अनिमा दास
1-आत्मस्थ हो जाऊँ मैं (सॉनेट)
नीरव
निर्विकार रहूँ निर्विवाद उपस्थिति की प्रशांति लिए
समाप्त
हो जाएगा आकाश, पर्वतों के अस्तित्व की होगी संपुष्टि
अतः
मैं पुनर्जन्म की प्रतीक्षा कर सकूँ स्वाति बूँदों की कांति लिए
स्यात्
... यह हो पाएगा कभी... अपितु, नहीं
है मोह जीवन का
अपसारित
भास में घन तमिस्र का है संपूर्ण विस्तारण
शुष्क
उर्वी में जलाशय का...स्वाभिमान का किंवा प्रत्यावर्तन का
नहीं
करती अभिप्राय... इस देहमग्न उक्तियों से होगा उद्धारण
समस्त
हरीतिमा एवं हरित अश्रुओं की तीर्णता लिए हो जाऊँ आत्मस्थ
जिज्ञासा
जिजीविषा से ले लूँ एक सुदीर्घ किंतु अंतिम विराम
सहस्र
मार्ग होंगे सम्मिलित किंतु मैं रहूँगी पूर्णतः स्वयं के अधीनस्थ
अति
इच्छाओं का होगा अवसान... मृत्यु पश्चात् गूँजेगा 'रामनाम'।
तटीय ऊष्मा में होंगीं निश्चिह्न क्षुभित प्रश्नों की कई अभिमानी तरिणी
किंतु रहूँगी मैं आत्मस्थ..मौन बह जाएगी सिद्धांतो की निर्झरिणी।
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20-निर्वासन (सॉनेट)
कभी
कहा होता अंतरिक्ष बन जाती मैं तुम्हारी असीम कामनाओं का
किंतु
कहा नहीं तुमने -केवल दिया क्षत कई मृदुल मृण्मयी देह पर
यदि
कहा होता तो मैं अवश्य शिखर की रश्मियाँ ले आती अँजुरीभर
किंतु
कहा नहीं तुमने - केवल घृणा में जलाया नभ,मेरी भावनाओं का
नहीं
होती कभी नीरव स्रोत में,अस्थिर मानस की विद्रोही कणिका
गतिशील
ग्रहों में नहीं होता मृत मोह का सूक्ष्म स्नायविक विन्यास
नहीं
त्यागा जाता शून्य प्रांगण में संध्या प्रदीप का प्राक्
अध्यास
नहीं
होती कभी स्वर्गीय उपासना में मायावी भृंग की मृगतृष्णिका
चंदनपूरित
अस्थियों से जब किया था अर्ध भस्मित देह का शृंगार,
क्या
तुम्हें था ज्ञात कि अपराधी हृदय में नित्य जलेगा नारंगी श्मशान?
क्या
था तुम्हें ज्ञात,कि तुम्हारी अहंमन्यता का होगा निर्मम अवसान?
विचारवेदी
पर स्वतंत्र शब्दों की होगी हत्या एवं बहेगा तरल अंगार?
न..तुमने
कहा नहीं कभी आत्माओं का वृक्ष होता परिवर्धित
यदि
कहा होता तो मेरे प्रत्याशी मन को नहीं करती मैं निर्वासित ।
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