पथ के साथी

Monday, April 6, 2020

आवेग है इसमें

 डॉ.कविता भट्ट

 1

 अजब सा दौर है, अजब दस्तूर है,

ग़म की स्याही में शख़्स हर चूर है।

जीने के वास्ते, तुम गीत गाते रहो-

जिंदगी प्यार है और मुस्कराते रहो।

 

बहुत मशगूल हैं, अब शहर दोस्तों,

घर किसी के कोई आता-जाता नहीं।

मेरे घर आओ तो- ये तुम्हारा ही है,

और कभी मुझे भी घर बुलाते रहो।

 

माना कि रोटियाँ हैं जरूरी मगर,

लोग खुश वे भी हैं, दो कमाते हैं जो।

चुस्कियाँ चाय की, सुर मिलाते रहो।

जिंदगी प्यार है और मुस्कराते रहो।

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2-मेरे भीतर

 

मेरे भीतर

जो चुप -सी नदी बहती है

वेग नहीं, किन्तु आवेग है इसमें

बहुत वर्षों से-

डुबकी लगा रही हूँ

अपने को खोज न सकी अब भी

न जाने किस आधार पर

मैं अपने जैसे-

एक साथी की खोज में थी।

स्त्री समुद्र है

 डॉ.कविता भट्ट

1

उसके पास रोटी थी,

किन्तु भूख नहीं थी।

मेरे पास भूख तो थी,

किन्तु रोटी नहीं थी।

 

खपा वह भूख के लिए,

मिटा मैं रोटी के लिए।

भूख-रोटी दो विषयों पर,

बीत गए युग व युगान्तर।

 

संघर्ष रुका नहीं अब भी,

समय तो धृतराष्ट्र था ही।

किन्तु; प्रश्न तो यह है भारी

इतिहास क्यों बना गान्धारी ?

2

 हाँ स्त्री समुद्र है- उद्वेलित और प्रशान्त

मन के भाव ज्वार-भाटा के समान

विचलित और दुःखी करते हैं उसे भी

हो जाती है जीवमात्र कुछ क्षणों के लिए।

किन्तु; पुनः स्मरण करती है; कि

वह है- प्रसूता, जननी और पालनहार

पुरुष- अपने अस्तित्व के लिए भी

निर्भर है सूक्ष्म जीव सा- इसी समुद्र पर

दोहराता रहता है- भूलें-अपराध-असंवेदनाएँ

प्रायश्चित नहीं करता, किन्तु फिर भी

विश्राम चाहता है- स्त्री के वक्षस्थल में

विशाल हृदया स्त्री क्षमादान देती है

समेट लेती है- सब गुण-अवगुण

समुद्र के समान- प्रशान्त होकर

और चाहती है कि ज्वार-भाटा में

सूक्ष्म जीव का अस्तित्व बना रहे।

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