।
अत्यन्त विस्तृत है जीवन
फिर क्यों--------
हर शख़्स,चन्द
लम्हे
हर मुखौटा उतार,जीने से डरता है
क्या फ़र्क पड़ता है
आघात- प्रतिघात से
जब दर्द का एहसास
शून्य पड़ जाता है।
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