मंजूषा मन
नैनों ने भरना चाहा था तुम्हें
अपने भीतर
और छुपा लेना था पलकों में,
हाथों ने चाहा था छू लेना
और महक जाना
ज्यों महक जातीं हैं उंगलियाँ
चंदन को छू,
कान चाहते थे
दो बोल प्रेम के
जिन्हें सुन जन्म जन्मांतर तक
कानों में घुली रहे मिश्री,
मस्तक को चाहिए थी
तुम्हारे चरणों की एक चुटकी रज
जिसके छूते ही
मन मे भर जाए चिर शांति,
होठों ने चाहा था कह देना
मन की हर पीड़ा
कि फिर न रहे कोई दर्द,
सिर झुका रहा देर तक
इस आस में कि रख दोगे तुम हाथ
और दोगे सांत्वना
दोगे साहस जीवन जीने का,
सब मिल करते रहे प्रतीक्षा
पर तुम नहीं आए
तुम नहीं आए।
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